जाने कितने आये जग में , जाने कितने चले गए ।
नियति नियंता बनने की , चाहत दिल में लिए गए ।
तुम भी आये हो इस जग में , राज करो चुपचाप यहाँ ।
नियति नियंता बनने का , ना प्रयत्न करो तुम आज यहाँ ।
मेरा था कर्त्तव्य अतैय , मै तुम्हे आज समझाता हूँ ।
इस जग की यह रीत पुरानी , तुम्हे पुन: बतलाता हूँ ।
ना तुम जग के भाग्य विधाता , ना ही तुम ईश्वर हो ।इस क्षण भंगुर मानव तन में , तुम भी केवल पुतले हो ।
तो जावो जाकर राज करो , उन निर्बल निरीह प्राणियों पर ।जो अपना मान बेंचकर प्रतिदिन , करते हैं गुणगान तुम्हारा ।शायद वो हैं भूल गए , है उनका नियति नियंता कौन ?लेकिन मुझको पता है अब भी , मेरा भाग्य विधाता कौन ।जब तक वो नही चाहेगा , तुम मेरा क्या कर पावोगे ?मुझे मिटाने के चक्कर में , तुम खुद ही मिट जावोगे ।मुझसे मत पालो तुम आशा , चाटुकारिता कर पाऊंगा ।तेरे झूंठे दिवास्वप्न में , नही व्याभचारिता कर पाऊंगा ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
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