हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

सीख

समय की गति को , समय ही माप सकता है ।
समय की दिशा को , समय ही बदल सकता है ।
समय के घाव को , समय ही भर सकता है ।
समय का विकल्प , समय ही हो सकता है ।
अत:
समय के साथ चलने की आदत डालो ।
बीत रहे समय का हमसफर बनो और
समय को गुलाम समझने की भूल मत करो ।

दिन का अंत सदा , रात्रि से होती है ।
रात के बाद सदा , नयी शुबह होती है ।
जीवन का अंत सदा , मृत्य से होता है ।
मृत्यु के बाद फिर , जन्म नया होता है ।
सुख के अंत पर , दुःख सदा होता है ।
दुःख के बाद ही , सुख नया होता है ।

इस चराचर जगत में , स्थिर कहाँ कुछ होता है ।
जो समझ पाता नही , वो ही सदा रोता है ।
बाँधना वाह चाहता है , हर चीज अपने आप से ।
कुछ साथ में कुछ पास में , कुछ को दूर के घाट से ।
जो उसे खुश कर पाये , वो उसे लगता भला ।
फुँकता वह छाज  को , दूध से लगता जला ।

दुश्मनी का अंत ज्यों , दोस्ती से होता है ।
दोस्ती का अंत बीज , दुश्मनी का बोता है ।
सीखना सबको पड़ेगा , है जगत का जो नियम ।
आंधियो के बाद फिर , शांति का जग में नियम ।
शांति जब घनघोर हो , तूफान लाती है सदा ।
ठोकरे इन्सान  को , नयी सीख देती है सदा ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

आधारशिला

जीवन की आधार शिलाये , अगर गढ़ी हो आदर्शो की ।
आँच नही आने पायेगी , सुख दुःख के आवर्तन की ।
कदम उठाओ कदम बढ़ावो , अपनों को अपने से जोड़ो । 
स्वप्नों के संसार का छोडकर , सच से अपना नाता जोड़ो ।
महल ताश के टिकते नही , कागज के फूल महकते नही ।
ईमान बेंचकर इस जग , सम्मान किसी को मिलता नही ।

सोंचो बिना नीव के कोई , मीनार खड़ी हो सकती है ।
कागज की कश्ती से कोई , नदी पार हो सकती है ।
बिना कर्म का संचय किये , कब किस्मत की गठरी बनती है ।
कागज के आदर्शो से , कब जीवन की गाड़ी चलती है ।
कर्म करो बस कर्म करो , आधार रहे आदर्शो का ।
आदर्शो के आधारशिला पर , महल बनाओ अपने श्रम का ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

प्रेम कहानी...

बादल गरजे ,बिजुरी चमके , बरस रहा हो पानी ।
हाथ में हाथ पकड़ हम दोनों , भींगे उसमे रानी ।
कहो कैसी है प्रेम कहानी , सुनो ध्यान लगाकर रानी ।

निकल रहा हो चाँद गगन में , चमक रहे हो नन्हे तारे ।
आँखों में आँखे डाले हम तुम , बुनते हो सपने प्यारे ।
सुन रही हो प्यारी रानी , अब बढ़ने लगी कहानी ।

जब दिनकर आने वाले हों , पुष्प भी खिलने जाते हों ।
मधुर गीत हम दोनों ही , मिलकर कोरस में गाते हों ।
कुछ समझ रही हो रानी , है ये कैसी प्रेम कहानी ।

सावन की घटायें आने पर  , जब कोयल का हो मन डोला ।
हम दोनों खोकर एक दूजे में , झूले मस्ती में झूला ।
कहो कैसी लगी कहानी , क्या सोने लगी हो रानी । 
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

लौंडा बदनाम हुआ.... से मुन्नी बदनाम हुयी तक ।

ना ना .... जरा दो मिनट रुक जाइये  
पोस्ट पढ़े बिना सिर्फ टाइटिल देख कर यह मत सोंच लीजिये कि मैं किसी हालीवुड की  'XX' या 'XXX' श्रेणी की फिल्म का हिंदी रूपांतरण प्रस्तुत कर रहा हूँ या किसी भोजपुरिया फिल्म का शीर्षक अपने ब्लाग पर लगा दिया है।

वैसे भी मै वही कहता या लिखता हूँ जो मेरे दिल की बात होती है और दिल की बात कहते समय मै शब्दों पर कम अपने भावों पर ही ध्यान देता हूँ , तो जो दिल में बात उठती है वो लगभग वैसी की वैसी ही सामने प्रगट हो जाती है बिना सेंसर हुए ...
सुना है ना आपने " पर्दा नही जब कोई खुदा से , बन्दों से पर्दा करना क्या ...."

