हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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मंगलवार, 31 अगस्त 2010

गिरगिटिया

दूर से देखो तमाशा , पास मत जाओ अभी ।
रंग गिरगिट की तरह , बदलेगा वो आदमी ।

मंदिर से आया अभी , मदिरालय अब वो जायेगा ।
देख लिया जो हमें कहीं, मस्जिद में घुस जायेगा ।

संतो और फकीरों जैसा , चोला वो अपनाएगा ।
आप खायेगा मालपुआ , हमसे रोजे रखवाएगा । 

किसी धर्म जाति से उसका कोई , नहीं दूर का नाता है  ।
दिखे जहाँ भी मॉल उसे , बस वहीँ वो आता जाता है । 

काँख में अपने छूरा छुपाये , लिए हाथ में माला है ।
अपनी शातिर नजरो से , शिकार खोजने वाला है ।

रंग देखकर औरों का , वो अपना रंग बदल लेगा ।
अपने मन की चोरी को , फ़ौरन ही वो ढँक लेगा ।

तुम कुछ भी समझ ना पाओगे, अपना सर्वस लुटाओगे ।
भांफ ना उसको पाओगे , फँस जाल में उसके जाओगे ।

है यही सीख मेरी तुमको, तुम खड़े ओंट में कहीं रहो ।
गिरगिटिया रंग दिखायेगा , केवल तमाशा देखते रहो ।


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शनिवार, 28 अगस्त 2010

मृत्यु दंड ...!

विराग के छणों में , तुम छेड़ते हो राग क्यों ?
जल रहा है दिल यहाँ , जला रहे हो आग क्यों ?

अपनी ही परछाहियों से , लड़ रहा मै आज क्यों ?
खींझ किसी और की , सह रहा मै आज क्यों ?

सोँच कर विहंग दृश्य , क्यों खड़े है रोम सब ?
किस लिए मै हाथ में , ले रहा कराल अब ?

क्या किसी ने जान कर, है व्यथित किया मुझे ?
या किसी ने भूल कर , ललकार है दिया मुझे ?

छीनने को प्राण किसका , हो रहा व्याकुल हूँ मै ?
आज किसकी मौत का , रच रहा हूँ व्यूह मै ?

कौन है अभागा वो , जो आज मारा जायेगा ?
आज मेरे हाथ से , कौन मुक्ति पायेगा ??

(ईश्वर उसकी आत्मा को शांति दे....)
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शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

जिन्दगी शोलों में तप-तप के...."ओशो"

जिन्दगी शोलों में तप-तप के निखरती ही गयी
जितनी ताराज हुयी, और सँवरती ही गयी ।
तल्खियाँ जैसे फिजाओं में घुली जाती हैं ।
जुल्मते हैं कि उमड़ती ही चली आती हैं ।
आशियाने के करीं बिजलियाँ लहरातीं हैं ।
आग और खून के तूफां भी चले आते है ।
मुह कि खाते हैं,पछड जाते है,जक पाते है ।
जितनी तराज हुई जिंदगी , संवरती ही गयी ।
आग के शोलों में तप तप के निखरती ही गयी ।
आगें जलती ही रहीं , शोले बरसते ही रहे ।।

(द्वारा ओशो रजनीश )

मन की पाती

भेज रहा हूँ तुमको प्रियवर , अपने प्रेम की पाती ।
प्रेम भाव में डूबे अक्षर , प्रेम रंग की पाती ।

पहले भी मै लिखता था , कुछ कोरे अक्षर कोरी पाती ।
तुमसे मिलकर सीख गया , अब प्रेम भाव की बाती ।

पहले भी मै मिलता था , कुछ खाली कोरे भावों से ।
लेकिन अब तो भरा हुआ हूँ , तेरे प्रेम के भावों से ।

सोँच रहा हूँ तुमने भी, शायद लिखी हो मुझको पाती ।
यदि ऐसा है निश्चय ही , होगी उसमें दिल की बाती ।

अगर नहीं लिख पायी हो, मुझे प्रेम की अपनी पाती ।
तो तुम लौटा देना मुझको , मेरे अक्षर मेरी पाती ।

मै इसे सहेज कर रख लूँगा , अपने प्रेम पिटारे में ।
तुम जब आना पास मेरे , पढ़ लेना कभी इशारे से ।

शायद तुमको भुला सकूँ , इससे कुछ दिन और अभी ।
या फिर शायद इसी तरह , मै तेरे प्रेम को पाऊँ अभी ।

जो भी हो अच्छा ही होगा, यही सोँच कर लिखता हूँ ।
लो अपने प्रेम की पाती को, अब तेरे हवाले करता हूँ।।
(मूलत: ०१/०६/२००१-को लिखा हुआ , उसके लिए जो मेरा आधा भाग है )

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गुरुवार, 26 अगस्त 2010

जीवन बस एक मस्ती है...

