हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://www.vmanant.com/?m=1

रविवार, 24 अक्टूबर 2010

जो गिद्ध हैं प्रसिद्ध हैं, हम इन्सान हैं इसलिये परेशान हैं।

दोस्तों,
कुछ साल पहले की बात है, मै कुछ परेशान था, कुछ हैरान था, काम मै करता हूँ प्रसिद्ध कोई और पा जाता है। और फिर एक दिन मुझे मेरे गुरु ने बताया :-

जो गिद्ध हैं प्रसिद्ध हैं, हम इन्सान हैं इसलिये परेशान हैं"

उक्त गिद्ध ज्ञान को जान कर वास्तव में मेरी सभी चिंता परेशानी तिरोहित हो गयी और फिर मैंने तत्काल जगत कल्याण हेतु, गिद्ध ज्ञान साहित्य में इजाफा करने एवं माननीय गिद्धजनो से अपने राजनय सम्बन्ध मधुर करने हेतु कुछ लिखने का प्रयास किया था उसे पुन: आप लोगों के सामने इस आशय से प्रस्तुत कर रहा हूँ-

"भले ही एस.एम.कृष्णा एवं शाह महमूद कुरैशी आज तक 'भारत' और 'ना-पाक'के मध्य बेहतर राजनय सम्बन्ध बना पाने में अ-सफल रहे हो" पर शायद इससे हमारे और आपके राजनय सम्बन्ध बेहतर हो सकें -

जब जान रहे हो तुम जग में , गिद्ध ही होता सदा प्रसिद्ध ।
पूंछ रहे हो फिर क्यों मुझसे, क्यों सबसे ज्यादा गिद्ध प्रसिद्ध ?

लो सुनो आज बतलाता हूँ , मै तुमको राज सुनाता हूँ।
है गिद्ध की दृष्टि बहुत प्रबल , वह मौका सदा ताकता है।

मौका मिलते ही सबको , निश्चल मन से खा जाता है ।
बैर भाव या मैत्री जैसे , मन में भाव नहीं वो लाता है ।

उसके लिए जगत के सारे, प्राणी सब एक समान हैं ।
उसके लिए दुखों के क्षण भी, सुख के ठीक समान हैं।

लाभ अगर दिख जाय उसे, वह आगे सबसे आ जाता है ।
मौका मिलते ही वह पूरा, कूरा(हिस्सा) चट कर जाता है ।

बाट जोहने वालो को वह , खाली ठेंगा दिखलाता है ।
पता निशां भी पीछे अपने , नहीं छोड़ कर जाता है ।

अंतर्यामी होता हैं वह , और तीनो कालों का वो स्वामी ।
भूत भविष्य और वर्तमान का , मानव केवल अनुगामी ।

पहले भी बतलाया था , फिर से गिद्ध राग सुनाता हूँ ।
देकर ज्ञान सभी को यूँ ही , जग में प्रसिद्ध करवाता हूँ ।

सुनकर गिद्ध ज्ञान मानव , मुक्त दुखों से हो जायेगा ।
पुनर्जन्म लिए बिना जब , मानव-तन में गिद्ध समाएगा ।
जय हो बाबा गिद्धनाथ की............

गिद्ध साहित्य का प्रचार प्रसार पुन: आगे फिर होगा..
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

धुआं उठना चाहिए ।

छोड़ने को जगत क्यों , हो रहे अधीर हो ।
हाथ खाली है अभी , बनने जा रहे दानबीर हो ।
जो है नही तेरा अभी , कैसे बाँट दोगे और को ।
हाथ में आये बिना , कैसे छोड़ दोगे सार को ।
पहले जानो अर्थ स्वयं , फिर कहो किसी और से ।
छोड़ कर भागो नही , यूँ डर कर किसी और से ।

माना तमस में जी रहे , यह ज्ञात होना चाहिए ।
व्यर्थ में अर्थ का , नही अनर्थ होना चाहिए ।
है उठाना यदि धुआं , तो अंगार होना चाहिए ।
या राख के नीचे दबी , कुछ आग होनी चाहिए ।
और कुछ गीली लकड़ियाँ , जो सुलगती रह सके ।
ना बुझ सके पूरी तरह , ना धधकती रह सके ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

सामंजस

तारो को ढीला रखने से ,
स्वर वीणा के नहीं निकलते हैं ।
ज्यादा कस दो तारो को ,
तो कर्कश स्वर ही निकलते हैं ।

तारो को खींचो उतना ही ,
जिस पर हो स्वर का सामंजस ।
ना बंहके कोई स्वर लहरी ,
ना साज लगे कानो को कर्कश ।
.....to be finished
हैं भांति भांति के लोग यहाँ ,
और जगत भरा विबिधता से ।
ना भूल कर पशु सा समझ उन्हें ,
तुम सबको हांको लाठी से ।

मानव भेद पर आधारित ,
हैं साम-दाम-दण्ड-भेद बने ।
फिर ब्रह्मण-क्षत्रिये वैश्य-शुद्र ,
जैसे जटिल जाति विभेद बने ।

हर मानव की अपनी क्षमतायें ,
हर एक की अलग मनोस्थिति है ।
हर एक की गति और दिशा अलग ,
हर एक का अपना सामंजस है । 
 शायद पूरा हुआ २१/१०/२०१०
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

शब्दों का संसार

प्रिय स्नेही जन
पूर्व में भी एक शब्द बाण व्योम में छोड़ा था,
उसी कमान से ये दूसरा बाण भी निकल रहा है ,
भाव वही पुराना है बस शब्द शक्ति का अंतर है.....
शायद तब जो कहने से छूट गया हो , उसको ये साध सके.........

