हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

आतंरिक विद्रोह...

जबतक आप किसी भी कार्य , लक्ष्य , अथवा सम्बन्धो हेतु पूर्णतया स्वयं अंतरमन से राजी नहीं होते , 
आप बाह्य दबाव अथवा कारको के प्रभाव में अपना सर्वोत्तम योगदान नहीं दे सकते हैं ।
और
जब तक आप हार्दिक रूप से प्रशन्न और भावविभोर नहीं होते , आप अपने अंतरमन को संतुष्ट नहीं कर सकते। फिर जब तक आपका ह्रदय रिक्त है आपका अंतरमन विरक्त ही रहेगा ।
और
जब तक आपका अंतरमन विरक्त है आप अपने अंदर ही विद्रोही को पालते रहेंगे जो आपकी हर रचनात्मकता और सकारात्मकता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता रहेगा ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG


बेसहारा...

जीवन संघर्षो की बनी दुधारी , लगते घाव हैं बारी बारी ।
जायें किधर समझ ना आये ,आगे कुआँ और पीछे खाई ।
एक तरफ आदर्शो का अब , कटु कोरापन हो रहा प्रगट ।
ठोस धरातल था कल तक , दलदल बन वो रहा विकट ।
परीलोक की गल्प कथाएं , प्रेतलोक का भय दिखलाये ।
कलियों पर मंडराते भौरे , दूर दूर तक नजर ना आयें ।

ठकुरसुहाती सुनने वाले , सोहर सुन कर भी मुस्काए ।
आवारो सा भटके जीवन , कोई सहारा नजर ना आये ।
इनकी टोपी उनके सर , मंत्र भी देखो काम ना आये ।
नजर घुमाओ जिस भी ओर , हाहाकार नजर में आये ।
भागम भाग है चूहों की , और सागर में कश्ती बौराये ।
दरक रहा जलयान पुराना , खेवनहार नजर ना आये ।

मृगतृष्णा सा था जीवन , जीवन भर अब तक ललचाए ।
टूटा पौरुष ढली जवानी , चलने को सहारा नजर ना आये ।

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गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

थोड़ा सा जल मुझे चाहिए..

प्यास लगी है मन में मेरे , ज्वाला जलती तन में मेरे ।
विकल हो रहे नेत्र हमारे , डग-मग होते कदम हमारे ।
जन्म जन्म की प्यास लगी है , व्याकुल मन को करने लगी है ।
देख पास शीतल जल धारा , तन को हर्षित करने लगी है ।

पल भर का अवरोध नहीं , अब मन को जरा सुहाता है ।
जी भर कर जल का पान करूँ , यह भाव ही मन में आता है ।
क्या कहा निषिद्ध है जल धारा , उस पर नहीं अधिकार हमारा ।
पर भुला सभी प्रतिबंधो को , मन व्याकुल होता सम्बन्धो को ।

क्या होगा जो अनाधिकार , एक अंजलि भर जल पी लूँगा ।
क्या इससे पूरी जलधारा को , अपवित्र अछूत मै कर दूँगा ।
तुम चाहो तो जाकर पूंछो , उस अमृतमय जलधारा से ।
क्या ओंठो को मेरे छूने की , कोई चाह नहीं जलधारा को ।

प्यास बुझाए बिना पथिक की , क्या धर्म निभा वो पाएगी ।
मुझको प्यासा छोड़ अकेला , क्या सुख से वो सो पायेगी ।
तो मिलन हमारा होने दो , अवरोध व्यर्थ ना खड़े करो ।
सूख रहे ओंठो को मेरे , थोड़ा सा जल बस पीने दो ।

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काल और हम ...

कालचक्र की गति सनातन , ठहराव नहीं उसकी गति में ।
आठो पहर के हर एक पल , घूमे रथ के पहिये निरंतर ।
जल थल से लेकर नभ तक , धरती और पाताल सभी ।
घूम रहे प्रतिबल बन छाया , अदभुद कालचक्र की माया ।

सेवक बनकर पीछे चलते , दशो दिशाओं के दिगपाल ।
हाथ जोड़ कर शीश नवाते , श्रृष्टि के सारे महिपाल ।
भूत भविष्य और वर्तमान , उसके रथ के अश्व महान ।
एक रास में एक साथ ही , उन्हें जोतता है महाकाल ।

कभी यहाँ और कभी वहां , ना जाने किस पल रहे कहाँ ।
किसको कब वो राज दिला दे , कब राजा को रंक बना दे ।
बैरी दल के अन्दर भी , विश्वस्थ मित्रता तुम्हे दिला दे ।
विश्वस्थ सहचरों की टोली , जाने कब वो बागी बना दे ।

महाकाल की एक हांक से , उलट पुलट हो जाती श्रृष्टि ।
सूर्य चंद्र और तारों तक की , गति दिशाहीन हो जाती ।
ऐसे में हम मानव क्या  , अभिमान करे अपने ऊपर ।
कर्त्तव्य हमारा है पुरषार्थ , बस उसे करे निर्मल होकर ।

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मंगलवार, 9 सितंबर 2014

आओ स्वप्नदर्शी बने...

