खुली किताब सा रखकर उनको , सारे अंतर्द्वंद समझना ।
कुछ भाव सरल होते है इतने , जैसे हों छुई-मुई की डाले ।
आगे बढ़कर पकड़ सके , इससे पहले स्वयं संकुचित हो जाते ।
कुछ तथस्त भाव की गाँठें हैं , मज़बूरी उनकी रहना तथस्त ।
क्या सच है क्या झूंठ है इसको , पहचान नहीं पाते अभ्यस्त ।
कुछ गाँठे हैं शंकाओ की , हर बात में वो प्रश्नचिह उठाती ।
सभी व्यक्तियों के चरित्र पर , वो एक धब्बा सदा लगातीं ।
कुछ गाँठे होती जटिल बहुत , मन को वो उलझाती हैं ।
अपने संग संग औरो को भी , भ्रम में सदा फँसाती हैं ।
एसी ही कुछ गाँठो का , मैंने सोचा था विश्लेषण करू ।
हो सके अगर अपने मन की , गाँठो का भी दर्शन करू ।
लेकिन शायद मन की गाँठे , संगठित बहुत ही होती हैं ।
कोई इनका करे विश्लेषण , यह बात इन्हें अखरती है ।
आगे बढ़ कर सभी कपाट , फ़ौरन बंद वो करतीं है ।
व्याकुल करके अंतर्मन को , स्वयं को सुरक्षित करतीं है ।
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
बेहतरीन अभिव्यक्ति
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