ध्यान रखो शब्दों का , और उनसे निकलते भावों का ।
जाने कब किस मोड़ पे , वो अर्थ बदल दे बातों का ।
है शब्दों का संसार अनोखा , देते हैं अक्सर ये धोखा ।
ये कभी गिराते दीवारे , तो कभी खीचते लक्ष्मण रेखा ।
हैं कभी महकते फूलों सा , चुभ जाते कभी ये शूलो सा ।
कभी पल में बनते सेतुबंध , कभी हो जाते हैं  खाई सा ।

हर एक शब्द के अर्थ कई , उनसे ज्यादा अनर्थ कई ।
तुम जपो राम का नाम भले , वो समझेंगे है मरे कई ।
सन्दर्भ अगर दे साथ छोड़  ,  तो समझो हुयी प्रलय कहीं ।
कब बात बतंगण  बन जाये , कहो लगता उसमे समय कहीं ।
हाँ मीठे वचन भी औरों के , हैं चुभे तीर के भांति कभी ।
तो मन को दिलासा दे जाये , व्यंग में बोली बात कभी ।

तो सोच समझ कर शब्दों का , जिह्वा से करो प्रयोग सदा ।
यहाँ जहर घुला हवाओं में , कर देती विषाक्त वो बात सदा ।
उस पर यदि शब्द भी तीखे हों , हो ना सकेगी काट कभी ।
बिन छेदे छाती औरों की , वो होगी व्यर्थ ना बात कभी ।
अस्त्र-शस्त्र से लगे घाव , भर जाते हैं उपचारों से ।
शब्द भेद से बने घाव , नहीं मिटते मन के द्वारो से । 
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

सोमवार, 18 अक्टूबर 2010

अपने वश की बात नहीं...

कहो सोचकर अंजाम को , मैं कैसे पीछे हट जाऊँ ।
भूलकर वादों को अपने , कैसे नजर से गिर जाऊँ ।

नजर झुका कर चलते रहना , अपने वश की बात नहीं ।
कहे गए शब्दों से डिगना , अपने वश की  बात नहीं ।
जीवित रहना इमान बेचकर , अपने वश की बात नहीं ।
यूँ गैरों के तानो को सुनना , अपने वश की बात नहीं ।

ये बात अलग है पत्थर से , पत्थर बन कर मिलता हूँ ।
रिश्तों के व्यापारी से , मोल मै अपना करता हूँ ।
पर
लेकर मोल बदल जाना , ये अपने वश की बात नहीं ।
सौदों से रिश्तों को भुलाना , अपने वश की बात नहीं ।
जबरन ताकत से झुक जाना , अपने वश की बात नहीं ।
अपने मन की ना कर पाना , अपने वश की बात नहीं ।
modified again..19/10/10
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

कार्य और कारण

कार्य और कारण में ,
सदा सामंजस होता है ।
बिना कारण कोई कार्य ,
कहाँ धरा पर होता है ।
हम कहें भले है कार्य अकारण ,
सोंचो क्या यह सच होता है ?
क्या अंतर-मन का भाव हमारा ,
कार्य का कारण नहीं होता है  ?
ये सच है पूर्व नियोजित कारण ,
हर कार्य का कारण नहीं होता है ।
लेकिन जग में कोई कार्य ,
नहीं बिना अकारण होता है । 
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

सब कुछ है, कुछ भी नहीं...

सब कुछ है, कुछ भी नहीं , मूरत है प्राण नहीं ।
मानव है इन्सान नहीं , मंदिर है भगवान नहीं ।
चार दीवारे ऊपर छत , लेकिन घर का आभास नहीं ।
मोटे मोटे धर्म ग्रन्थ हैं , जिनमे धर्म का सार नहीं ।
गली गली विद्द्यालय हैं , जहाँ शिक्षा का मान नहीं ।
गुरुजन हैं बहुतेरे मगर , विद्दया का देते दान नहीं ।

अगणित पण्डे और पुरोहित, सही कर्म कांड का ज्ञान नहीं ।
शासन सत्ता सभी यहाँ , पर नीति नियम का ध्यान नहीं ।
अधिकारों के पालन कर्ता, हैं अधिकारी अधिकार नहीं ।
लोकतंत्र का राज यहाँ , पर जनता का सम्मान नहीं ।
न्याय पालिका स्वतंत्र यहाँ , जो करती पूरा न्याय नहीं ।
कलयुग की ये है माया , सब कुछ है पर कुछ भी नहीं ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

सोमवार, 11 अक्टूबर 2010

लक्ष्मण रेखा

युगों - युगों पहले जब , जब राम थे वनवास में ।
मृग रूप धर मारीच ने , करना चाहा था धोखा ।
कहते है तभी द्वार पर , लक्ष्मण ने खींची थी रेखा ।
उसे रावण भी लाँघ न पाया, ना भंग उसे कर पाया ।
फिर जाल बिछाकर शब्दों का , सीता को उसने उलझाया ।
आ जाओ बाहर रेखा के , यही सीता को उसने समझाया ।
तब से लक्ष्मन रेखा को , फिर जिस नारी ने पार किया ।
ना लौट सकी वो घर वापस , घर को अपने बर्बाद किया ।
दीवार नहीं है लक्ष्मण रेखा , जो खींची जाती हर युग में ।
मर्यादाओं  की परिधि है ये , जिसमे सुरक्षित है नारी सदा ।
ये बंधक नहीं बनाती है , बस बुरी नीयति से ये बचाती है ।
त्रेता युग से कलयुग तक , सदा अपना कर्त्तव्य निभाती है । 