स्वप्नों का संसार अनोखा , और अनोखी स्वप्न साधना ।
काल समय का भेद मिटाकर , स्वप्न नए जगत दिखाता ।
नित जाने-अनजाने लोकों की , स्वप्न हमें है सैर कराता ।
उत्तर कई अबूझ पहेलियों के , स्वप्न ही प्राय: हमें बताता ।

कुछ लोग देखते स्वप्नों को , जब वो निंद्रा में होते हैं ।
खुलती उनकी आँखे जहाँ , वो स्वप्न तिरोहित होते हैं ।
व्यर्थ हो जाते स्वप्न सभी , जो केवल निंद्रा में देखे जाते ।
कभी धरा का ठोस धरातल , स्वप्न नहीं वो बन पाते ।

पर कुछ बिरले मानव होते , जो स्वप्नदृष्टा हैं बन पाते ।
खुली आँख से स्वप्न देखते , स्वप्नों को साकार बनाते ।
खुली आँख से देख स्वप्न को , जीवान्त यहाँ जो कर पाते ।
वही स्वप्नदर्शी इस जग का , कायापलट सदा कर जाते ।

है अगर भूँख कुछ करने की तो , खुली आँख से देखो स्वप्न ।
तन मन धन सम्पूर्ण लगाकर , सृजित करो धरा पर स्वर्ग ।
जब स्वप्न धरातल पर उतरे , तब कहलाती स्वप्न साधना ।
जब सत्य स्वप्न का मूल बने , तब मन की वो बनती कामना । 

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रविवार, 17 अगस्त 2014

मिले जो राह में कांटे..

मिले जो राह में कांटे , कदम वापस ना लेना तुम ।
उन्हें समेट कर आगे , कदम अपने बढ़ाना तुम ।
मिले जो राह में ठोकर , कदम धीमे ना करना तुम ।
कदम की ठोकरों से ही , राह खाली कराना तुम ।
खड़े अवरोध हों आगे , ना घबड़ाकर रुक जाना तुम ।
मिटाकर हस्तियाँ उनकी , मंजिल अपनी पाना तुम ।

मिले जो संगी साथी तो , उन्हें भी साथ ले लेना ।
मगर घुटनों पे रेंग कर , कभी ना साथ तुम देना ।
निभाना दोस्ती या दुश्मनी , आगे ही बढ़कर तुम ।
मगर कभी पीठ में छुरे को , ना अवसर देना तुम ।
लगी हो जान की बाजी , अगर मंजिल को पाने में ।
कभी भूले से ना मन में , हिचकिचाहट लाना तुम ।

भले ही लोग करते हों , तुम्हारी कैसी भी निंदा ।
भूल कर जग की बाते , साथ सच का ही देना तुम ।
ना खाना खौफ तूफानो से , हौंसला साथ तुम रखना ।
भले ही कुछ भी हो जाए , साथ तुम अपनो के रहना ।
दिखे कुछ भले मुश्किल , मगर मुश्किल कहाँ कुछ भी ।
अगर तुम ठान मन में लो , कहाँ कुछ भी तुम्हारे बिन ।

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मंगलवार, 12 अगस्त 2014

सामंजस पर टिकी ये श्रृष्टि है..

कुछ अच्छाई और बुराई के ,
सामंजस पर टिकी ये श्रृष्टि है ।
विपरीत ध्रुवो के बिना कहाँ ,
कभी चल पायी कोई श्रृष्टि है ।
शिव शक्ति के मिले बिना  ,
नहीं होती श्रृष्टि की उत्पत्ति है ।

मानव जाति है जग में तो ,
दानवो जाति भी होगी ही ।
यदि देवो का है देवलोक ,
असुर लोक भी होगा ही ।
अच्छाई बिना बुराई के ,
पहचानी नहीं कभी जाती ।

अगर है बहती प्रेम की धारा ,
फिर विरह वेदना होगी ही ।
त्याग अगर है इस जग में ,
फिर लोभ की ज्वाला होगी ही ।
दुःख के बिना नहीं इस जग में ,
सुख का एहसास हो पाता है ।

अच्छाई और बुराई के ,
सामंजस पर टिकी ये श्रृष्टि है ।
विपरीत ध्रुवो के बिना कहाँ ,
कभी चल पायी कोई श्रृष्टि है ।
सामंजस्य बनाकर चलना ही ,
जीवन की है बस नियति है ।

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शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

ये मान्यता है...पर मै इससे कदापि सहमत नहीं।

मान्यता है और मीडिया के लोग कहते हैं ये तस्वीर राम भक्त हनुमान जी के पैरों की है श्रीलंका में.... 

पर मै इससे कदापि सहमत नहीं कि ये तस्वीर राम भक्त हनुमान जी के पैर हैं


अगर ये निशान हनुमान जी के पैरों का होता तो अकेला नहीं होता..वरन दूसरे पैर का निशान या और भी पदचिन्ह होते वहां पर क्योंकि हनुमान जी केवल एक पैर पर तो खड़े नहीं रहे होंगे लंका में।


निश्चित तौर पर यह बाली पुत्र और वानर सेना के सेनापति महाबली अंगद के पैर के निशान हैं।

और ये तब के हैं जब वो भगवान् राम के दूत बनकर रावण की सभा में गए थे और रावण के ललकारने के जबाब में अपना "एक पैर जमा कर" वहीँ राजसभा में खड़े हो गए थे और समस्त राक्षस जाति को ललकार कर बोले थे कि यदि कोई मेरा एक पैर भी हिला दे तो भगवान् राम अपनी हार बिना युद्ध के मान लेंगे...

और कहते हैं कि महाबली अंगद ने अपना पैर भूमि में इतना तगड़ा जमाया था कि दशानन रावण के दरबार का कोई भी बलशाली राक्षस और यहाँ तक उसका इंद्र तक को बंदी बना लेने वाला पुत्र इन्द्रजीत भी अंगद के एक पैर को हिला नहीं पाया था।

तो यह सत प्रतिशत निश्चित तौर पर अगर है किसी के पैरों का निशान तो महाबली बालि पुत्र अंगद का ही।

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गुरुवार, 31 जुलाई 2014

तुम्हे शौख होगा...