और आज तो मै "लौंडा बदनाम हुआ....से मुन्नी बदनाम हुयी" के मध्य देश और समाज में हुए विकास की भी बात करने जा रहा हूँ ....
अब आप भी सोच रहे होंगे कि "लौंडा बदनाम हुआ....से मुन्नी बदनाम हुयी" तक के जुमले का देश और समाज के विकास से क्या वास्ता....?
चलिए ज्यादा भूमिका बाँधे बिना पहले यह बताता हूँ कि आज अचानक यह विषय लेकर मै क्यों बैठ गया...

हुआ यह कि आज मै इतना त्रस्त हो गया कि मजबूरन यह पोस्ट लिखने के लिए बैठ गया....
और त्रस्त भी क्यों हुआ... हर पाँच मिनट पर मुन्नियों के बदनाम होने से ।

क्या ? आप सोच रहे है कि मै फिर शब्द जाल में उलझाने लगा...
नही नही ऐसा कदापि नही है...
वास्तव में यदि काल पात्र समय का सही से विवरण ना दिया जाय और बात को सन्दर्भ से अलग कर के एकतरफा देखा या प्रस्तुत किया जाय तो अर्थ का अनर्थ होने लगता है । और मै तो वैसे ही अनर्थकारी चर्चा छेड़ने जा रहा हूँ इसीलिए  प्रयास कर रहा हूँ कि इसमे अनर्थ की जगह अर्थ ही आप के समक्ष प्रस्तुत हो ..

आगे आपका विचार , उस पर मेरा नियंत्रण नही है ,

[ अरे जब लोकतंत्र के ज़माने के ऐ. राजा और स्थायी रोजगार की तलाश में लगे अंग्रेजो के ज़माने के दिग्गी राजा पर आज देश के सर्वश्रेष्ट शक्तिमान व्यक्तियों में शामिल सोनिया जी और मनमोहन जी का नियंत्रण नही है और जिसके जो मन में आ रहा है वो अनाप सनाप तरीके से बेधड़क  होकर कर रहा है या रात नशे में किसी पुरातन धटना से सम्बन्धित कोई सपना देख कर देश का लाभ-हानि विचारे बिना सुबह महज अपनी कब्जियत दूर करने के लिए और अपना तुच्छ राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध करने हेतु कुछ भी बेशर्मो की तरह बक दे रहा हो और वो दोनों चुपचाप तमाशबीन बने रह जाय वहां हमारा आपका एक दूसरे पर क्या नियंत्रण...? ]

तो फिर चलिए " लौंडा बदनाम हुआ.... से मुन्नी बदनाम होने तक.... हुए देश और समाज के विकास" पर सीधी बात...
आज १५ दिसम्बर की रात थी , और हिन्दू धर्म के लिए इस माह की यह आखिरी रात थी जब भोले-भाले नवयुवको को बलि-वेदी पर चढ़ाया जा सकता हो मतलब विवाह-वेदी पर बैठाया जा सकता हो, भोले-भाले नवयुवको की बात इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि आजकल बेचारे भोले-भाले नवयुवक ही घर परिवार,धर्म और समाज के कहने (उकसाने) पर बेदी पर बैठते है वरना जो भोले-भाले नहीं है वो घर-परिवार और समाज को ठेंगा दिखाकर ठसके से "लिव-इन" जैसे सम्बन्ध को अपनाने लगे हैं (हमारे ज़माने में तो जीवन साथी पाने का यह तरीका केवल अमेरिका जैसे देशो में ही था और बेचारा अपना मुल्क तब बहुत पिछड़ा हुआ था.., यह मत सोंचिये की अगर तब सुविधा होती तो मै क्या करता, यहाँ सवाल सुविधा होने और ना होने का है ) ।

तो समाज में रहने के कारण मुझे भी आज तीन-चार शादियों में शामिल होने का निमंत्रण मिला था, कहीं निमंत्रण वर पक्ष से था तो कहीं कन्या पक्ष से ।
हालाँकि आज मै अपनी रोजी-रोजगार के कार्य से कुछ ज्यादा ही थका था , साथ ही कुछ एसिडिटी की समस्या भी शायद ठण्ड की वजह से पैदा हो गयी थी और कुछ मौसम भी सर्द था जिसके कारण कुछ भी खाने का मन भी नही था तो पहले सोचा कि कहीं ना जाऊं और बाद में ना आ पाने का कोई उचित कारण खोज कर क्षमा मांग लूँगा (क्योंकि मात्र थका होना,एसिडिटी होना और मौसम सर्द होना जैसे कुल तीन कारण किसी को ????-वेदी पर चढ़ाये जाने के अवसर पर ना शामिल होने हेतु शायद पर्याप्त नही है ) मगर फिर ख्याल आया कि कम से कम कन्या पक्ष के निमंत्रण का तो आदर किया ही जाना चाहिए तो मै तैयार हो गया ।

संयोग से कार्यालय की कार और उसका चालक भी अभी साथ ही था जिससे मुझे स्वयं से ज्यादा तकलीफ भी नही करनी थी बस अपना भार उस पर ( कार पर भौतिक रूप से और उसके चालक पर मानसिक रूप से ) लाद देना था और एक जगह से दूसरी जगह उपस्थिति दर्ज कराकर वापस आ जाना था । और संयोग से मेरे एक अजीज बड़े भाई साहबान  भी साथ ही थे तो सफर में बात करने वाला भी मिल गया,फिर क्या था चल पड़े सवार और सवारी।

यात्रा की शुरुवात करते समय तक जो दुश्वारियां गिनाई वो तो थी ही अब गोरखपुर जैसे पुराने शहर की असली समस्या सामने आने लगी कि,  हर सड़क-हर गली और शायद पूरा शहर आज बारात और उसके बारातियों से जाम है , तो कार से किया जाने वाला सफ़र भी पैदल यात्रा के समान ही था और फिर जैसे ही एक बारात या मैरज-हॉउस से आगे बढ़े वैसे ही फिर अगला मिल जाय.... 

आखिर कुछ खींझ कर और कुछ अपनी बोरियत मिटाने हेतु मैंने भाई साहेब को छेड़ा "देख रहे है भाई साहेब आज भाई-बंधू और समाज के लोग कितने स्वार्थी और दूसरों के भावी दुःख में खुश होने वाले हो गए है कि बेदी पर चढ़ने जाते हुए एक मासूम के भावी परिणाम को सोच कर मारे ख़ुशी के नाच- नाच कर "चांस पे डांस" का अवसर नही खोना चाहते है ।
भाई साहेब ने भी मेरे बे-सिर पैर के दर्शन पर बजे कोई सीधी प्रतिक्रिया देने के अपने चुटीले अंदाज में एक नया ही राग छेड़ दिया कि, ध्यान दो ..! आजकल कोई बारात बिना "यह देश है बीर जवानो का,अलबेलों का,मस्तानो का..... यहाँ  चौड़ी छाती बीरो की... इस देश का यारों क्या कहना ..." जैसा जोशीला गाना सुने बिना जोश में आती ही नही है ? और कम से कम एक बार यह गाना हर बारात में बजता जरुर है ।

