अब व्यर्थ है करना अफ़सोस , संधान हो चुके शब्द-बाणों का ।
लक्ष्य पर वो निकल पड़े , नहीं उन पर अधिकार कमानों का ।
शब्द भेदी बाणों से , होता है घायल केवल तन ।
जब शब्द ही बाण बन जाये , कैसे बच पाये मन ।
तन के घायल होने पर , रक्त की धारा बहती है ।
मन घायल होता है जब , अश्रु की नदियाँ बहतीं हैं ।
तन के घाव तो भर जाते , औषधि का लेप लगाने से ।
पर मन के घाव भरें कैसे , तन पर औषधि लगाने से ।
जुड़ जाते हैं टूटे रिश्ते , गाँठ मगर रह जाती है ।
भर जाते हों घाव भले , टीस मगर रह जाती है ।
तो सोंच समझ कर बोलो तुम , कुछ भी कहने के पहले ।
पछताना पड़े जिस बात को कहकर , रुक जाओ उसके पहले ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
8 टिप्पणियां:
बिलकुल सही बात कही है ...अच्छी रचना
शब्दों को बोलने से पहले सोचना बहुत आवश्यक है, वर्ना बाद में अफ़सोस करने से भी कुछ नहीं होता...सुन्दर प्रस्तुति..
संगीता जी एवं आदरणीय कैलाश जी आपको पोस्ट अच्छी लगी , आभार
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 12 -10 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
बहुत अच्छी लगी आपकी रचना.
आभार..
संगीता स्वरुप जी
http://charchamanch.blogspot.com/2010/10/20-304.html
...शुक्रिया
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य – मंच 20(चर्चा-मंच-304)
एक बार यहाँ भी देखें ...
http://charchamanch.blogspot.com/2010/10/20-304.html
अपनी प्रतिक्रिया मंच पर दें तो बेहतर होगा ..आभार
सुंदर और सटीक अभिव्यक्ति. आभार.
सादर
डोरोथी.
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