तुम्हे शौख होगा चेहरे पर मुखौटे पहनने का,
हम अपने चहरे पर कोई नकाब नहीं रखते।

तुम्हे शौख होगा बातों को घुमाकर कहने का,
हम अपनी जबान में झूंठी मिठास नहीं रखते।

तुम्हे शौख होगा झूंठ को सच सच को झूंठ कहने का,
हम अपने जानिब झूंठी किस्सागोई का हुनर नहीं रखते।

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मंगलवार, 29 जुलाई 2014

एक सूफी कहानी....


एक फकीर सत्य को खोजने निकला। 
अपने ही गाव के बाहर, जो पहला ही संत उसे मिला, एक वृक्ष के नीचे बैठे, उससे उसने पूछा कि मैं सदगुरु को खोजने निकला हूं आप बताएंगे कि सदगुरु के लक्षण क्या हैं? 
उस फकीर ने लक्षण बता दिये...लक्षण बड़े सरल थे।
उसने कहा, ऐसे-ऐसे वृक्ष के नीचे बैठा मिले, इस-इस आसन में बैठा हो, ऐसी-ऐसी मुद्रा हो बस समझ लेना कि यही सदगुरु है।

फिर फ़क़ीर चल पड़ा खोजने सदगुरु...
कहते हैं तीस साल बीत गये, सारी पृथ्वी पर चक्कर मारा बहुत जगह गया, लेकिन सदगुरु न मिला। बहुत मिले, मगर कोई सदगुरु न था। थका—मादा अपने गाव वापिस लौटा। लौट रहा था तो हैरान हो गया, भरोसा न आया...वह बूढ़ा बैठा था उसी वृक्ष के नीचे। 
अब उसको दिखायी पड़ा कि यह तो वृक्ष वही है जो इस बूढ़े ने कहा था, ‘ऐसे-ऐसे वृक्ष के नीचे बैठा हो।’ और यह आसन भी वही लगाये है, लेकिन यह आसन वह तीस साल पहले भी लगाये था। क्या मैं अंधा था? इसके चेहरे पर भाव भी वही, मुद्रा भी वही। वह उसके चरणों में गिर पड़ा। कहा कि आपने पहले ही मुझे क्यों न कहा? तीस साल मुझे भटकाया क्यों? यह क्यों न कहा कि मैं ही सदगुरु हूं?

उस बूढ़े ने कहा, मैंने तो कहा था, लेकिन तुम तब सुनने को तैयार न थे। तुम बिना भटके घर भी नहीं आ सकते थे । अपने घर आने के लिए भी तुम्हें हजार घरों पर दस्तक मारनी पड़ेगी, तभी तुम आओगे। कह तो दिया था मैंने, सब बता दिया था कि ऐसे-ऐसे वृक्ष के नीचे, यही वृक्ष की व्याख्या कर रहा था, यही मुद्रा में बैठा था; लेकिन तुम भागे- भागे थे, तुम ठीक से सुन न सके; तुम जल्दी में थे। तुम कहीं खोजने जा रहे थे। खोज बड़ी महत्वपूर्ण थी, सत्य महत्वपूर्ण नहीं था तुम्हें। लेकिन आ गये तुम! मैं थका जा रहा था तुम्हारे लिए बैठा-बैठा इसी मुद्रा में! तीस साल तुम तो भटक रहे थे, मेरी तो सोचो, इसी झाड़ के नीचे बैठा कि किसी दिन तुम आओगे तो कहीं ऐसा न हो कि तब तक मैं विदा हो जाऊं! तुम्हारे लिए रुका था आ गये तुम! तीस साल तुम्हें भटकना पड़ा अपने कारण। जबकि सदगुरु मौजूद तुम्हारे सामने ही।

बहुत बार जीवन में ऐसा होता है, जो पास है वह दिखायी नहीं पड़ता, जो दूर है वह आकर्षक मालूम होता है। दूर के ढोल सुहावने मालूम होते हैं। दूर खींचते हैं सपने हमें।

अष्टावक्र कहते हैं कि तुम ही हो वही जिसकी तुम खोज कर रहे हो। और अभी और यहीं तुम वही हो।

तकनीकी का आया युग है..

देखो देश तरक्की पर है , तकनीकी का आया युग है ।
चोरी चोरी चुपके चुपके , कल तक बिकता था ईमान ।
आज बिक रहा है वो देखो , खुल्लम खुल्ला इंटरनेट पर ।
कल तक भाव लगा करता था , गिनकर खोखा पेटी को ।
आज बिक रहा है ईमान, नेतागण का लेकर नाम । 

देखो देश तरक्की पर है , तकनीकी का आया युग है ।
कल तक बिकते थे जनसेवक , सत्ता के तंग गलियारों में ।
आज बिक रहें है वो देखो  , खुल्लम खुल्ला इंटरनेट पर ।
पहले भाव बताते थे कुछ , सत्ता के घुसपैठ दलाल ।
आज लगाता भाव है देखो , इंटरनेट पर ओलेक्स डाट काम ।

देखो देश तरक्की पर है , तकनीकी का आया युग है ।
कल तक बिकती थी अस्मिता , लाल रोशनी की बस्ती में ।
आज बिक रही है वो देखो , खुल्लम खुल्ला इंटरनेट पर ।
पहले तो कुछ चुपके चुपके , लोग दलाली करते थे ।
आज कर रहा है सब खुलकर , इंटरनेट पर बाजी डाट काम ।

देखो देश तरक्की पर है , तकनीकी का आया युग है ।
कल तक रात अँधेरे में जो , लूट रहे थे राज पथो को ।
आज डकैती डाल रहे है  , खुल्लम खुल्ला इंटरनेट पर। 
कल तक गली मोहल्लो में जो , चोर सिपाही खेल रहे थे ।
आज खेलते हैं अब देखो , साइबर क्राईम डाट डाट काम ।

देखो देश तरक्की पर है , तकनीकी का आया युग है ।

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गुरुवार, 24 जुलाई 2014

हाहाकार मचा है जग में..