डगमगा गए कदमों को,
सम्भाल लेना जिंदगी है ।
टूटती सांसों को फिर,
जोड़ लेना जिंदगी है ।
जिंदगी जिन्दादिली है,
इसे आंसुवो में ना डुबोना ।
हो बुरा चाहे वक्त कितना,
आस को थामे तुम रखना ।

वो इन्सान क्या जिसके कदम,
बंहके नहीं दीवानगी में ।
गलतियाँ उससे ना हो,
भटके नहीं आवारगी में ।
होश जो खोये नहीं,
रूप की मदहोसियों में ।
जाम लबों तक जाकर,
छलकाए ना बेहोशियों में ।

हर वक्त नहीं सिथिर रहता,
हालात बदलते रहते हैं ।
हर एक कदम जो उठते हैं,
दूरी वो घटाते रहते हैं ।
जो बिगड़ गया उस पर रोना,
है नहीं उचित इंसानों को ।
थक कर मंजिल से पीछे हटाना,
है उचित नहीं मस्तानों को ।

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मंगलवार, 24 अगस्त 2010

तुम त्याग के मारों क्या जानो.....

1.
तुम त्याग के मारों क्या जानो, भोग भी एक तपस्या है ?
लो   सुनो   तुम्हे  बतलाता हूँ  ,  भोग  भी  एक  तपस्या  है ।
तप   का अर्थ है तपना   , बाहर भीतर दोनों ही ।
भोग का अर्थ है जुड़ना , बाहर भीतर दोनों ही।।

2.
क्या बिन भोगे तुम तप पाये हो, या तपे बिना हम भोग सकें है ?
जितना   ज्यादा   तुम   भोगे   हो ,  उतना  ही हम तप कर आयें है ।
तप के कोख से भोग है जन्मा , भोग के कोख से तप है जन्मा ।
तप-तप  कर  तुम भोगी हो गए , हम भोग-भोग कर योगी हो गए।।

3.
इसी लिए तुम्हे समझाता हूँ ,  ये प्रकृति  का रहस्य बताता हूँ ।
बिना भोग के योग नहीं है, और बिना योग के भोग नहीं है ।
जब भोग सकोगे जग को तुम ,   तब   पाओगे   तप   को तुम ।
जब तप जाओगे सच में तुम , तब भोग सकोगे जग को तुम।। 

4.
तुम   योग के मारों क्या जाने  ,  त्याग ही एक तपस्या है ?
हम भोग में रहकर जान गए , त्याग भी केवल भोग ही है ।
ये माया और बैराग्य की बातें, बंद करो कुछ  पल को तुम ।
आओ  तुम्हे बताता हूँ ,  कुछ भोग की कोख से जन्मी बातें।।

5.
है जग का नियम अटल पर कटु , जो कुछ पाये हो लौटोगे ।
पर क्या जग में है कुछ ऐसा भी, जो बिन पाये ही लौटाओगे ?
जब भरा रहेगा सब कुछ तेरा , जो चाहोगे त्याग सकोगे
यदि  खाली हाथ ही जाओगे ,  कुछ भी पाओगे ले आओगे

6.
मै इसी लिए समझाता हूँ , 'शिव-शंकर'  का रहस्य बताता हूँ ।
जो भोगी हैंआधे योगी है ,  जो योगी हैं, आधे भोगी है ।।
जो समझ सके ना अब भी तुम , योग - भोग के अंतरतम को ।
ना भोग सकोगे जग को ही, ना त्याग सकोगे जग को तुम ।

7.
ना बन पाओगे योगी ही , ना बन पाओगे भोगी ही ।
बस बन कर त्रिंकुश के जैसे ,  रह जाओगे ढोंगी ही ।
तो आओ दो पल तुम समझो, इस त्याग-भोग के सामंजस को ।
फिर सोंचो क्या बनना है ? केवल आधा या पूरा योगी,भोगी।।