मै इससे पहले इसपर अपनी कोई प्रतिक्रिया देता, मुझे ध्यान आया कि पिछले पौन घंटे से हर पाँच मिनट पर जो गाना सबसे ज्यादा, बार-बार बज रहा है वो तो "मुन्नी बदनाम हुयी डार्लिंग तेरे लिए" है । और यह ध्यान आते ही मेरे मन में ख्याल आया कि पहले तो बचपन में मै जब किसी शादी-बारात में जाता था तो ज्यादातर लोग "बारात में नाचने गाने वाली नचनियों की पार्टी जिसमे शामिल महिलाओं को उस ज़माने में 'पतुरिया' कहा जाता था" को ले जाते थे और फिर पूरी रात नाच गाना चलता रहता था, वर और कन्या पक्ष दोनों तरफ के लोग खा-पी कर शुरू से अंत तक नाच गाना देख-सुन कर आनंदित होते रहते थे और उस ज़माने में वो समाज द्वारा मान्यता प्राप्त मर्यादित आचरण ही था हाँ नचनियों को ना लाना जरुर वर पक्ष को अपमानजनक स्थित में पहुंचा देता था ....

तो उस ज़माने कुछ प्रचलित गानों में में जो गाना सबसे ज्यादा प्रचलित था वो "लौंडा बदनाम हुवा नसीबन तेरे लिए" था क्योंकि वो आज भी मुझे याद है, और मुझे यह भी याद है की बचपन में मैंने किसी से इस गाने का अर्थ जब पूंछा था तो जबाब में शायद डांट ही सुनने को मिला था, गाने का अर्थ तो समय ने समझाया ।

तो दोनों गानों के बोल एक साथ जेहन में आते ही एकाएक मुझे ख्याल आया कि मेरे बचपन से लेकर अब तक वास्तव में देश और समाज ने क्या क्या प्रगति कर ली है और क्या क्या परिवर्तन हो चुके हैं ? मैंने भाई साहेब से कहा देखिये पहले की शादी-बारात और आज की शादी-बारात में क्या क्या अंतर आ गया है ...

पहली प्रगति:- पहले लौंडा बदनाम होता था और अब मुन्नी बदनाम होने लगी है ....  अर्थात पुरुष वर्चस्व समाप्त हो गया , महिला वर्ग की भी खुले आम भागेदारी सामने आने लगी है ।

दूसरी प्रगति:- 'सट्टा बंधा कर' अनावश्यक 'पतुरियों' पर पैसा खर्च कर एक-दो नाचने वालियों की जगह समाज में आये ज्यादा खुलेपन,आत्मनिर्भरता और सहयोग की भावना  के कारण अब घर-परिवार, दोस्तों के परिवार और मोहल्ले से बारात में शामिल होने हेतु सज-धज कर आने वाली भांति-भांति के उम्र की महिलाएं ही बारात में नाच कर बराती,घराती और मार्ग पर चलने वाले यात्रियों के मनोरंजन की जिम्मेदारी अपने कंधो (मतलब अपने कमर पर) ले चुकी हैं ,जिसका एक सामाजिक प्रभाव यह हुआ है कि पतुरिया जैसा भौड़ा शब्द भी कहीं ना कही अपनी मान्यता खो चुका है, और उस विरादरी को अपनी रोजी रोटी हेतु भले ही लाले पड़ गए हों पर वर पक्ष का खर्चा कम हो गया है क्योंकि नाच गाने हेतु किराये के नचनियों पर निर्भरता समाप्त हो गयी है । इस प्रगति से कृपया महिलाएं नाराज ना हों क्योंकि पुरुष तो पहले भी जन्मजात नचनिया था आज भी है ।

तीसरी प्रगति :- पहले प्राय: बेचारे घराती अपना पेट पकडे  और मुह बाँधे चुप-चाप तब तक इंतिजार करते थे जब तक बाराती ना डकार ले लें , मगर अब ज्यादातर बारात आने के पहले ही घराती डकारता है फिर जूठे-कूठे मेज , स्टाल पर बेचारा बराती भोजन करता है अर्थात घरातियों पर बारातियों की श्रेष्ठता लगभग समाप्त हो गयी है