हाहाकार मचा है जग में , चारो तरफ अँधेरा है ।
चाँद सो रहा अपने घर में , कोसो दूर सबेरा है ।
हर एक पल यूँ बीत रहे , जैसे मास गुजरते हैं ।
लम्हों की बात ही क्या , वो वर्षो जैसे लगते हैं ।

सिसक रहीं है कलियाँ सारी , फूल सभी मुरझाये हैं ।
डालो का कहना ही क्या , पत्तो पर काँटे उग आये हैं ।
ताल तलैया सूख गयी हैं , नदियां रेत उड़ती है ।
सागर का अब हाल देख , बादल तक घबड़ाते हैं ।

खाली हो गए खेत सभी , खलिहानों में है आग लगी ।
गाँवों के भी आँगन में , नव-बधुओं की है चिता सजी ।
सत्य अहिंसा की बोली , अब डगर डगर पर लगती है ।
रक्षक ही भक्षक बन कर , अब चला लूटने डोली है ।

कुछ खद्दरधारी नागों के संग , वर्दीधारी साँप मिलें हैं ।
न्यायपालिका के अन्दर , देखो अजगर पहुँच गए हैं ।
जिसको भी ये डस लेते हैं , मृत्यु नहीं वो पाता है ।
बन कर वो भी दानव दलय , अजर यहाँ हो जाता है ।

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मंगलवार, 22 जुलाई 2014

आखिर कब तक,,

बाँटते-बाँटते खंडित हो गया, खंड खंड में अखंड भारत ।
अब भी क्या तुम चाह रहे, और खंडित हो जाए भारत ?
हम कब कहते कोई धर्म सम्प्रदाय, होता है सम्पूर्ण बुरा ।
हम कब कहते एकाधिकार हो, भारत पर केवल अपना ?
हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई, हैं भारत में सब भाई-भाई ।
जो भी माने भारत माँ को , उससे कब है कोई लड़ाई ?

पर इसका यह अर्थ नहीं , हम बस बँटवारा करते जाए ।
क्या आस्तीन में पालें साँप, सर ना उनके कुँचले जाए ?
मानवता आदर्श हमारा , भाई चारा हमको अति प्यारा 
पर क्या उसके खातिर यूँ ही , बाँटने दें भारत हम प्यारा ?
आखिर कब तक खामोशी से, चुपचाप तमाशा देखा जाए ।
क्यों ना खोदकर जड़ दुश्मन की, मठ्ठा उसमे डाला जाए ?

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शनिवार, 19 जुलाई 2014

खुले दिल दिमाग से....

अपने पक्ष की कमियों को सदैव खुले दिल दिमाग से स्वीकार करना चाहिए 
और उसे बताने वाले को इसके लिए धन्यवाद का पात्र मानना चाहिए कि 
उसने आपकी कमियों को आपको बताकर आपको सुधार का अवसर दिया।
ठीक इसी प्रकार विरोधियो और शत्रुओं के गुणों की भी खुले मन और हृदय से 
सराहना करनी चाहिए और उन्हें उनके गुणों के लिए प्रशंसा का पात्र मानना चाहिए।


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शनिवार, 12 जुलाई 2014

वास्तव में...

ज्ञान प्राप्त करने हेतु अच्छा गुरु नितांत आवश्यक है 
परन्तु
गुरु के देने मात्र से ही शिष्य को ज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता है ,
वरन 
सजगता से शिष्य के प्रयत्न कर लेने से ही उसे ज्ञान प्राप्त होता है। 

यूँ तो 
गुरु के पास रहकर बहुत बार मन में भ्रम पैदा हो जाता है कि हमें बहुत कुछ मिल रहा है ,
परन्तु 
यदि हम पहले से ही भरे हुए पात्र  अथवा बिना पेंदी के बर्तन के समान हैं तो गुरु की ज्ञान वर्षा भी व्यर्थ है। 
वास्तव में 
गुरु तो सहज भाव से ही अपने समस्त शिष्यों को अपना ज्ञान लुटाता रहता है ,

जो अयोग्य होते हैं वो चूक जाते है। 
जो योग्य शिष्य होते हैं वो संगृहीत कर लेते हैं ,
और महान शिष्य, महान गुरुओ का नाम रोशन कर जाते है। 

"कोहिनूर सा बनने के लिए जितना महत्वपूर्ण ये है कि हीरे के टुकड़े को परख कर बेहतरीन तरीके से तराशने वाला मिले उतना ही महत्वपूर्ण ये भी है कि उस हीरे के टुकड़े में भी तराशने योग्य संभावना और क्षमता होनी चाहिए अन्यथा कोई भी जौहरी कोयले के टुकड़े को हीरा नहीं बना सकता। "


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बुधवार, 9 जुलाई 2014

कुछ कोरे कुछ भरे हुये…

जीवन के कुछ पन्ने , हम प्रतिदिन लिखते जाते हैं।
जीवन के कुछ पन्ने , फिर भी कोरे रह जाते हैं।
कुछ पन्नो पर हम प्रायः , लिखते पुनः मिटाते हैं।
कुछ पन्ने होते जीवन के , जो अमिट लेख बन जाते हैं।
कुछ पन्ने सुघड़ तरीके से , सुन्दरता से लिखे जाते हैं ।
कुछ पन्नो पर बस यूँ ही , आड़ा तिरछा गोदते जाते हैं।

कुछ पर हम ज़ीवन के , सुन्दर चित्र उकेरते जाते हैं ।
कुछ पर कई भयानक चेहरे , अपने से उभर कर आते हैं।
कुछ पर करते है लिपबद्ध , जीवन की संगीत लहरियां ।
कुछ पर अंकित हो जाती , दुख पीड़ा की कुछ घडियां ।
बस मे नही ये बात हमारे , अपने मन की लिखे तराने।
मत सोचों तुम इतना यारो , जीवन के हैं यही फ़साने।

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गुरुवार, 5 जून 2014

प्रकृति के नियम और हम..