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सोमवार, 23 अगस्त 2010

क्या खाएं ? , कैसे खाएं ? , कहो तो भूंखे ही मर जाये ।

क्या खाएं ? , कैसे खाएं ? , कहो तो भूंखे ही मर जाये ।
पैसा सबके हाथ में ,  शुद्ध भोज्य नहीं है पास में  ।
गेंहू , चावल दाल सभी , फूल रहे हैं उर्वरको  से ।
उपर से उसमे भी मिलावट , नहीं कहीं है कोई राहत ।
दूध में पानी और पावडर , मिला रहे थे वर्षो से ।
अब तो उसमे मिला रहे है ,  यूरिया, सर्फ और स्टार्च ।
पनीर कहाँ अब असली है?, दही भी मिलती नकली है ।
बना रहे है आइसक्रीम , वॉशिंग पाउडर, सैकरीन से ।
पहले घी में मिलता था , चर्बी मिला डालडा ही ।
अब तो घी को बना रहे , मुर्दों की हड्डी से हम ।
चीनी में मिला चॉक पाउडर , मिर्चे में है ईंट पाउडर ।
काली मिर्च है बीज पपीता , धनिये में पशुवों की लीद ।
हींग में मिटटी मिला रहे ,  हल्दी में जहरीला रंग ।
काफी में है मिला चिकोरी , चाय है पहले वाली उबली ।
नामक का मान रखेगा कौन, खिला रहे है व्हाइट पाउडर ।
है तिल का तेल पुरानी बात , अब उसमे सब नकली बात ।
कद्दू , कोहड़ा , लौकी सब , फूल रहे इंजेक्शन से ।
पल में छोटी सी बतिया , एक साथ की होती है ।
केला,आम,अनार,पपीता , पका रहे है जहर से हम ।
रंग में रंगी हुयी सब्जियां , बिकती है बाजार में ।
नकली कत्था और सुपाड़ी , है पान की दुकान में ।
जहरीली स्प्रिट है बिकती , मदिरा के नाम पे ।
कैचप,सास, और जैम भी , बनता नकली फैक्ट्रियों में ।
हर असली में मिला है नकली, आज यहाँ बाजार में ।
भरता पेट नहीं मानव का , लाभ कमाने के लोभ से ।
क्या खाएं?, कैसे खाएं ?, कहो तो भूंखे ही मर जाये ।
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रविवार, 22 अगस्त 2010

विषाद के क्षणो का कारण

विषाद के क्षणो का, सदा कारण नहीं होता है ।
और ऐसा होना भी, अकारण नहीं होता है ।
ज्यों दूर गगन में कहीं, बादलों से ढ्क गया चाँद हो ।
ओझल हो तारे सभी पर, उन्हें ना इसका गुमान हो ।
कुछ इसी तरह से जब , मन अज्ञात भावों से घिरता है ।
अकारण ही अवसाद का, एहसास मन में भरता है ।
दूर जाना हो अगर , अवसाद के इन बादलों से ।
चीर दो अज्ञात को , ज्ञात के तलवार से ।
तुम नियंता मन के हो , मन को तुम्ही चलाते हो ।
ज्ञात और अज्ञात का , अंतर भी तुम्ही बनाते हो ।
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शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

आज का गब्बर....मच्छर !!

वो एक जमाना था पहले ,
लोग गब्बर के नाम से कांपते थे ।
दूर पचास पचास कोसों तक ,
गब्बर का नाम सुनकर छुप जाते थे ।
तब कहर हुआ करता था गब्बर का ,
हर गाँव-शहर हुआ करता था गब्बर का ।

समय बदला जमाना बदल गया ,
दिलों में खौफ का तराना बदल गया ।
अब है खौफ हर तरफ मच्छरों का ,
हर कोई शिकार होता आज मच्छरों का ।
हालत ये आज हर दवा बेअसर है ,
हर गोली , हर टिकिया सब बेअसर है । 

चीखता है गब्बर पागलों सा आज भी ,
सूअर के बच्चों गिनो कितने है मच्छर ?
कालिया कहता, सरदार गिने तो कैसे ,
जितनी आती है गिनती उससे ज्यादा हैं मच्छर ।
बहुत बेइंसाफी  है सरदार ! , मरते नहीं मच्छर ,
अकेली बची है टिकिया और अनगिनत हैं मच्छर ।

तो पचास पचास कोस दूर से ,
अब सुनकर आवाज मच्छरों की ।
छुप जाता है कहीं दुबककर गब्बर ,
बारीक़ जाली वाली मच्छरदानी के अन्दर ।
फिर भी कहाँ छूटता है मच्छरों से पीछा ,
खून के बदले खून ही मांगता है मच्छर ।।


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गुरुवार, 19 अगस्त 2010

प्रश्न ??