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

रविवार, 10 अक्टूबर 2010

पुराने यार


कल शाम एक महफ़िल में , मिल गए पुराने यार मेरे ।
कुछ मझे हुए व्यापारी थे , कुछ थे नेता अब यार मेरे ।
कुछ बने धर्म के वाहक थे , कुछ सत्ता के अधिकारी थे ।
कुछ चौखम्भे के रक्षक थे , कुछ उनमे बहुत जुगाड़ी थे  ।
जब छिड़ी बात मर्यादा की , वे सब मिलकर कहने लगे........
जीने की कला हम भूल गए , मरने की कला क्या याद करें ।
स्वयं भिखारी हैं जग में , फिर त्याग की क्या हम बात करें ।
जब बेंच रहे सब अपने को , फिर धर्म का क्यों ना मोल धरें ।
जब हाट लगा हर ओर यहाँ , फिर क्यों कर हाथ पे हाथ धरें ।

जब बात चुभी मेरे सीने में , तब ओंठ मेरे स्वयं बोल उठे......

हाँ ठीक कहा ये तुमने भी , तुम स्वयं क्यों सबसे अलग रहो ?
जब बेंच रहे ईमान सभी ,  फिर क्यों तुम पीछे जग में रहो ?
ये देश धर्म और मानवता , यूँ ही सदियों से बिकते आये हैं ।
तुम जैसे ही जाने कितने , घुन लोग यहाँ भर पाये हैं ।
तुम भी आत्मा बेंच कर देखो , क्या क्या वो सुख पाये हैं......
ये बात अलग है इस जग में , अब भी कुछ पागल रहते हैं ।
जो राष्ट्र धर्म और मानवता हित , सर्वस निछावर करते हैं ।
देकर प्राणों का उत्सर्ग सदा , वो मृत्यु का मान बढ़ाते  हैं ।
पल दो पल की खातिर तो , वो जीने की कला बताते है ।।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

परिणिति

परिणिति क्या होगी इसका, इतना ज्यादा मंथन क्यों ?
लक्ष्य अगर सुनियोजित है , परिणाम इतर कैसे होगा ।
अहम् बिंदु निर्धारित करना , अपने लक्ष्यों को पहले ।
चुनकर सही मार्गों को , पथ की दूरी को कम करना ।
परिणाम हाथ में ईश्वर के , उस पर करना मंथन क्यों ।
कर्म ही केवल वश में अपने, फिर उससे पीछे हटना क्यों । 

सोंच रहे क्या जग वाले , इससे तुमको लेना क्या ?
क्या सोंचेगे कुछ अपने , इसकी इतनी फिक्र है क्या ?
खाली हाथ ही आये हो , खाली हाथ ही जाओगे ।
अपने पीछे जग वालों को , सोंचो क्या दे जाओगे ।
करो मार्ग पर दृष्टि केन्द्रित , अवरोधों पर करो विचार ।
पार करें हम उनको कैसे , यही बारम्बार करो विचार ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

शब्द-बाण


अब व्यर्थ है करना अफ़सोस , संधान हो चुके शब्द-बाणों का ।
लक्ष्य पर वो निकल पड़े , नहीं उन पर अधिकार कमानों का ।
शब्द भेदी बाणों से , होता है घायल केवल तन ।
जब शब्द ही बाण बन जाये , कैसे बच पाये मन ।

तन के घायल होने पर , रक्त की धारा बहती है ।
मन घायल होता है जब , अश्रु की नदियाँ बहतीं हैं ।
तन के घाव तो भर जाते , औषधि का लेप लगाने से ।
पर मन के घाव भरें कैसे , तन पर औषधि लगाने से ।

जुड़ जाते हैं टूटे रिश्ते , गाँठ मगर रह जाती है ।
भर जाते हों घाव भले , टीस मगर रह जाती है ।
तो सोंच समझ कर बोलो तुम , कुछ भी कहने के पहले ।
पछताना पड़े जिस बात को कहकर , रुक जाओ उसके पहले ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010

प्रिय राहुल और माननीय गृह मंत्री जी, मैंने भगवा ओढ़ लिया है...

जहाँ माननीय गृह मंत्री भगवा आतंकवाद का सिद्धांत प्रतिपादित कर रहे है, वहीँ कांग्रेस के युवराज संघ और सिमी को एक ही तराजू में तौल रहें है, मुझे दोनों की क्षमता और नीयति पर कोई शक नहीं है मगर ऐसा भी नहीं है कि वो अनजाने में नादानी नहीं कर सकते है ! 
आखिर भारत वर्ष की शान और रणचंडी सी महान नेता श्रीमती इंदिरा गाँधी ने भी कई नादानियाँ की और पूर्वोत्तर और पंजाब में मात्र राजनैतिक बढ़त हासिल करने के चक्कर में अनजाने में आतंकवाद को एक नया चेहरा प्रदान कर दिया था । और कुछ इसी तरह आज कश्मीर के हुक्मरान भी वहां कर रहें है ........
इसी तरह अगर राहुल गाँधी और चिदम्बरम साहेब के बोलने और सोंचने का अंदाज ना बदला तो कहीं ऐसा ना हो जाय कि सामान्य जनमानस भी वही कहने लगे जो.... डॉ. जय प्रकाश गुप्त ने  http://bhadas.blogspot.com/2010/09/blog-post_1394.com पर कहा है , और वो मेरे जेहन और जबान पर ना चाहते हुए भी चढ़ा रह रहा है
जरा देखें....

