हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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बुधवार, 27 जुलाई 2011

मेरा मयखाना...


मत रोको मुझे इस पर अभी , उस पार मेरा दीवाना है ।
इस पार क़यामत बरस रही , उस पार मेरा मयखाना है ।

हो रहा समय अब पूजा का , क्यों डाल रहे हो विघ्न अभी ।
इससे पहले मेरी नजर झुंके , मुझे शीश नवाना है अभी ।
नजरो से नजर मिलाकर , मुझे साकी से कुछ कहना है ।
अपने अंतर्मन में उसको , पुरजोर बिठा  कर रखना है ।

वो देखो बँटने लगा है जाम ,  और छलक रहे कुछ पैमाने ।
है तड़फ उठी मेरे दिल में भी , मुझे बुला रहे मेरे मयखाने ।
मै नहीं पियक्कड़ उनमे सा , जो पीकर राह में गिरते हैं ।
ज्यों-ज्यों मै पीता जाता हूँ , त्यों-त्यों मै होश में आता हूँ ।

जो पीने वाले हैं प्रतिदिन , वो प्रतिपल होश में रहते हैं ।
जो पीते हैं कभी यदा-कदा , वो ही मदहोशी में गिरते हैं ।
और 'मय' तो यारों चीज है वो , जो 'मै' को भुला मेरी देती है ।
'प्रियतम' की नजरो में मुझको , 'अमृत' का मजा वो देती है ।

मत रोको मुझे इस पार अभी , उस पार इबादत करनी है ।
इस पार बसे सब काफ़िर हैं , उस पार मोहब्बत करनी है ।

उस पार मै जाकर पी आऊ , इस पार मै तौबा कर लूँगा ।
इस रात मै छककर पी आऊ , कल दिन में तौबा कर लूँगा ।
तौबा-तौबा-तौबा है मुझे , इस बार न तौबा तोडूंगा मै ।
आज पिऊँगा नजरो से , न जाम छुऊंगा ओंठो  से  मै ।

जो आज मिली ना नजर मेरी , कुछ पल में ही मर जाऊँगा ।
बस रहे सलामत मधुशाला   , बाकी तो मै जी जाऊँगा ।
न रूठे मेरा साकी मुझसे , न मुझसे नजर हटाये कभी ।
न केश समेटे अपना वो , न मेरे ओंठो को तडफाये अभी ।

एक नजर देख ले मुझको वो , फिर 'मय' की मुझे जरुरत क्या ।
एक बार पिला दे छककर के , फिर 'मै' की मुझे जरुरत क्या ?
उस पार पहुँच बस जाऊ मै , इस पार लौट के ना आऊँगा ।
जिस पार मिले महबूब मेरे , उस पार ही मै रह जाऊँगा ।

मत रोको मुझे इस पर अभी , उस पार मेरा परवाना है ।
इस पार क़यामत बरस रही , उस पार इबादतखाना  है ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

2 टिप्‍पणियां:

Vishal Mishra ने कहा…

बढ़िया लिखे हैं विवेक भाई। मुखौटे, प्रेम कविता। वह महेश गिरी जी का आइटम पढ़कर मजा आया।

टोल टैक्स पर पीछे वाली गाड़ी का पैसा चुका दो।

गाड़ी के साथ फोटो भी अच्छी है। दो शेरों के बीच आपके खड़े होने से अशोक चक्र के तीन सिंह भी पूरे हो गए।
इत्मीनान से बैठकर मेरा मयखाना पढ़ रहा हूं। शुरुआत आखिरी की पंक्तियों से की है।

मत रोको मुझे इस पार अभी, उस पार मेरा परवाना है।
इस पार क़यामत बरस रही, उस पार इबादतखाना है।

कहां से ढूंढ कर ले आते हो इतनी शानदार शब्द रचना।

आपका विशाल

govind pandey ने कहा…

ye wali bahut achhi hai

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

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