जाने कब मै प्रश्नों का, पाउँगा कोई उत्तर ?
जाने कब मेरे प्रश्नों के , लायक होंगे कुछ उत्तर ?

प्रश्न ये नहीं 'प्रश्न क्या है ' ,
प्रश्न है 'प्रश्न क्यों अभी  भी क्या है' ?
और ये प्रश्न आज का है भी नहीं ,
ना ही ये उपजा परिस्थित जन्य है ।
फिर ये प्रश्न जीवित क्यों है ? ,
है अगर जीवित तो अनुत्तरित क्यों है ?

दूर कोने में अकेला, ये खड़ा चुपचाप क्यों है ?
भूंखा प्यासा वर्षों से , ये रहा चुपचाप क्यों है ?
प्रश्न ये है , प्रश्न क्यों , इस तरह चुपचाप है ?
है अगर ये प्रश्न ही तो , क्यों रहा चुपचाप है ?

आप कहते है की ये , शायद कोई है मौन प्रश्न ।
प्रश्न है मौन को क्यों , इतना महत्व देते आप है ?
और यदि उत्तर नहीं , आज तक इसका मिला ।
प्रश्न ये है आज क्यों , होते विकल यूँ आप हैं ?

प्रश्न तो बस प्रश्न है , प्रश्नवाचक उसका स्वरुप ।
जन्म लेना उसकी आदत , नहीं मरण की है अनुभूति ।
खोज कर उसका हम उत्तर , तृप्त मन को ही हैं करते । 
पर प्रश्नवाचक चिन्ह को , कब प्रश्न से हम अलग हैं करते ?

लो  फिर वही अब प्रश्न है , क्यों आज उठा ये प्रश्न है ।
आज तक क्या कर रहा था , क्यों नहीं उत्तर मिला था ?
आगे भी यूँ ही भटकता , कब तक रहेगा प्रश्न ये ?
है कहाँ उत्तर अभी , और कौन देगा वो हमें ?

जाने कब मै प्रश्नों का, पाउँगा कोई उत्तर ?
जाने कब मेरे प्रश्नों के , लायक होंगे कुछ उत्तर ?

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बुधवार, 18 अगस्त 2010

क्या कमी थी दुश्मनों की, फिर दोस्ती करने चले ?

क्या कमी थी दुश्मनों की , फिर दोस्ती करने चले ?
क्या पीठ में थे घाव कम ,  तुम   गले   मिलने  चले ?

इससे अच्छा था कि तुम, दुश्मनों को खोजते ।
कम से कम धोखे से वो , दोस्ती करते नहीं ।

दुश्मनी कैसी भी हो , कुछ दोस्त रहते है वहां ।
दुश्मनी की ओट में  , अक्सर वफ़ा करते यहाँ  ।
तुम ना यू हैरान हो , क्या ये उल्टा राग है ।
दोस्ती बिन स्वार्थ के ,  कौन   करता आज है ।

कौन कहता है कि दुश्मन , दोस्त से अच्छा नहीं  ।
कम से कम दिल पे हमारे ,  घाव तो करता नहीं ।

क्या कमी है दोस्तों की ,  दुश्मनों के बीच भी  ।
बस एक नजर देखो जरा  , दुश्मनों के बीच भी ।


 हित सधे अपना अगर , दोस्ती दुश्मन करे ।
जग के दिखावे के लिए , दुश्मनी करता रहे ।
स्वार्थ हो अपना अगर, दोस्त है दुश्मन बने ।
बस दिखावे के लिए , वो दोस्ती करता रहे ।

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एक स्वप्न

सोते सोते रात अचानक , जाग गया मै सपने में । 
देखा तो चहुँ- ओर घिरा था , कुहरा बहुत भयानक ।

दूर कहीं पर भौंक रहे थे , कुछ उल्लू पेड़ पर शायद ?
गरज रही थी कहीं निकट ही ,एक बिल्ली शेर पे शायद ?
इतने में चूहा आ धमका , बड़े जोर से फिर वो बमका ।
मच गई भगदड़ चारो और , भागे सब जन मांद  की और ।

मै भी चौंका बड़े जोर से , जंगल में मै पहुंचा कैसे ?
मै तो अपने घर में था , फिर नींद चल कर आया कैसे ?
चारो तरफ है फैला जंगल , होगा मचा शहर में दंगल ।
ढूंड रहे होंगे सब मुझको , कौन बचाएगा अब उनको ।