शीश शिखा होने से पक्का हिन्दु था ही,
मैंने भगवा ओढ़ लिया, मैं आतंकी हूँ।
आतंकी है भोर, है गोधूलि आतंकी ,
वह्नि की ज्वाला है दीपशिखा आतंकी ।
आतंकी है यज्ञ वेदमन्त्र आतंकी,
आतंकी यजमान पुरोहित भी आतंकी।
मैं इन सब का आदर करता पूज्य मानता इन्हें,
अत: मैं मान रहा मैं आतंकी हूँ।
मैंने भगवा ओढ़ लिया, मैं आतंकी हूँ।
आतंकी है राम और कृष्ण आतंकी ,
विश्वामित्र वसिष्ठ द्रोण कृप हैं ।
आतंकी बृहस्पति भृगु देवर्षि नारद आतंकी,
व्यास पराशर कुशिक भरद्वाज आतंकी ।
मेरे ये इतिहास पुरुष पितृ ये मेरे ,
वंशज इनका होने से मैं आतंकी हूँ।
मैंने भगवा ओढ़ लिया, मैं आतंकी हूँ।
नामदेव नानक और दयानन्द आतंकी ,
रामदास (समर्थ) विवेकानन्द आतंकी ।
आदिशंकराचार्य रामकृष्ण आतंकी ,
गौतम कपिल कणाद याज्ञवल्क्य आतंकी ।
ये मेरे आदर्श सदा सर्वदा रहे हैं,
इसीलिए मैं कहता हूँ मैं आतंकी हूँ।
मैंने भगवा ओढ़ लिया, मैं आतंकी हूँ।
भगवा तो भारत की है पहचान कहाता ,
प्रिय तिरंगा भी भगवा से शोभा पाता ।
भारतमाता के कर में भगवा फहराता ,
भारत की अस्मिता से है भगवा का नाता ।
बोध यदि भगवा का उग्रवाद से हो तो,
 अच्छा यही कि सब बोलें मैं आतंकी हूँ।
मैंने भगवा ओढ़ लिया, मैं आतंकी हूँ।
मैंने भगवा ओढ़ लिया, मैं आतंकी हूँ। 

तो
हे माननीय शासक गण
आपसे अनुरोध है की कृपया ये स्थिति ना आने दे ,
शब्दों का सूक्षमता और संजीदगी से चयन और प्रयोग करें  
और कुछ गिने चुने मूर्खों के कारण समस्त हिन्दू जनमानस की भावनावों को
नाहक विभन्न तरीकों से आहत कर किसी नये आतंकवाद को जबरदस्ती ना खड़ा करें ।
हिन्दुवों के लिए यह धरती उनकी माँ के समान है, भले वो हत्या , लूटपाट , चोरी जैसे अन्य जघन्य अपराध में शामिल हो सकते हो मगर वो कभी राष्ट्र द्रोही नहीं हो सकते है और वो राष्ट्र के लिए अपना धर्म भी छोड़ सकते है।
आपकी जनता और भारत मां की एक संतान , विवेक मिश्र .. अनंत  

शक्ति संतुलन

गुरुदेव ने कहा था 
" आग को पानी का भय , सदा रहना चाहिए ।
यूँ धरा पर शक्ति संतुलन , सदा रहना चाहिए ।"
तो
बने ना कोई एकक्षत्र  , शासक कभी इस भूमि का ।
शक्तियां करती निरंकुश , ध्वंस होता राज्य का ।
आज है जो नम्र दिखता , कल निरंकुश हो सकता है ।
इस धरा पर जल बिना , जग आग में जल सकता है ।
तो अगर सुख चाहिए , शक्ति सदा बिखराइये ।
यूँ जगत में सभी को , संतुष्ट करते जाइये ।
आग को पानी का भय , बना रहना चाहिए ।
शांति का ये मूलमंत्र , सदा याद रहना चाहिए ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 6 अक्टूबर 2010

एक पत्र.. प्यारे भाई के नाम

प्यारे भाई सिद्धार्थ
२००७ में टाटा क्रुसिबल में शुरुवात करते हुए प्रथम बार में ही इंदौर के रीजनल विजेता बनने परन्तु उचित टीम सहयोग की अनुपलब्धता के कारण नेशनल राउंड में चूक जाने, पुन: अकेले अपने दम पर २००८ एवं २००९ में संघर्ष करते हुए लखनऊ रीजनल राउंड के उपविजेता का स्थान पाकर भारी मन से घर लौटने और दो बार से प्रथम स्थान से महरूम कर रही जन्मभूमि लखनऊ में अंतत: २०१० के रीजनल विजेता बनाने का गौरव पाकर आगामी नेशनल राउंड हेतु स्थान सुनिश्चित करने के बाद अब बस मुझे इंतिजार है आपके नेशनल विजेता के गौरव को प्राप्त करने का... और भाई आप में उक्त गौरव हेतु योग्यता, क्षमता प्रारंभ से ही है मगर आप पूर्व में उसे स्वयं ही बाधित करते रहे है....
तो इस बार बस ध्यान रखना कि बिना किसी दबाव एवं ढेर सारी अपेक्षाओ के बिना नेशनल राउंड का आनंद लेने हेतु जाना और अपनी श्रेष्टतम क्षमता को नैसर्गिक रूप से उभरने देना क्योंकि तुम्हारे पास अभी खोने के लिए कुछ नहीं है बस सिर्फ पाने के लिए ही सब कुछ है....... इन दो लाइनों को याद रखना जो मुझे सर्वाधिक प्रिय हैं..
"मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे,
बाकी ना मै रहूँ ना मेरी जुस्तजू रहे . "
हाँ इस बार तुम्हारे साथ पूर्व की तुलना में बेहतर साथी के रूप में अंकित जोशी का साथ है इसलिये उसे भी उसकी अपनी श्रेष्टतम क्षमता को साबित करने और अपने दबाव को कम करने में मदत करने का पूरा अवसर देना......
समय को तुम्हारा इंतिजार है और मुझे उस समय का
शुभकामनाओ के साथ
विवेक मिश्र .. अनंत

 
४. सिद्धार्थ मिश्र एवं श्री अंकित जोशी (बाये से ३,४ स्थान पर) :- टाटा क्रुसिबल 2010 लखनऊ रीजनल राउण्ड विजेता
  
३. सिद्धार्थ मिश्र (सबसे बाये) एवं सहयोगी श्री लोकेश कुमार टाटा क्रुसिबल  २००९ लखनऊ रीजनल राउण्ड उपविजेता

२. सिद्धार्थ मिश्र एवं सहयोगी श्री नीरज :- टाटा क्रुसिबल २००८ लखनऊ रीजनल राउण्ड उप-विजेता  
१. सिद्धार्थ मिश्र (बाये से दुसरे )  एवं सहयोगी श्री अजीत शाही :- टाटा क्रूसिबल २००७ इंदौर रीजनल राउण्ड विजेता

मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010

किसके लिए ? मेरी 100वी कविता.......

ऐ पथिक तू राह में , है खड़ा किसके लिए ?

कौन है जो आ रहा , तू खड़ा जिसके लिए ?

क्या नहीं तू जानता , हैं मतलबी सब यहाँ ।
अपना काम बनते ही , भूल जाते सब यहाँ ।

साथ है बस उन क्षणो तक , हों पुष्प राहों में जहाँ तक ।

कंटकों को बीन पायें , नहीं साथी यहाँ कोई अभी तक ।।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

अयोध्या का सर्व-सम्मत हल न्याय-तन्त्र ने ही दिया है और आगे भी देगा...

मित्रों इलाहाबाद उच्च न्यायलय से अयोध्या समस्या का बहु प्रतिक्षित फैसला आ चुका है....जिसके लिए उच्च न्यायलय ने विभिन्न साक्ष्य,पुरातात्विक प्रमाण  और गवाहियां देखा है
मगर अब इसकी अलग अलग व्यक्तियों, समुदायों, धार्मिक और राजनैतिक नेतावों और उनके दलों के द्वारा व्याख्या, समालोचना, प्रतिक्रियावों का दौर भी चालू हो गया है.... जो विभिन्न प्रिंट और लाइव मीडिया चैनलों के माध्यम से जनमानस के सामने आ रहा है ।
कोई कह रहा है कि यह बहुत ही बेहतर फैसला है, कोई कह रहा है कि यह फैसला कम एक समझौता ज्यादा है, कोई कह रहा है कि इसमे तर्क और साक्ष्य के मुकाबले आस्था को ज्यादा महत्व दिया गया, किसी को यह पूर्णतया मान्य है तो कोई उच्चतम न्यायलय जाने की बात कह रहा है।

चलिए उच्चतम न्यायलय भी देख लेते है वहां से भी देर सबेर आवश्यकतानुसार इसी से मिलता जुलता फैसला आने की ९९.९९ प्रतिशत उम्मीद है , कारण आगे समझ में आ जायेगा ।

वैसे यह आज के भारत के परिपक्व सोंच का ही नतीजा है कि ९९ प्रतिशत लोगों की प्रतिक्रिया सीधी साधी, एकदम संयत, सधी हुयी और भारत की राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने वाली ही है सिवाय वर्षों से पेट्रो डालर के बल पर फलने - फूलने वाले और अपनी राजनैतिक जमीन खो चुके कुछ तथाकथित ढोंगी राजनैतिक नेतावों  के जो महज अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने के चक्कर में ना केवल न्यायिक अवमानना करने की मूर्खता कर रहें है वरन अपने आप को एक समुदाय विशेष का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने की लालच में देश को साम्प्रदायिक आग में झोंक देने का प्रयास कर रहे है।
इनसे सावधान रहने की जरुरत है......क्योंकि पुरखों ने कहा है कि जो अपनो का नहीं होता है वो कभी गैरों का नहीं हो सकता है

इसके अलावां कुछ लोगों ने फैसले का स्वागत तो किया है मगर उनके द्वारा कहा जा रहा है कि "अयोध्या समस्या का सर्व-सम्मत हल न्यायिक-तन्त्र नहीं दे सकता और इसके लिए दोनों समुदायों को आपस में वार्ता करके कोई सर्व-सम्मत हल निकलना होगा" यह भी निहायत ही मूर्खता पूर्ण तर्क है क्योंकि यदि ऐसा होना होता तो पिछले २००-२५० सालों में हो गया होता