अम्बर बरसै धरती भींजे , नदिया तब उतराए । 
सहेज समेट कर इस जल को , सागर में मिल जाए । 
सागर से फिर बादल बन कर , अम्बर को मिल जाए। 
इसी तरह से चलती रहती , प्रकृति की सब क्रीडाये। 

आओ हम भी अब बन जाए , प्रकृति के हमराही। 
एक दूजे पर प्रेम लुटाकर , कहलाये प्रेम पुजारी। 
जितना प्रेम लुटाएँगे हम , उससे ज्यादा पाएंगे। 
जितना प्रेम हम पाएंगे , वो सब तुमको लौटाएंगे।

अगर कहीं रुक गया नियम ये , धरती बंजर हो जायेगी। 
सूखेंगी सब नदिया सारी , सागर भी मिट जायेंगे। 
प्रेम की लय जो टूट गयी तो , तुम भी चैन ना पाओगे। 
मेरे जैसा साथी कोई , इस जग में फिर ना पाओगे। 

हमको अपना क्या कहना , बिन जल के ही मर जाएंगे। 
तेरे बिना इस धरती पर , कहीं चैन ना पाएंगे। 
तो फिर आओ करे प्रयत्न , नियम सदा ये अटल रहे। 
एक दूजे की खातिर हम , भावों से सदा भरे रहें। 

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG 


समय फिर लौट आता है...

समय सदैव ही अपने को दोहराता है ,
हमारा अतीत फिर भविष्य बन कर सामने आता है ।
जो बोया था हमने हमारे भूत काल में ,
वो ही आगे नयी पौध बनकर लहलहाता है ।

जो नापसंद था हमें हमारे अतीत में हमेशा ,
कि कोई क्यों वैसा करता है जो हमें नहीं भाता है ,
वही बाते वही आदते काल पात्र स्थान बस बदल कर ,
ये समय किसी और के लिए हमसे भी करवाता है ।

और देखो तमाशा समय का यारो हमेशा ही ,
कौन सही था कौन गलत अतीत में ,
ये वर्तमान ही हमें बता पाता है और ,
यूँ ही समय हमसे हमारे भावनाओं से खेलता जाता है ।

समय अपने बीतने के साथ साथ ,
हमें तमाम नए सबक सिखाता है ,
और यूँ ही कभी पछतावा तो कभी ,
एक नयी संतुष्टि का एहसास कराता है ।

जो बीता था अतीत जब फिर वर्तमान बन कर सामने आता है ,
बस एक ही अफसोस दिल में रह जाता है ,
हम बदल नहीं सकते उसे जो अतीत बन जाता है ,
भले ही समय काल-पात्र-स्थान-चाल-चरित्र-चेहरा बदल कर फिर लौट आता है ।

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सोमवार, 2 जून 2014

यूँ ही टाइम पास..

लो चली आज फ़िर से आंंधी चली , राहे अपनी वो खाली कराती चली । 
शाखे सूखी हो या हो हरे पेड़ों की, तोड़ कर वो पीछे गिराती चली ।
फ़ूल पत्तो के बारे मे क्या मै कहूँ  , उनकी तो हस्ती पूरी मिटाती चली।
राह मे जो भी आयेगा मिट जायेगा , तिनके तिनके को देखो उडाती चली।
घाव मेरे भी दिल पर लगाती चली, जुल्मो सितम जब वो तुम पर ढाती चली।
आंसूओ की कहाँ है उसको कदर , वो तो सागर को पोखर से मिलाने चली ।

बात करते हो क्यों तुम अभी धूप की, वो तो दिनकर की सत्ता झुकाने चली ।
कुटियों की अब मांगें हम खैरात क्या, वो तो महलो को भी खण्डहर बनाने चली।
रोंक पाओ अगर तो अभी रोंक लो , वर्ना हस्ती वो तुम्हारी मिटाने चली ।
क्यों छिपाते हो अब तुम मेरे राज को , वो सारी दुनिया को हकीकत बताने चली।
आग दिल मे लगे चाहे बस्ती जले , वो तुमको फ़िर मुझसे मिलाने चली ।
क्यों दिखाते हो तुम खौफ़ बाहुबलियों का, वो तो सूबो की पलटन हराने चली।

थी मेरे भी मन मे हसरत कहीं , आओ तिनको को आंधी से लडाने चले ।
जो उठी थी आहें कभी मेरे दिल से ,वो ही बनकर के आंधी है देखो चली ।
न्याय सबको वो सबसे दिलाने चली , नयी बस्तियो को फ़िर से बसाने चली।
ढांंप दिनकर को रैना बनाने चली , तेज भारत का सबको दिखाने चली।

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रविवार, 11 मई 2014

ओ राही दिल्ली जाना तो ..."गोपाल सिंह नेपाली"

यह कविता प्रसिद्ध कवि "गोपाल सिंह नेपाली" ने 
"चीन के युद्ध में हमारी करारी हार" के बाद 
"पंडित नेहरु की कायरता पूर्ण नीतियों से क्षुब्ध होकर" लिखी थी 

पर इस कविता को पढ़कर लगता है जैसे यह कविता मनमोहन सरकार के लिए लिखी गयी हो.... 
कितनी सटीक पंक्तियाँ आज भी कितनी प्रासंगिक....................

ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
चरखा चलता है हाथों से, शासन चलता तरवार से ।
यह राम-कृष्ण की जन्मभूमि, पावन धरती सीताओं की ।
फिर कमी रही कब भारत में सभ्यता, शांति, सदभावों की ।
पर नए पड़ोसी कुछ ऐसे, गोली चलती उस पार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।

तुम उड़ा कबूतर अंबर में संदेश शांति का देते हो ।
चिट्ठी लिखकर रह जाते हो, जब कुछ गड़बड़ सुन लेते हो ।
वक्तव्य लिखो कि विरोध करो, यह भी काग़ज़ वह भी काग़ज़ ।
कब नाव राष्ट्र की पार लगी यों काग़ज़ की पतवार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।

तुम चावल भिजवा देते हो, जब प्यार पुराना दर्शाकर ।
वह प्राप्ति सूचना देते हैं, सीमा पर गोली-वर्षा कर ।
चुप रहने को तो हम इतना चुप रहें कि मरघट शर्माए ।
बंदूकों से छूटी गोली कैसे चूमोगे प्यार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।

नहरें फिर भी खुद सकती हैं, बन सकती है योजना नई ।
जीवित है तो फिर कर लेंगे कल्पना नई, कामना नई ।
घर की है बात, यहाँ 'बोतल' पीछे भी पकड़ी जाएगी ।
पहले चलकर के सीमा पर सर झुकवा लो संसार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।

हम लड़ें नहीं प्रण तो ठानें, रण-रास रचाना तो सीखें ।
होना स्वतंत्र हम जान गए, स्वातंत्र्य बचाना तो सीखें ।
वह माने सिर्फ़ नमस्ते से, जो हँसे, मिले, मृदु बात करे ।
बंदूक चलाने वाला माने बमबारी की मार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।

सिद्धांत, धर्म कुछ और चीज़, आज़ादी है कुछ और चीज़ ।
सब कुछ है तरु-डाली-पत्ते, आज़ादी है बुनियाद चीज़ ।
इसलिए वेद, गीता, कुर‍आन, दुनिया ने लिखे स्याही से ।
लेकिन लिक्खा आज़ादी का इतिहास रुधिर की धार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
चर्खा चलता है हाथों से, शासन चलता तलवार से ।।


गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

रूठ कर जब मै चला...

रूठ कर जब मै चला , कुछ दूर तक चलता रहा। 
चोट दिल पर थी लगी , और घाव था रिसता रहा। 
मन था आहत मेरा , तेरे तीखे पैने कटाक्ष से। 
साथ ही अफसोस था , तेरे मूर्खतापूर्ण बात से। 
फिर अचानक रुक गया , मै ठिठक कर राह में। 
मन में आया देख लूँ , थोड़ा पलट कर राह में। 

क्या तुम्हे अफसोस है , अपने किये पर कुछ अभी। 
या अभी भी व्याप्त है , अहंकार तुममे अभी। 
देखा पलट कर मैंने जब , तुम थे वापस जा रहे। 
फिर अचानक यूँ लगा , कदम तेरे लड़खड़ा रहे। 
रोक ना पाया मै स्वयं को , तुम्हे डगमगाते देख कर। 
फिर चल पड़ा तेरी तरफ , तुझको अकेला देख कर। 

कैसे मै उसको छोड़ देता , जिसको सँभाला था सदा। 
तूने नादानियाँ पहले भी की , मै माफ़ करता रहा सदा। 
फिर आज भी तो है वही , हालात जाने पहचाने से। 
अपना तुझे माना सदा , कैसे रुक जाऊ फिर अपनाने से। 
लो लौट मै फिर आया अभी , भुला कर बीती बातो को। 
बस हो सके तो फिर न कहना , तीखी कडुवी बातो को। 

फिर ना हो हालात यूँ , फिर ना टूटे दिल कभी। 
रिश्ते तोड़ना आसान है , पर निभाना मुश्किल सभी। 

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

ये जरुरी तो नहीं..

ये जरुरी तो नहीं , 
हर बात तुम्हे समझायी जाय। 
और वो भी तब ,
जब तुम खुद समझदार हो ,
और यह जताने का कोई मौका नहीं गँवाते। 

फिर बताओ कैसे तुम चूक जाते हो ?
दिलो में धड़कते एहसासो को समझ नहीं पाते हो।
साथ ही तुम समझ क्यों नहीं पाते ,
रिश्तो को चलाने और मिठास बनाये रखने को ,
हमें कई बार वैसा कुछ करना होता है ,
जो सामान्यतया करना हमारी फितरत नहीं होता है।

और ये सब बाते ,
ना जाने कितनी बार समझायी है मैंने तुम्हे। 
कभी प्यार से ,
कभी उलाहने से ,
तो कभी तुमसे झगड़ कर ,
तुम्हे रिश्तो की कगार से वापस केंद्र में लाते हुए। 

और हर बार ,
हर एक बार तुमने ,
कभी भी अपनी कमियों का एहसास ना करते हुए ,
यही कहा सदा ही तुमने,
कि तुम ही सही थे हमेशा ,
क्योंकि दुनियादारी तुम मुझसे ज्यादा समझते हो। 

तो फिर ऐसे समझदार इंसान को ,
ये जरुरी तो नहीं की हर बात समझायी जाय। 
या खुद से समझने वाली ,
हर एक छोटी छोटी बात बार बार बतायी जाय। 

और अब भी अगर तुम मुझको ,
समझ पाने से चूक जाओ ,
तो ये जरूरी तो नहीं हमेशा ,
अपनी ही भावनाओं की बलि चढ़ायी जाय। 

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रविवार, 23 मार्च 2014

क्यों आती है याद तेरी...