लभी भूँख मुझे तभी जोर की , खा गया कच्चा मै कई हाथी ।
हाहाकार मचा जंगल में , रोने लगे बचे हुए साथी ।
भूँख मिटी जब मेरी थोड़ी , नींद आ गयी मुझे जोर की ।
सो गया मै फिर वही अकेला , जंगल में था मेरा बसेरा ।

तभी हिलाया मुझे किसी ने , जाग गया मै अपनी नींद से ।
टूट गया फिर स्वप्न अधूरा , घर में था मै अपने पूरा ।

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अथ नेता उवाच

आओ पापी जानो तुम्हे ,मै सारे पाप सिखाता हूँ ।
भारी भरकम जेबों को , मै हल्का करना बतलाता हूँ ।

उस से आगे बढ़ कर मै , चोरी की कला बताता हूँ ।
लूट-पाट करना जमकर , मै पल में ही सिखलाता हूँ ।
गला काट कर शीश सहित , गायब होना पढाता हूँ ।
ब्याभिचार की सभी कलाएं , सचित्र तुम्हे सिखाता हूँ ।

कैसे लेते रिश्वत है ? , कैसे उसे पचाते है ??
कैसे औरों का मॉल हड़प कर , अपना उसे बताते है ।

लोकतंत्र के नाम पर कैसे , हम मिलकर लूट मचाते है ।
हमसे ज्यादा कौन अनुभवी , होगा पाप की दुनिया में ।
हमसे ज्यादा कौन पतित , होगा पूरी दुनियां में ।
नेतागीरी करते हम , देखो सारी दुनिया में ।
इसीलिए तो जनता ने , नेता हमें बनाया है।
देख हमारे अनुभव को , हमें सत्ता में पहुँचाया है ।

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मंगलवार, 17 अगस्त 2010

झूंठ के पाँव नहीं होते

सच कहना आसान नहीं ,
सच सुनना और भी मुश्किल है ।

आग जलाना अगर कठिन ,
उस पर चलाना मुश्किल है ।

आसान अगर ना सच कहना ,
है कठिन सदा उसपर टिकाना ।

सच का सहारा लिए बिना ,
है कठिन झूंठ साबित करना ।

झूंठ के पाँव नहीं होते ,
वो चलता सच के पावों पर ।

सच चाहे हो लाचार भले ,
वो चलता अपने पावों पर ।
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रुपये का स्वरुप

मित्रों

लीजिये आपके अवलोकन हेतु प्रस्तुत है नए पहचान चिन्ह के साथ जारी होने वाले रुपये का स्वरुप :-

सोमवार, 16 अगस्त 2010

हर बार वही कहानी

एक अजब सी प्यास है मन में , एक अजब सी तड़फ है दिल में ।
मै व्यक्त नहीं कर पाता हूँ , ना शब्दों में लिख पाता हूँ ।
शायद मै समझ ना पाता हूँ , या स्वयं से छिपाता जाता हूँ ।
बेचैन मुझे वो करती है , अस्थिरता मुझमें भरती है ।

मेरे तन-मन में वो हर पल , आग जलाये रखती है ।
भुला जगत की मर्यादा , वो आगे बढ़ने को कहती है ।

जाने कब मुक्ति मिलेगी , मुझको इन व्याकुल भावों से ।
या जाने कब तृप्ति मिलेगी , मुझको इनकी बाँहों से ।

जो भी हो पर मेरे लिए , हर पल है अग्नि-परीक्षा ही ।
हर बार उतरना खरा मुझे , है अंतत: मेरी मजबूरी भी ।

शब्द जबाँ तक आते है , फिर ओंठ सिये क्यों रहता हूँ ?
जानबूझ कर सब कुछ मै , अंजान बना क्यों रहता हूँ ?

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

रविवार, 15 अगस्त 2010

किसका होता जयघोष यहाँ ?

किसका होता जयघोष यहाँ , जिससे गुंजित है दशो दिशा ?
किसके स्वागत में फूलों से , पटी  हुयी है समस्त धारा ?
किसकी अगवानी करने को , कतार बद्ध है लोग यहाँ ?
किसकी आरती करने को , व्याकुल हैं सब लोग यहाँ ?
दशों दिशाओं कहो जरा , है कौन बीर जो वहां खड़ा ?
क्या विजयी होकर आता है , या रण-भूमि को जाता है ?