अब कुछ अन्य बातें
१. सारे पौराणिक ग्रन्थ और समस्त जनमानस  मानता हैं कि भारत वर्ष में अयोध्या ही भगवान् श्री रामचंद्र जी की जन्म-भूमि है और इस देश में कोई दूसरी अयोध्या भी नहीं है तो भगवान राम ने त्रेता युग में अयोध्या नगरी में जन्म लिया था इसमे कोई शंका ना है ना ही किया जा सकता है।  हाँ काल की गणना पर अलग अलग धर्मो के लोग हिन्दू गणना पद्धति पर प्रश्न लगा सकतें है मगर मूल विषय निर्विवाद ही है , और आप विवाद तब ही खड़ा कर सकते है जब आप की उपस्थिति विवादित विषय के प्रारम्भ समय से ही हो । और हिन्दू धर्म ने जब अपना दो तिहाई से अधिक समय पूर्ण कर लिया तब वर्तमान के धर्म प्रतिपादित हुए है तो यदि वो ये कहें की आप भगवान राम का जन्म प्रमाणित करें तो यह वैसा ही है जैसे कोई बच्चा कहे मै परदादा को नहीं जानता आप प्रमाणित करें ।

२. मगर भगवान राम ने त्रेता युग में अयोध्या नगरी में किस स्थान पर जन्म लिया था इसका साक्ष्य वास्तव में नहीं है  अर्थात भगवान राम की जन्म स्थान/भूमि तो प्रमाणित है मगर जन्म स्थान आज हिन्दू धर्म या कोई भी इतिहास प्रमाणिक तौर पर नहीं बता सकता है और बताये भी कैसे......आज उस समय का कोई  भी नक्शा किसी के पास नहीं है तब से ना जाने कितनी बार अयोध्या बसी है, उजड़ी है, जाने कितने बार सरयू नदी ने अपना प्रवाह मार्ग परिवर्तित किया है तो यह असंभव है, और ये बात ना केवल भगवान राम हेतु लागू है वरन भगवान कृष्ण, देव-दूत ईशा मसीह, और पैगम्बर साहेब हेतु भी लागू है ।

३. उक्त विवादित परिसर पर मस्जिद बाबर के सेनापति मीर बांकी खां ने बनाया था इस पर दोनों पक्ष सहमत हैं । इस तथ्य पर विवाद हो सकता है कि मस्जिद मंदिर को गिरा कर बनाया गया या मंदिर के भग्नावशेष पर ? मस्जिद बनाये जाने हेतु भूमि स्वामी से अनुमति ली गयी या नहीं ?
४. हुमायु, शाहजहाँ,अकबर, और औरंगजेब जैसे शाशक भले ही विसुद्ध रूप से भारत वासी हों मगर बाबर निश्चित रूप से बाहरी और आक्रमणकारी ही था इसमे कोई शंका नहीं है

5. अगर सामान्य आक्रमणकारी मनोविज्ञान से सोंचे तो आज भी हमला करने वाला ना केवल अपने पराजित शत्रु के जन-धन की हानि करता है वरन उसके मनोबल को भी हर तरह से तोड़ने का प्रयास करता है क्योंकि तभी उसकी विजय ज्यादा स्थाई रह सकती है । तो परिस्थिति जन्य साक्ष्य यही है कि बाबर ने मंदिर ( अयोध्या में था तो राम मंदिर ही होगा, अब यह कैसा मंदिर था ? जन्म भूमि थी या कोई सामान्य विशेष पूज्य मंदिर था यह तो उस ज़माने के लोग ही जाने या भगवान राम जाने ) को ध्वस्त कराकर ही वहां मस्जिद बनवाई और वहां के हिन्दू निवासियों का मान मर्दन किया ( अगर खंडहर पर बनाना होता तो उस ज़माने में भूमि की कोई कमी नहीं थी वह उसे किसी खाली जगह पर भी बनवा सकता था। और उसने जो किया कहीं से गलत नहीं किया।

6. मै सपथ पूर्वक कहता हूँ कि अगर मै आक्रान्ता बाबर होता तो  निश्चित तौर पर अपने विजित स्थानों पर अपनी जीत को चिर स्थायी बनाने और अपने दुश्मनों के मनोबल का दमन करने हेतु उनके महत्वपूर्ण स्थलों सहित उनके पूजा स्थल को भी खंडित कराता और वहां अपना कुछ बनाता और सारे विश्व में विजेता सम्राट यही करते है , यह ना पाप है ना अधर्म है यही विजेता की मानसिकता है  । और अगर कोई तथाकथित महान सज्जन पुरुष,महिला अथवा दोनों के बीच वाला प्राणी यह कहें कि वो अगर बाबर होते तो एसा नहीं करते तो या तो वो झूंठ बोलेंगे या वास्तव में यह बात कहते समय अपने अन्दर एक आक्रामक सेनापति के भाव नहीं ला पा रहे होंगे।

५. और जब मस्जिद बनी होगी तो निश्चित तौर पर वहां नमाज भी पढ़ी जाती रही होगी हाँ समय के साथ जैसे-जैसे स्थानीय हिन्दुवों ने अपनी शक्ति वापस पायी वो अपनी खोई हुयी जमीन को वापस पाने हेतु प्रयासरत हुयी यह भी कहीं से गलत नहीं है फिर चाहे वहां राम स्वयं से पुन: २२/२३ की रात में प्रगट हुए या प्रगट किये गए , दोनों ही उचित है आखिर वो स्थल छीना  हुवा ही था और पराजित को हक़ है कि वो अपनी सम्पत्ति को वापस पाने का जैसे भी हो सके प्रयास करे । और अगर ये अनुचित है तो सबसे पहले तो आज वक्फ बोर्ड को भंग कर देना चाहिए।

६. और जब राम स्वयं से पुन: २२/२३ की रात में प्रगट हुए या प्रगट किये गए तो वहां पूजा अर्चना भी हुयी ही और वो हिन्दू स्थल कि गरिमा पुन: पाया भले ही बंद रहकर ही सही ।
७.  हाँ उक्त विवादित परिसर को गिराया जाना  जरुर अनुचित और गैर क़ानूनी कहा जा सकता है मगर जरा विचार करें कि क्या आज भी सामान्य जन अपने भाई-भतीजों, पट्टीदारों या किसी बाहरी कब्जेदारों से निपटने के लिए ये तरीके नहीं अपनाता है ?

