प्यास लगी है मन में मेरे , ज्वाला जलती तन में मेरे ।
विकल हो रहे नेत्र हमारे , डग-मग होते कदम हमारे ।
जन्म जन्म की प्यास लगी है , व्याकुल मन को करने लगी है ।
देख पास शीतल जल धारा , तन को हर्षित करने लगी है ।
पल भर का अवरोध नहीं , अब मन को जरा सुहाता है ।
जी भर कर जल का पान करूँ , यह भाव ही मन में आता है ।
क्या कहा निषिद्ध है जल धारा , उस पर नहीं अधिकार हमारा ।
पर भुला सभी प्रतिबंधो को , मन व्याकुल होता सम्बन्धो को ।
क्या होगा जो अनाधिकार , एक अंजलि भर जल पी लूँगा ।
क्या इससे पूरी जलधारा को , अपवित्र अछूत मै कर दूँगा ।
तुम चाहो तो जाकर पूंछो , उस अमृतमय जलधारा से ।
क्या ओंठो को मेरे छूने की , कोई चाह नहीं जलधारा को ।
प्यास बुझाए बिना पथिक की , क्या धर्म निभा वो पाएगी ।
मुझको प्यासा छोड़ अकेला , क्या सुख से वो सो पायेगी ।
तो मिलन हमारा होने दो , अवरोध व्यर्थ ना खड़े करो ।
सूख रहे ओंठो को मेरे , थोड़ा सा जल बस पीने दो ।
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें