कुछ न कहूँ चुप ही रहूँ , शायद ये हो मेरा ठीक जबाब ।
मै कहता प्रतिकार इसे , तुम भले कहो कमजोरी जनाब ।
तुमने आरोप लगाया है , मैंने दिल को तेरे दुखाया है !
अपने अनर्गल शब्दों से , तेरे मन को दुःख पहुँचाया है ।
पीड़ा हुयी तुम्हे ज्यादा ही , सम्बन्ध ही थे इतने प्रगाढ़ ।
फिर भी समझ सके ना तुम , मेरे मन में उठते ज्वार ।
तुम तो सदा कहोगे ही , हर शब्द तुम्हारे मर्यादित थे ।चलो मान लेते है इसको , पर उनमे भी तीखेपन भी थे ।तीरों जैसी नोक थी उनमे , दिल को भेद कर निकले थे ।जब छलनी हो गया मन मेरा , प्रतिकार मेरे आने ही थे ।सदा मुझे परखने की खातिर , अपनाते हो जिन पैमानों को ।क्या कभी परख कर देखा, तुमने अपने भी व्यवहारों को ।आरोप लगाना कठिन नही , है कठिन उसे मर्यादित रखना ।सम्बन्ध बनाना कठिन नही, है कठिन उसे आगे ले चलाना ।है एक बार की बात नही, कब तक मै साथ निभाऊंगा ।आज नही तो कल मै भी , कभी पलट वार कर जाऊंगा ।बिखर जायेंगे सम्बन्धो की , माला में गुंथे हुए मोती ।इसीलिए चुप हूँ मै अभी , आँखे समेटे है कुछ मोती ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
2 टिप्पणियां:
सुन्दर रचना ..........
सार्थक प्रस्तुति .............
बहुत प्यारी रचना
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