८. पहले भी बातचीत का प्रयास किया गया मगर जहाँ एक तरफ हिन्दू कहता था कि हमें गर्भ गृह ही चाहिए ( मेरे अनुसार यह आस्था से ज्यादा जैसे आत्म सम्मान का विषय था , सोंचे क्या हम आज भी हम लोग पूरी तरह से अंग्रेजों की गुलामी से उबर पाये है ? ) तो दूसरी तरफ मुस्लमान कहता था अगर उसे अयोध्या में बाबरी मस्जिद चाहिए तो मुख्य गुम्बद के के नीचे ही चाहिए वर्ना नहीं चाहिए ( यह भी आस्था से ज्यादा विजेता के गुरुर का ही मामला था वर्ना क्या मक्के और मदीने जैसे पवित्र स्थलों के शहर में कुछ मस्जिदों को केवल शहर के विकास के नाम पर अलग स्थानांतरित नहीं किया गया ? तो भारत में क्यों नहीं हो सकता था ?)

९. तो इस तरह से हिन्दू और मुस्लमान दोनों के दावे उक्त स्थल हेतु अलग अलग काल खंड के अनुसार सत्य हैं  , जो लोग चिल्ला रहे है कि उनके तर्कों और साक्ष्य  को पूरी तरह से नहीं देखा गया वो वास्तव में अनर्गल प्रलाप कर रहें है । अरे अदालत और क्या देखती ? केवल तुम्हारी एकतरफा सुनती तभी सही थी ? उसने सब तर्कों और साक्ष्य  को वास्तव में ईमानदारी से देखा तभी तो दोनों पक्ष का अधिकार माना और भूमि को १/३,१/३,१/३ के अनुसार बँटा । और यही उचित भी था वर्ना अगर वो किसी भी पक्ष को पूरी तरह से भूमि दे देता तब वास्तव में अन्याय करता।

१०. अब मान लेते है कि अगर पूरी भूमि मुसलमानों को ही अदालत देने का कागजी  आदेश जारी कर देती तो जरा सोंच कर देखें कि प्रदेश के मुख्य मंत्री , देश के प्रधानमंत्री, तीनो सेना के सेनापति, सभी धर्म गुरुवों से लेकर राजनेतावों तक किसकी सामर्थ है कि वहां वर्तमान में स्थापित राम लला को हटवा देता और वहां मस्जिद बनवा देता ? अगर ऐसा हो सकता तो पहले के पदों पर पद-स्थापित लोग ऐसा अपनी ताकत और सत्ता का प्रयोग कर के ना कर देते फिर चाहे वो नेहरू हो, इंदिरा जी हों, राजीव गाँधी हो, बाबा अटल बिहारी हो, चंद्रशेखर हो, या मनमोहन सिंह हो, आडवाणी हो, कल्याण सिंह हो, मुलायम सिंह हो, बुखारी हो, जिलानी हो या मोहन भागवत हो ?

११. और ये बात केवल राम लला बिराजमान हेतु ही नहीं लागू होती है यही बात बात दुसरे पक्ष हेतु भी लागू है , पूरी भूमि हिन्दुवों को ही अदालत द्वारा देने का कागजी आदेश जारी हो गया होता और वहां पुराना वाला ढांचा आज भी होता तो  किसकी औकात थी कि वहां उसे गिराकर वहां मंदिर बनवा देता ?

१२. कुछ भी कहना आसान है मगर उसे जमीनी धरातल पर कार्य करना मुश्किल होता है ? तो अगर वो ढांचा गिरा तो मै तो यही कहूँगा कि ईश्वर और पैगम्बर की यही इच्छा थी जिससे कम से कम आज खाली जगह का बँटवारा तो दीवानी मामले की तरह से हो सके ?

१३. तो अब क्यों नहीं दोनों पक्ष के लोग उसी जगह पर मंदिर मस्जिद एक साथ अपने अपने मिले जगह पर बना लेते है ?