छोड़ो तुम जयघोष करो , मै स्वयं  ही देखता हूँ जाकर ।
निश्चय ही भारत मां का वो , होगा कोई बीर सपूत ।
हर लाल प्रतिज्ञाबद्ध यहाँ , माता की शान बढ़ाने को ।
अपना शीश कटाकर भी , माता की आन बचाने को ।
फिर चाहे आता होकर विजित, या जाता हो रण करने को ।
चरण-धूलि पाने को उसकी , है आतुर  आज मेरा मन भी ।






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धरती का बंटवारा

["संगीनों के साये में सन्नाटा" ,  यही कहता है आज-कल का अखबार "कश्मीर" के लिए]
तो हम कहना चाहते है इस देश में छुपे 'कुछ दोगले नापाक लोगों' के आका 'पाकिस्तान' से

'ईश्वर'   ने   इस   दुनियां   में ,   'धरती'    एक    बनायीं     थी ।
जब तुमने उसको बाँट लिया, फिर उसका दोष कहाँ है भाई ।

फिर भी  तुमको  चैन  नहीं ,   हक़  छीन   रहे   तुम   औरों  का ।
अपने  घर  में अँधियारा है  पर , चिंता  सता रही है गैरों का ।

प्यार से मांगो आकर अगर ,  हम  अपना  सर्वस   लुटा  देंगे ।
ताकत  से  कुछ छीनोगे तो  ,   घुटनों  पर  तुमको   ला   देंगे ।

शांति  हमें  प्यारी  है  लेकिन ,  रण   से   ना   हम   कभी  डरेंगे ।
अपने   जान   की   बाजी लगा  ,   हम   जान  तुम्हारी  हर  लेंगे ।

बेहतर है तुम  दूर  रहो ,  अपने 'घटिया नापाक इरादों' से ।
'भाईचारे'   को  दफनाकर  तुम ,  ना ललकारो रण भूमि में ।

हमको    है   'संतुष्टि'  सदा  ,  जो   हिस्सा   हमको  तुमने  दिया ।
तुमको    अभी   सीखना  है ,   'बँटवारे'  ने  क्या   सिला  दिया ।

हमें    नहीं   चाहिए   ऐसा   कुछ ,   जो   तेरे   हिस्से   आया   है ।
हमने चाहा   था   कभी नहीं , ये बटवारा तुमने करवाया है ।

हम 'भारत माँ'  के बेटे है , यह जननी सिंह जन्मती है ।
वह कोख अभागी होगी जो , तुम सा सियार जन्मती है ।

तुम   दूर   रहो   इस  धरती   से ,  हम  इसकी पूजा करते  है ।
अपनी  जान निछावर कर , हम इसके मान को रखते है ।

 © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

फिर वही तिरंगा..!

फिर आज चले लहराने तुम , लालकिले पर वही तिरंगा ।
जिसकी कसमें खाकर जाने , कितने क्रांति के बीज उगे ।
जिसकी छवि आँखों में रखकर ,  बेंत चंद्रशेखर ने खाए ।
जिसकी खातिर असेम्बली में , भगतसिंह बटुकेश्वर ने पर्चे लहराए ।
जिसकी खातिर बिस्मिल ने , काकोरी में लूटा था ट्रेन ।
जिसकी खातिर असफाक ने , दे दी  यौवन की क़ुरबानी ।  

जिसकी खातिर भेष बदल कर , जीने को विवश सुभाष हुए
जिसकी खातिर सर्वस लुटाकर, गोली अपनों की खायी गाँधी ने ।
बोलो क्या अब तक हम कर पाये , पूरे उनके सपनो को ???
या फिर पाल कर भ्रम को केवल , जीते रहे हम सपनों को ???
है भले देश में अपनी सत्ता , लेकिन हम क्या कर पाये है ?
भूँख , अशिक्षा, बेरोजगारी,बीमारी  का, क्या हम हल दे पाये है ?

लुटी जाती अस्मत अब भी , अब भी जलती बहुएं है ।
भींख मांगता बचपन है , और वही अपाहिज बुढ़ापा है ।
सौतेली है अब भी वो भाषा , जो राष्ट्र भाषा कहलाती है । 
सत्ता के चारो खम्भों पर , भारत मां रोती जाती  हैं ।
लूट घसोट मची है हर दिन, भ्रस्टाचार में सब कोई रंगा।
फिर भी देखो फहराने चले, लाल किले पर आज तिरंगा ।

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शनिवार, 14 अगस्त 2010

क्षमा करो 'आजाद' हमें

15 अगस्त की पूर्व संध्या पर आजादी के दीवानों को समर्पित

क्षमा करो 'आजाद' हमें , आजादी हमने अपनी बेंची ।
दुनिया के रखवालों से ,   हमने अपनी शांति खरीदी ।