चौथी प्रगति :- पहले बिकाऊ दुल्हे के पिता द्वारा दहेज़ मांगे जाने पर और उसे उचित मूल्य ना चुका पाने पर ना केवल कन्या का पिता वरन कन्या पक्ष के अन्य सम्मानितगण भी वर पक्ष को रिझाने-मानाने के लिए अपना शीश नवाने लगते थे, अपनी पगड़ी उतरने लगते थे, मगर अब ज्यादा मोल भाव करने पर दुल्हे, उसके पिता, भाई-बंधू और लगे हाथ बारात में शामिल बे-सहारा बाराती ( बाराती सदैव बेसहारा ही होते है.. उनका मोल केवल तब तक होता है जब तक बारात दुल्हन के घर ना पहुँच जाय, फिर सड़क के कुत्ते और लौटे बाराती में कोई अंतर नही रह जाता) भी दो पल में लतिया-जुतिया दिये जा रहे हैं , और जो मौके से भाग नहीं पाते उनका आगे का सत्कार सरकारी ससुराल में होने लगता है , तो दहेज़ की समस्या का भी कुछ-कुछ निदान हो रहा है

पाँचवी प्रगति :- जैसा की पहले ही कह चुका हूँ कि जो लोग भोले-भाले नही है, उनको इन सब बन्धनों से दूर कहीं शांति और ज्यादा खुलेपन से अभी तो भारत के मेट्रो शहरों में ही लागू लिव इन रिलेशन को अपना लेने की सुविधा मिलने लगी है, और आगे उम्मीद है कि जल्द ही पूरे देश में इसकी मान्यता मिल ही जाएगी ।

और सबसे अंत में
छठवीं प्रगति :- अब तो भारत में भी शादी करने और हनीमून मनाने हेतु एक कन्या और एक युवक के जोड़े के होने की बाध्यता समाप्त हो रही है , राजधानी के एक अदालत के मध्यम से कुछ माह पहले कानूनन अप्रत्यक्ष  रूप से सहमति देश का विधान दे ही चुका है , आगे भारत के भावी कर्णधार पूत और कुछ समाज सेवी पेट दर्द से परेशान एन.जी.ओ. उसे नवीन दिशा और मंजिल दे ही देंगे, तो पूरब और पश्चिम का अधिकांश अंतर समाप्त हो गया है और जो शेष रह गया है वो भी जल्दी ही समाप्त हो जायेगा और फिर पूरब पश्चिम से निश्चित ही हर मामले में आगे होगा

तो चलिए बात समाप्त करता हूँ , आगे मुझसे सहमत होना ना होना आपकी मर्जी ... वैसे भी मुझे इससे कभी फर्क नही ही पड़ता है.. क्योंकि मेरे कहने के पूर्व ही हम जैसो के लिए ओशो ने कह दिया था " मुझे सही समझे जाने की कोई जिज्ञासा नहीं। यदि कोई सही नहीं समझता तो यह उसकी समस्या है,उसका दुख है। मैं अपनी नींद नहीं खराब करूंगा "

अब रात भी बहुत ज्यादा हो गयी है, साथ ही कई शादियों में शामिल होने के बाद भी मुझे भूंखे पेट (एसिडिटी के कारण) सोना भी है ।..... तो नमस्कार , शुभ रात्रि

आपका अपना (यही लिखा जाता है कूटनीतिक तौर पर जबरदस्ती अपनापन दिखने के लिए)
विवेक (मिश्र..अनंत)
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

चोट

रूठ कर जब मै चला , बात तब छोटी सी थी ।
घाव भी ताजा ही था , दर्द भी ज्यादा ना था ।
चाहते उस वक्त ही , तुम रोक सकते थे मुझे ।
चोट मेरा सहलाकर , तुम बहला सकते थे मुझे ।
पर तुमने ना ऐसा किया , जाने मुझको भी दिया ।
लक्ष्य मुझको ही बनाकर , व्यंग भी तुमने किया ।