१४. और अगर अब भी दोनों पक्ष के कुछ स्वार्थी, चोर, बेईमान, लालची, मक्कार, पापी, अधर्मी, अज्ञानी , राजनैतिक रोटी सेंकने की चाहत वाले लोग झगड़ना चाहते है तो स्वागत है, मगर जन सामान्य को बक्स दो भैया !! मेरी राय है की जैसे डब्लू डब्लू एफ होता है या फ्री स्टाइल की कुस्ती होती है वैसे ही हिन्दू और मुस्लिम दोनों पक्ष के लोग दो अलग अलग झगडालू दल बना ले और उसमे मार करने वाले स्वयं सेवको, जिहादियों को आमंत्रित कर ले, और इसमे सामिल होना वाला एक घोषणा पत्र भर के दे कि वो अपने पूरे होशो हवास में अपने प्राणों कि बाजी लगाने जा रहा है और यदि उसके प्राण जाते है तो इसके लिए किसी भी व्यक्ति, समुदाय को जिम्मेदार ना माना जाय ना ही उसके परिवार को इसका कोई मुवावजा ही चाहिए ना उन्हें भारत का नागरिक माना जाय, और फिर मरने दो, दोनों तरफ के पागलों को, शायद इसी तरह कुछ शांति आ जाय और देश कि जनसंख्या भी कम हो जाय । मेरा दावा है कि झगडालू दल से कोई भी दावेदार जीवित नहीं बचेगा क्योंकि यहाँ कोई किसी से कम नहीं है।
जरा यहाँ भी देखे http://vivekmishra001.blogspot.com/2010/09/blog-post_16.html 
१५. दोनों पक्ष ने कहा था कि कोर्ट का फैसला मानने के लिए बाध्य होगे....तो अब क्यों किस मुह से बेमतलब में सुप्रीम-कोर्ट की रट लगा रहे हैं अब जो फैसला अदालत ने दिया है उसे चुप-चाप शराफत से सभी लोग माने और इस देश को आगे जाने दें । इस देश की अदालत के अलावां और कोई भी इसका समाधान नहीं कर सकता है और जो फैसला आया है उससे बेहतर कोई और फैसला नहीं हो सकता है भरोसा ना हो तो नये सिरे से वार्ता का नाटक कर के देख लीजिये या उच्चतम न्यायलय में भी जाकर अपना सर पटक लीजिये आपको अपने आप पता चल जायेगा।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

उलझने

उलझने ये जिंदगी की , ख़त्म नहीं होंगी कभी ।
साथ में जीना हमें , सीखना होगा अभी ।
नाव की कीमत तभी , जब नदी की धार में हो ।
बह रही हो धारा उलटी  , वहीँ खेवैये की बात हो ।
धारा के संग साथ में , बह जाते निर्जीव भी ।
धारा के विपरीत ही , होती जरुरत सामर्थ की ।

हाँ उलझनों के बिना , नहीं जिंदगी का सार है ।
ज्यों कसौटी के बिना , नहीं होता स्वर्ण व्यापार है ।
आग में तपकर सदा , फौलाद है बनता यहाँ ।
संसार से भाग कर , जिंदगी है बदरंग यहाँ ।
तूफान के विपरीत जो , ढाल बनते हैं यहाँ ।
उनके आगे ही सदा , झुंकता है सारा जहाँ ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

जय जवान-जय किसान

जय जवान-जय किसान , कभी नारा था ये महान ।
लाल बहादुर 'लाल' था ,  तब भारत देश का प्रधान ।
जीवन भर उसे प्यारा था , अपना भारत देश महान ।
भूल गए हम दोनों को , रखने में अपनो का ध्यान ।

जय जवान-जय किसान , अब के नेता नहीं किसान ।
कफन बेंचते सीमा पर , और फूँक रहे हैं खलिहान ।
केवल भाषण में खुलकर , करते तेरा वो गुणगान ।
चंद कागजी टुकड़ों पर , तुम्हे बेंचते वह बेईमान ।
जय जवान - जय किसान , हैवान हो गया है इन्सान ।
वादों की फसलों को देखो , खून से सींचता है शैतान ।
है एक प्रधान एक निशान , पर खंड खंड हैं यहाँ विधान ।
फिर भी शान से कहता नेता , मेरा भारत देश महान ।

जय जवान-जय किसान , जो तेरा गाते प्रशस्तिगान ।
वो खून चूसने वाले ही , कहलातें है आज महान ।
भूँखा नंगा रखकर तुझको , वो होतें है मालामाल ।
तेरे खून पसीने के बल , शासन करते चंद दलाल ।

जय जवान-जय किसान , तुम ना बेंचना अपना ईमान ।
तुम दोनों के कंधो पर , टिका देश का भविष्य महान ।
तेरे श्रम के बल पर ही , भारत है अब भी बलवान ।
आवाहन तेरा करते हैं , भारत मा के 'लाल' महान ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

चाहत और दीवानगी

चाहतो की भी हदें , होनी जहाँ में चाहिए ।
बिन हदों की चाहतों को , छोड़ देना चाहिए ।
यदि हदें होंगी नहीं , चाहत दीवानगी कहलाएगी ।
इंसानियत का वो कभी , कर भला ना पायेगी ।

दीवानगी हो प्यार की , या दीवानगी नफ़रत की हो ।
दीवानगी हो दान की , या दीवानगी लालच की हो ।
दीवानगी से आज तक , इंसानियत पनपी नहीं ।
दीवानगी की कोख में , हैवानियत पलती रही ।

बाँटने की बात को , दीवानगी सहती नहीं ।
दूसरों का भी है हक़ , दीवानगी कहती नहीं ।
दीवानगी इन्सान को , जालिम बनाया करती है ।
भूल कर सारी हदें , मंजिलो को पाया करती है ।


वो भुला देती है अंतर , क्या बुरा, अच्छा है क्या ?
याद उसको रहता है , क्या मिला,मिलना है क्या ?
तो छोड़ कर दीवानगी , बस चाहतों तक ही रहो ।
चाहतों की हर हदों के , हद से पहले तुम रुको ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


क्रिएटिव कामन लाइसेंस
अनंत अपार असीम आकाश by विवेक मिश्र 'अनंत' is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-ShareAlike 3.0 Unported License.
Based on a work at vivekmishra001.blogspot.com.
Permissions beyond the scope of this license may be available at http://vivekmishra001.blogspot.com.
Protected by Copyscape Duplicate Content Finder
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...