भुला दिया पौरुष अपना , बाट जोहते औरों की ।
जिनसे तुमने संघर्ष किया , हम गले लगाते उनको ही ।

आन देश की बेंच कर हमने , शान बढाई है तन की ।
शान देश की बेंच कर हमने , जान बचाई है अपनी ।

भूल गए हम स्वप्नों को , अंतिम समय जो तुमने देखे ।
मिटा दिये सब आदर्शों को , जो तुमने हमको थे भेजे ।

वैश्वीकरण का युग आया , सत्ता में घुस गए दलाल ।
अपनों के सीनों पार ताने ,  संगीने  अपने ही लाल।

परिभाषा भले 'आजाद' हो , अब कहाँ देश आजाद है ?
स्वाधीन था जो पहले , सब पराधीन अब आज है ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

आप चाहे जब परख लें....


१.

आप चाहे जब परख लें, अपनी कसौटी पर मुझे ।
मै    सदा   मै    ही   रहूँगा ,  आप  चाहे   जो   रहें ।
मुझको आता है नहीं , मौसमो की तरह बदलना ।
आप   चाहे  रोज   ही ,  मेरे   कपड़ों   को    बदलिए ।
मै   कहाँ कहता   कि  मुझमें ,  दोष कोई   है नहीं ।
आप   दया  करके  मुझे ,  'देवत्व'  ना दे दीजिये ।
मुझको लगते है सुहाने , इंद्र-धनुष के रंग सब ।
आप कोई एक रंग  ,  मुझ पर चढ़ा ना दीजिये ।
हो   सके  तो  आप  मेरी ,  बात   समझ लीजिये ।
गर दो  पल है  बहुत  ,  एक   पल   तो    दीजिये ।
.
मै नहीं नायक कोई , ना मेरा है गुट कोई ।
पर भेड़ो सा चलना मुझे , आज तक आया नहीं ।
यूँ क्रांति का झंडा कोई , मै नहीं लहराता हूँ ।
पर सर झुककर के कभी , चुपचाप नहीं चल पाता हूँ ।
आप चाहे जो लिखे , मनुष्य होने के नियम ।
मै मनुष्यता छोड़ कर , नियमो से बंध पाता नहीं ।
आप भले कह दें इसे , है बगावत ये मेरी ।
मै इसे कहता सदा , ये स्वंत्रता है मेरी ।
फिर आप चाहे जिस तरह , परख मुझको लीजिये ।
मै सदा मै ही रहूँगा , मुझे नाम कुछ भी दीजिये ।
3.
मै हूँ दर्पण के जैसा , जिसमे दिखेगा रूप तुम्हारा ।
जैसे चाहोगे मुझे देखना,वैसा पाओगे रूप हमारा ।
मै ना बा-वफ़ा किसी का , ना होता बेवफा कभी ।
तुम जो भी चाहो समझो मुझे , मै हूँ खड़ा यहीं ।
यूँ मानव संग मै मानव हूँ, दानव मिले तो दानव हूँ ।
सज्जन हित सज्जनता है, दुर्जन की खातिर दुर्जनता ।
लोभी संग मेरा लोभ जगे, त्यागी संग संसार त्याग दूँ । 
चोरों के संग चोर बनू , शाहों के घर का मै रखवाला ।
कुटिलो हेतु कुटिलता मुझमें, अपनों हित है भाई-चारा ।
जो भी जैसा मिले मुझे , बस उसके जैसा रूप हमारा ।

 © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे ।

१.
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे ,  एक दूजे को दोनों प्यारे ।
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे ,  अंधे  लूले   हैं   यहाँ  सारे  ।

हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे , राज पथों पर  हैं अंधियारे ।
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे ,  होते  रोज हैं वारे - न्यारे ।
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे , जिंदाबाद कहो मिल सारे ।
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे , जब बँटे रेवड़ी खाए सारे ।
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे , कलयुग के दोनों है मारे ।
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे , जो अपने वो  हमें दुलारे ।
२.
कौन पूंछता सत्य है क्या , किसे पड़ी है न्याय की ?
बस देख तमाशा पैसे का , यहाँ पैसा दे इंसाफ भी ।
रोजी रोटी उसे मिलेगी , जो बाँटेगा अपना हिस्सा ।
किसकी बारी आने वाली , ये सब है केवल किस्सा ।
सब्र नहीं यहाँ किसी को , सबको जल्दी घर है जाना ।
चाह रहे है यहाँ सभी , एक छोटा रस्ता ही अजमाना । 