तुमने सोचा था भूलकर , दर्द मै फिर से आऊंगा ।
तेरे पत्थर दिल पर मै , अपना शीश टिकाऊंगा ।
लेकिन तुम ये भूल गए , दिल के रिश्ते नाजुक हैं ।
यदि दो पल में ये बनते है , पल में टूट भी जाते है ।
घाव सूख जाते है वो , जिनसे बहती रक्त की धारा है ।
घाव नही भर पाते वो , जो चोट शब्द के खाते है ।
(2)
हाँ सही है लौट कर , स्वयं मै नही आया कभी ।
लेकिन क्या तुमने मुझे , दिल से था पुकारा कभी ।
चाहते देकर वास्ता , सम्बन्धो का मुझे रोक लेते ।
पाँव में रिश्तों की बेडी , डाल कर तुम छेंक लेते ।
लेकिन तुमने चाहकर , कुछ भी किया ऐसा नही ।
शायद मैंने ही पत्थर को , समझा था दिल कहीं ।


मै बाट जोहता रहा सदा , तुम फिर से मुझे बुलाओगे ।
मेरे व्याकुल दिल को तुम , मीठे शब्दों से बहलाओगे ।
लेकिन तुमने भूले से भी , याद किया ना मुझे कभी ।
बस कोरम पूरा करने को , करते हो शिकवे आज अभी ।
रिश्ते केवल बातो से , चलते नही हैं यहाँ कभी ।
सूखी डालों पर पंछी , कहो रहते है कहाँ कभी ।


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शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

ओशो...

"शायद मुझे अब तक सबसे अधिक गलत समझा गया है,
लेकिन इसका मुझपर कोई असर नहीं।
कारण केवल इतना  है कि
सही समझे जाने की कोई जिज्ञासा नहीं।
यदि वे सही नहीं समझते तो
यह उनकी समस्या है, यह मेरी समस्या नहीं है
यदि वे गलत समझते हैं तो
यह उनकी समस्या है, उनका दुख है।
मैं अपनी नींद नहीं खराब करूंगा
यदि लाखों लोग मुझे गलत समझ रहे हैं।"

ओशो

वक्त..

कुछ वक्त की है तस्वीर यही ,
कुछ मेरी भी तक़दीर यही ।
कुछ वक्त की है मज़बूरी भी ,
कुछ मेरे लिए जरुरी भी ।

कुछ वक्त की है तकरीर यही
कुछ मेरी भी तक़दीर यही ।
कुछ वक्त की खानापूरी है ,
कुछ मुझसे उसकी दूरी है ।

कुछ वक्त यहाँ नासाज सा है ,
कुछ राग अलग मेरे साज का है ।
कुछ वक्त मेरा नाराज भी है ,
कुछ मैंने छुपाया राज भी है ।

कुछ वक्त मुझे अजमाता है ,
शायद वह मुझे तपाता है ।
जो भी हो यह वक्त मेरा है,
जो नही सनातन रह पाया है ।

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बुधवार, 8 दिसंबर 2010

माटी का मोल ।

साईं ने जब कह दिया , जग है माटी मोल ।
माटी से सब तौल कर , चुकता कर दो मोल ।
माटी से जब तक नही , मिलता नश्वर शरीर ।
माटी के हित प्राण की , बाजी लगता बीर ।
माटी ने पैदा किया , माटी ने है पाला हमें ।
कर्ज चुका कर माटी का , माटी में मिल जाना हमें ।

माटी का रंग बदलता है , स्वभाव बदलता कभी नही ।
ममतामयी माता की तरह , आश्रय पाते उससे सभी ।
माटी अपना धर्म निभाकर , निर्लप्त रहती जाती है ।
जीवन का यह मूल मंत्र , हमको सदा सिखाती है ।
यहाँ माटी में माटी जैसा , बनकर साईं रहता है ।
इस जग को हर पल , माटी सा ही समझता है ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

स्वप्नों का संसार अलग, अलग धरा का ठोस धरातल ।

स्वप्नों का संसार अलग ,
अलग धरा का ठोस धरातल ।
एक में मुक्त विचरता मानव ,
एक में बंध कर रहता मानव ।

ठोस धरा में बोने पर ,
बीज हकीकत का उगता ।
स्वप्नलोक में आसमान से ,
पौधा धरती पर उतरता ।

कच्चे धागों के रिश्ते ,
स्वप्नलोक में होते नही ।
ठोस धरातल पर ज्यादा ,
अनगढ़ रिश्ते चलते नही ।