क्यों आती है याद तेरी , इतनी ज्यादा मुझको आज। 
आस-पास ही है तू मेरे , फिर क्यों मै इतना आज उदास । 
याद आ रहे है वो पल , जो हमने साथ बिताये थे । 
हाथो में था  हाथ तेरा , धड़क रहे थे दो दिल पास।  
ओंठो पर एक प्यारी सी , तपिश जो मैंने जानी थी। 
तेरे दिल की धड़कन को , बस मैंने अपनी मानी थी। 

खोया था जब ख्वाबों में , कोई जाग रहा था मेरे पास। 
फिर से जी पाऊँ वो पल , बस मन में मेरे यही है आस। 
इसी लिए मुझे आती है , हर पल तेरी इतनी याद। 
तेरे बिना हो रहा है देखो , मेरा दिल आज उदास। 
चुभ रहा कहीं अंदर मेरे , एकाकीपन का एहसास। 
आ जाओ फिर पास मेरे , क्यों तड़फ़ाते इतना आज। 

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मंगलवार, 11 मार्च 2014

श्रापित...

क्या कहे किससे कहें , क्यों कहे हम निज व्यथा। 
व्यर्थ है कहना यहाँ कुछ , जहाँ लोग सुनते हैं कथा। 
हाँ कथा ही सुन रहे सब , भूल कर निज संवेदना। 
हो गए जड़वत जहाँ सब , क्या वो समझेंगे वेदना। 
यदि सत्य को भी सत्य का , जब पड़े देना प्रमाण। 
समझ लीजै तब वहाँ , बस निकलने वाले हैं प्राण। 

आम क्या और खास क्या , जब यहाँ दोनों व्यथित। 
कौन पोंछे आँसू किसके , राज्य ही हो जैसे श्रापित। 
किस लिए किसके लिए , हम करें फिर कुछ यहाँ। 
मृत्यु का ही उत्सव मानते , लोग हों जब सब यहाँ। 
फिर कौन शोषित कौन शोषक , ये प्रश्न ही बेकार है। 
स्वछंदता से कर रहे जब , सब यहाँ व्याभिचार हैं। 

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शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

चार दिनों की बाते...

चार दिनों की मींठी बाते , प्यार मोहब्बत रिश्ते नाते। 
और भुला देते है वो फिर , दो पल में ही सारी बाते। 
याद नहीं रह पाता उनको , अपनो का दिल से अपनापन।
याद भले रहता है उनको , कटु क्षण के कुछ तीखे पल।
उन्हें कहें हम क्या यारो , संवेदन शून्य है जो यारो। 
उनका संग साथ में होना क्या , उन्हें पाना क्या और खोना क्या। 

वो भटक रहे ज्यों कटी पतंग , कभी लटके यहाँ कभी लिपटे वहाँ। 
कभी हवा के झोंको में बह निकले , कभी गिरे यहाँ कभी उड़े वहाँ। 
तुम भी क्या दिल पर ले बैठे , गैरो की बे-गैरत को। 
तुम जियो शान से यारा , अपनो में अपनी खुद्दारी को। 
ये कोई चार दिनों की बात नहीं , ये जीवन भर की कहानी है। 
यहाँ अपना पराया कोई नहीं,  सब मतलब की दुनियादारी है। 

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सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

यादों के पुल पर अकेले..

ये सच है तुम्हारी यादों में ,
बिखर जाता हूँ कई बार। 
ये भी सच है रह रह कर ,
साथ बिताये लम्हे याद आते है बार बार।
ये भी सच है कि याद आते ही ,
खो जाता हूँ उन्ही खट्टे मीठे लम्हो में हर बार। 

मगर यह भी सच है ,
तुम भुला चुके हो अपना अतीत मेरे यार। 
और जब यादों की एक छोर टूट जाए ,
या पुल की रस्सियों की एक तरफ गाँठ खुल जाए। 
तो मुश्किल हो जाता है अकेले ,
यादों के पुल को बिना चोट खाये पार कर पाना। 

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रविवार, 2 फ़रवरी 2014

कंक्रीट के जंगलो में...

कंक्रीट के जंगलो में , जीने की मारा-मारी है। 
रोज खोदना कुआँ यहाँ , प्यास अगर बुझानी है। 
क्या हक़ तेरा क्या है मेरा , बात ही करना नादानी है। 
चंडाल चौकड़ी की केवल , चलती यहाँ मनमानी है। 
यहाँ अपना पराया गड्मड है , मतलब की दुनियादारी है। 
रिश्ते नातो को समय नहीं , आभासी दुनिया से बस यारी है। 

क्या यही है जीवन जो हम जीते ,भूल गये हम कब हैं जीते ?
आँख खुली शुरू भागम-भाग , क्यों यंत्र मानव सा हम जीते ?
पैसा-पैसा केवल पैसा , है किसके लिए ये सारा पैसा ?
जिनके लिए हम चाहते पैसा , क्या उन्हें नजदीक है लाता पैसा ?
ना स्वाभिमान ना दिलो में मान , बेच दिया हम सबने सम्मान। 
गला काट जीवन की होड़ में , बस भरते हम एक दूजे के कान। 

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शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

जो भी हूँ मै जैसा हूँ...

जो भी हूँ मै जैसा हूँ , अपने आप में वैसा हूँ। 
लाख कमी हो मुझमे , फिर भी अपने जैसा हूँ। 
कभी ख़ुशी कभी गुस्से में , अपनी बातें कहता हूँ।
अपनो की सब सुनता पर , अपने दिल की करता हूँ।

ना बनने की कोशिश की , ना औरो जैसा दिखने की। 
यूँ जो भी हूँ मै जैसा हूँ , बस अपने आप में सच्चा हूँ। 


कोई साथ चले या दूर रहे , अपनो के संग सदा रहता हूँ। 
अच्छा कहो या बुरा मुझे , मै अपने दिल की करता हूँ। 
गुण हो ये या दुर्गुण हो , बात ना दिल में रखता हूँ। 
हो खुशहाल या टूटा  दिल , नहीं दिल पर बोझ मै रखता हूँ। 

फिर भली लगे या लगे बुरी , मै  बात सामने कहता हूँ। 
जो भी हूँ मै जैसा हूँ , स्वय में निश्छल भाव से वैसा हूँ।  


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बुधवार, 29 जनवरी 2014

करते रहेंगे नौटंकी यार...

