पर इस कविता को पढ़कर लगता है जैसे यह कविता मनमोहन सरकार के लिए लिखी गयी हो....
कितनी सटीक पंक्तियाँ आज भी कितनी प्रासंगिक....................
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
चरखा चलता है हाथों से, शासन चलता तरवार से ।
यह राम-कृष्ण की जन्मभूमि, पावन धरती सीताओं की ।
फिर कमी रही कब भारत में सभ्यता, शांति, सदभावों की ।
पर नए पड़ोसी कुछ ऐसे, गोली चलती उस पार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
तुम उड़ा कबूतर अंबर में संदेश शांति का देते हो ।
चिट्ठी लिखकर रह जाते हो, जब कुछ गड़बड़ सुन लेते हो ।
वक्तव्य लिखो कि विरोध करो, यह भी काग़ज़ वह भी काग़ज़ ।
कब नाव राष्ट्र की पार लगी यों काग़ज़ की पतवार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
तुम चावल भिजवा देते हो, जब प्यार पुराना दर्शाकर ।
वह प्राप्ति सूचना देते हैं, सीमा पर गोली-वर्षा कर ।
चुप रहने को तो हम इतना चुप रहें कि मरघट शर्माए ।
बंदूकों से छूटी गोली कैसे चूमोगे प्यार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
नहरें फिर भी खुद सकती हैं, बन सकती है योजना नई ।
जीवित है तो फिर कर लेंगे कल्पना नई, कामना नई ।
घर की है बात, यहाँ 'बोतल' पीछे भी पकड़ी जाएगी ।
पहले चलकर के सीमा पर सर झुकवा लो संसार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
हम लड़ें नहीं प्रण तो ठानें, रण-रास रचाना तो सीखें ।
होना स्वतंत्र हम जान गए, स्वातंत्र्य बचाना तो सीखें ।
वह माने सिर्फ़ नमस्ते से, जो हँसे, मिले, मृदु बात करे ।
बंदूक चलाने वाला माने बमबारी की मार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
सिद्धांत, धर्म कुछ और चीज़, आज़ादी है कुछ और चीज़ ।
सब कुछ है तरु-डाली-पत्ते, आज़ादी है बुनियाद चीज़ ।
इसलिए वेद, गीता, कुरआन, दुनिया ने लिखे स्याही से ।
लेकिन लिक्खा आज़ादी का इतिहास रुधिर की धार से ।
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से ।
चर्खा चलता है हाथों से, शासन चलता तलवार से ।।