करना था संघर्ष जहाँ , हम वहां समर्पण कर बैठे ।
जहाँ समर्पण करना था , संघर्ष वहां हम कर बैठे ।
सम पर ध्यान लगाना था , विषम साध कैसे बैठे ।
मन की भूल भुलैया में , हम कैसे राह भटक बैठे ।
शायद तृप्त नही थे हम , रिक्त अभी कोई कोना था ।
या अंतर्मन की गठरी में , खुला कहीं कोई कोना था ।
जो भी हो निश्चय ही , कहीं चूक मै कर बैठा ।हीरे मोती के चक्कर में , कचरा इकठ्ठा कर बैठा ।जिस पर ध्यान लगाना था , उसको ही बिसरा बैठा ।लक्ष्य भटक कर नादानों सा , अपना हाथ जला बैठा ।चलो शुक्र है समझ में आया , माया ने अब तक भरमाया ।सत्य - असत्य के अंतर को , मन मेरा समझ देर से पाया ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
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