एक था राजा एक प्रजा थी , 
प्रजा पर सदा राजा की कृपा थी। 
यूँ राजा से पहले भी प्रजा थी , 
पर भूंखी नंगी वो सदा थी। 
था राजा का एक राजकुमार , 
जो था राजा से भी ज्यादा सुकमार। 
यूँ वो सदा विदेश ही दौड़ा करता , 
पर कभी कभी जनकल्याण का भी दौरा पड़ता। 
फिर जब देख प्रजा को उसे आता तरस , 
लगता जैसे स्वाती नक्षत्र में पड़े बादल बरस। 

जब भाव-विभोर हो जाता वो , 
समरसता लाने गरीबो के घर जाता वो। 
भूंखी-नंगी खानदानी प्रजा को ,
फिर आकर गले लगाता वो। 
खाना खाकर उनके घर में ,
लेकर डकार भूल सब जाता वो। 
चेले-चापड़ कलछुल-चमचे ,
जब जय-जयकार मचाते थे। 
देख कुँवर की पप्पूगिरी ,
राजा-रानी संग मंत्री हर्षाते थे। 

तभी ना जाने कहाँ किधर से ,
एक नया बहुरुपिया देश में आया। 
स्वॉँग बनाकर तरह तरह का ,
जनता के दिल को हर्षाया। 
बोला ख़तम करेंगे हम ,
राजा-रानी मंत्री-संतरी का भ्रष्टाचार। 
फिर बीच सड़क पर चलाएंगे ,
हम जनता की चुनी सरकार। 
लोक-लुभावन नारे देकर ,
सदा करते रहेंगे नौटंकी यार। 

यूँ जनता तो जनता ही है ,
सदा बनना मूर्ख भाग्य में है। 
करे विधाता भी क्या तब ,
जब चूतिया नन्द,चन्द,घोड़ी सब। 
अब आगे की क्या कहें कहानी ,
घाल-मेल ज्यों दूध और पानी। 
आप-साँप की जोड़ी मिलकर ,

करते है देखो मनमानी। 
यही दुआ है देश की खातिर ,
जनता हो जाये थोड़ी सयानी। 


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बुधवार, 22 जनवरी 2014

रेखाओं में भविष्य...

खींच कर दो-चार लाइन, और बनाकर एक चतुर्भुज। 
देखता हूँ  बाँचते है , वो ना जाने क्या-क्या भविष्य। 
वो जिन्हे खुद का अभी तक , है पता मालूम नहीं। 
वो बताते है आसमानी , शक्तियों के हमको पते। 
वो जो शायद पढ़ सके ना , श्याह-सफ़ेद अक्षरो को। 
वो शान से है पढ़ रहे , हाथों पर उभरी इबारतो को । 

वो जिन्हे शायद पता हो , कैसी होगी आज की रात।  
वो हमें बतला रहे है , जन्म जन्मान्तरो की बात । 
ना मै नहीं कहता कभी , विद्या ये पूरी पाखण्ड है। 
पर मै ये कहता मित्र , अब शेष इसके कुछ खंड है। 
अब ये है प्यारी धरोहर , अभिलेखो और स्मारको में।  
मत सजाओ तुम इसे  , निज पुरषार्थ की दीवार में । 

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रविवार, 12 जनवरी 2014

बकवास...

ओ मुसाफिर इस तरह तू , है यहाँ हैरान क्यों। 
लगता है पहली दफा , इस देश में आया है तू। 
दूध की ये नालियां जो , दिख रही बहती तुझे। 
ये हकीकत में लहू है , जो लाल रह पाया नहीं। 
दिख रही तुझको यहाँ जो , हर तरफ ही होलिका।
वो हकीकत में है जलती , नव बधुओं की डोलियां।  

दिख रही तुमको यहाँ जो, होलिहारियो की टोलियां। 
वो हकीकत में खेलकर , आ रहीं खून की होलियां।
और ये जो भद्र पुरुष , तेरी बाँह में बाँह डाल रहे।
वो हकीकत में तुम्हारी , गर्दन को नापने जा रहे। 
ओ मुसाफिर दिख रहा , क्यों हैरान है इस तरह। 
लिख रहा क्यों व्यर्थ में , बकवास मै  इस तरह। 

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

सोमवार, 6 जनवरी 2014

एहसान फरामोश कठपुतलिया...

ये दौर है एहसान फरामोश कठपुतलियों का ?
या बागी होने को बेताब कठपुतलियों का ?

कल तक जिनके दामन में , मैंने फूल बरसाए थे। 
वो देखो आज बिछाते है , मेरी राहो में अब अंगारे। 
कल तक मेरी नूर से जो , रोशन हो बने सितारे थे।
वो देखो आज बुझाते है , मेरी राहों के ही उँजियारे।
कल तक जिनकी राहें मै , समतल करता चलता था। 
वो देखो आज बनाते है , अब मेरी राहों को ही पथरीले। 

कल तक मेरी साँसों से , जो राहत की साँसे पाते थे। 
वो देखो बोझिल करने को , तत्पर है मेरी साँसों को। 


कल तक मेरी नीयति से जो , अपनी शाख चलाते थे। 
वो देखो आज उठाने लगे , अब उंगली मेरे दामन पर। 

कल तक पाला था जिनको , अपनी ही अस्तीनो में।
वो देखो आज चुभोने को , हैं करते जहरीले दांतो को। 


क्या भूल गए वो मेरी क्षमता , या मद में आकर बौराये है ?
अपनी कठपुतली की डोरो को , शायद वो भाँफ ना पाये है ? 

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG


आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

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