लेन देन से चलती दुनियां , जब मूलमंत्र है आज ये ।
खोजे कौन यहाँ भ्रष्टों को , हैं हर घर में वो आज रे ।  










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मंगलवार, 10 अगस्त 2010

दु:स्वप्न

देखो ! वो जो आते है,
सब मुझसे नजर चुराते है।
मै उन्हें हकीकत बतलाता हूँ,
उनको,उनका रूप दिखाता हूँ।
फिर भी जाने क्यों ? वो मुझसे ,
रहते है नाराज सदा।
मुझे समझकर  दु:स्वप्न के जैसा,
उठ जाते है, दिवास्वप्न से।
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सोमवार, 9 अगस्त 2010

मेरे प्रभु....मेरी नैया पार लगाओ।

मेरे प्रभु...
"देह दृष्ट से अखिल जगत में,
मै तेरा दास हूँ।
तूने जग में मुझे बनाया,
मैंने अपना पात्र निभाया।

जीव दृष्ट से मै तेरा,
बिखरा हुआ एक अंश हूँ ।
तूने श्रृष्टि की रचना की,
मै तेरा ही वंश हूँ।

आत्म दृष्ट से मै हूँ वही,
जो तुम हो संसार में।
तुम्ही आकर मुझे बताओ,
कौन सा मै अवतार हूँ।

अगर नहीं तुमने बतलाया,
मन का संशय नहीं मिटाया।
भटका करूँगा जन्म जन्म तक,
मै तेरे संसार में।

अब तो आकर मुझे बताओ,
मेरी नैया पार लगाओ।
अपना असली रूप दिखाओ,
मुझको भी संग लेकर जाओ।"

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

चाह रहा हूँ लिखना कुछ

चाह रहा हूँ लिखना कुछ , पर दिशा नहीं पाता हूँ ।
शायद मन के भावों को  , मै पहचान नहीं पाता हूँ ।

बचपन से लेकर अपनी, मै युवावस्था तक आता हूँ ।
धर्म कर्म से लेकर अपनी , कूटनीति तक जाता हूँ ।

मन के भावों को लेकिन , मै शब्द नहीं दे पाता हूँ ।
शायद मन के भाव अभी , परिपूर्ण नहीं हो पाये है ।

या फिर शायद भाव अभी, परिपक्व नहीं हो पाये है ।
जो भी हो लेकिन लिखने को, शब्द नहीं मै पाता हूँ ।

आखिर मैंने सोंचा कि, इस व्यथा को ही लिख डालूं ।
व्यथा को ही यूँ लिखकर अपनी, रचना मै रच डालूं ।


चाह रहा हूँ लिखना कुछ , पर दिशा नहीं दे पाता हूँ ।

भटक रहे मन को अपने, संयमित नहीं कर पाता हूँ ।


© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

रविवार, 8 अगस्त 2010

वस्तुस्थित

                             [१.]
काल के कराल से , कौन   बच पाया है ?
काल के कराल पर, कौन टिक  पाया है ?
काल के प्रवाह को , कौन रोंक पाया है ?
काल के राह को  ,  कौन छेंक पाया है ?

पर्वतों को काट कर , राह नयी बनती है ।
आंधियों की दिशा ,  काल ही  चुनती  है ।
लक्ष्य भी तूफान का, काल तय करता है । 
काल के कराल से , कौन बच सकता है ।

काल यहाँ जब कभी , है अपनी बदलता दिशा ।
रात हो जाता दिन, और दिन हो जाती निशा ।
मिट गए साम्राज्य वो, जिनकी थी सब दिशा ।
नित सूर्य के तेज को भी, लील लेती है निशा ।
                    [२.]
काल के दुर्ग को , कौन भेद सकता है ?
काल के शीश को, कौन झुका सकता है ?
काल के रोष को , कौन दबा सकता है ?
काल के वेग को , कौन नाप सकता है ?
आदमी तो आदमी , भगवान वो बनता है ।
देवाधिपति का पद भी, काल ही दिलाता है ।
सूर्य-वंसी , चन्द्र-वंसी , सब को नाचता है ।
एक पल में राज देता, एक में मिटाता है ।

काल को छोड़ कर , कौन जीत पाया है ।
काल तो काल है, सब उसी की माया है ।
काल की  कृपा से , चल रही ये काया है ।
काल की छाया से , जीवन मैंने पाया है ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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