ये तुम हो जिसको बढकर ,
आज फैसला करना है ।
स्वप्नलोक और ठोस धरा में ,
किसी एक को चुनना है ।

मानव की मर्यादा का ,
ध्यान भी तुमको रखना है ।
स्वप्नलोक की सभी कल्पना ,
ठोस धरा पर रचना है ।

स्वप्न-दृष्टा  से आगे बढ़ ,
युग-दृष्टा  तुमको बनना है ।
अपने निज बल से तुमको ,
स्वप्न हकीकत करना है ।।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

वंदे मातरम

वंदे मातरम
वंदे मातरम,
वंदे मातरम
सुजला सुफला मलयज-शीतलाम
शश्य-शामलाम मातरम
वंदे मातरम
शुभ्र-ज्योत्स्ना-पुलकित यामिनी
फुललकुसुमित-द्रुमदल शोभिनी
सुहासिनीं सुमधुर भाषिनीं
सुखदां वरदां मातरम
वंदे मातरम
- बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय
राष्ट्रगान
जन गण मन अधि नायक जय हे!
भारत भाग्य विधाता
पंजाब सिंध गुजरात मराठा,
द्राविण उत्कल बंग।
विंध्य हिमाचल यमुना गंगा,
उच्छल जलधि तरंग
तव शुभ नामे जागे,
तव शुभ आशिष मागे,
गाहे तव जय-गाथा।
जन-गण-मंगलदायक जय हे!
भारत भाग्य विधाता।
जय हे! जय हे! जय हे!
जय जय जय जय हे!
- रवींद्र नाथ ठाकुर
सारे जहाँ से अच्छा
सारे जहाँ से अच्छा
हिंदुस्तान हमारा
हम बुलबुलें हैं उसकी
वो गुलसिताँ हमारा।
परबत वो सबसे ऊँचा
हमसाया आसमाँ का
वो संतरी हमारा
वो पासबाँ हमारा।
गोदी में खेलती हैं
जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिनके दम से
रश्क-ए-जिनाँ हमारा।
मज़हब नहीं सिखाता
आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम वतन है
हिंदुस्तान हमारा।
- मुहम्मद इक़बाल
अरुण यह मधुमय देश
अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को
मिलता एक सहारा।
सरस तामरस गर्भ विभा पर
नाच रही तरुशिखा मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर
मंगल कुंकुम सारा।।
लघु सुरधनु से पंख पसारे
शीतल मलय समीर सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए
समझ नीड़ निज प्यारा।।
बरसाती आँखों के बादल
बनते जहाँ भरे करुणा जल।
लहरें टकरातीं अनंत की
पाकर जहाँ किनारा।।
हेम कुंभ ले उषा सवेरे
भरती ढुलकाती सुख मेरे।
मदिर ऊँघते रहते जब
जग कर रजनी भर तारा।।
- जयशंकर प्रसाद
उठो धरा के अमर सपूतों
उठो, धरा के अमर सपूतों।
पुन: नया निर्माण करो।
जन-जन के जीवन में फिर से
नव स्फूर्ति, नव प्राण भरो।
नई प्रात है नई बात है
नया किरन है, ज्योति नई।
नई उमंगें, नई तरंगें
नई आस है, साँस नई।
युग-युग के मुरझे सुमनों में
नई-नई मुस्कान भरो।
उठो, धरा के अमर सपूतों।
पुन: नया निर्माण करो।।1।।

डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ
नए स्वरों में गाते हैं।
गुन-गुन, गुन-गुन करते भौंरें
मस्त उधर मँडराते हैं।
नवयुग की नूतन वीणा में
नया राग, नव गान भरो।
उठो, धरा के अमर सपूतों।
पुन: नया निर्माण करो।।2।।

कली-कली खिल रही इधर
वह फूल-फूल मुस्काया है।
धरती माँ की आज हो रही
नई सुनहरी काया है।
नूतन मंगलमय ध्वनियों से
गुँजित जग-उद्यान करो।
उठो, धरा के अमर सपूतों।
पुन: नया निर्माण करो।।3।।

सरस्वती का पावन मंदिर
शुभ संपत्ति तुम्हारी है।
तुममें से हर बालक इसका
रक्षक और पुजारी है।
शत-शत दीपक जला ज्ञान के
नवयुग का आह्वान करो।
उठो, धरा के अमर सपूतों।
पुन: नया निर्माण करो।।4।।
- द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
ऐ मातृभूमि! तेरी जय हो
ऐ मातृभूमि तेरी जय हो, सदा विजय हो
प्रत्येक भक्त तेरा, सुख-शांति-कांतिमय हो
अज्ञान की निशा में, दुख से भरी दिशा में
संसार के हृदय में तेरी प्रभा उदय हो
तेरा प्रकोप सारे जग का महाप्रलय हो
तेरी प्रसन्नता ही आनंद का विषय हो
वह भक्ति दे कि 'बिस्मिल' सुख में तुझे न भूले
वह शक्ति दे कि दुख में कायर न यह हृदय हो
- रामप्रसाद बिस्मिल
ध्वजा वंदना
नमो, नमो, नमो।
नमो स्वतंत्र भारत की ध्वजा, नमो, नमो!
नमो नगाधिराज - शृंग की विहारिणी!
नमो अनंत सौख्य - शक्ति - शील - धारिणी!
प्रणय - प्रसारिणी, नमो अरिष्ट - वारिणी!
नमो मनुष्य की शुभेषणा - प्रचारिणी!
नवीन सूर्य की नई प्रभा, नमो, नमो!
हम न किसी का चाहते तनिक अहित, अपकार।
प्रेमी सकल जहान का भारतवर्ष उदार।
सत्य न्याय के हेतु
फहर-फहर ओ केतु
हम विचरेंगे देश-देश के बीच मिलन का सेतु
पवित्र सौम्य, शांति की शिखा, नमो, नमो!
तार-तार में हैं गुँथा ध्वजे, तुम्हारा त्याग!
दहक रही है आज भी, तुम में बलि की आग।
सेवक सैन्य कठोर
हम चालीस करोड़
कौन देख सकता कुभाव से ध्वजे, तुम्हारी ओर
करते तव जय गान
वीर हुए बलिदान,
अंगारों पर चला तुम्हें ले सारा हिंदुस्तान!
प्रताप की विभा, कृषानुजा, नमो, नमो!
- रामधारी सिंह 'दिनकर'
भारती वंदना
भारति जय विजय करे!
कनक शस्य कमल धरे!
लंका पदतल – शतदल
गर्जितोर्मि सागर – जल
धोता शुचि चरण युगल
स्तव कर बाहु अर्थ भरे!
तरु तृण वन लता वसन
अँचल में खचित सुमन
गंगा ज्योतिर्जल- कण
धवल धार हार गले!
मुकुट शुभ्र हिम – तुषार
प्राण प्रणव ओंकार
ध्वनित दिशाएँ उदार
शतमुख - शतरव मुखरे!
- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

भारतवर्ष यह भारतवर्ष हमारा है!
हमको प्राणों से प्यारा है!!
है यहाँ हिमालय खड़ा हुआ,
संतरी सरीखा अड़ा हुआ,
गंगा की निर्मल धारा है!
यह भारतवर्ष हमारा है!
क्या ही पहाड़ियाँ हैं न्यारी?
जिनमें सुंदर झरने जारी!
शोभा में सबसे न्यारा है!
यह भारतवर्ष हमारा है!
है हवा मनोहर डोल रही,
बन में कोयल है बोल रही।
बहती सुगंध की धारा है!
यह भारतवर्ष हमारा है!
जन्मे थे यहीं राम सीता,
गूँजी थी यहीं मधुर गीता।
यमुना का श्याम किनारा है!
यह भारतवर्ष हमारा है!
तन मन धन प्राण चढ़ाएँगे,
हम इसका मान बढ़ाएँगे!
जग का सौभाग्य सितारा है!
यह भारतवर्ष हमारा है!
- सोहन लाल द्विवेदी

विजय मिली विश्राम न समझो
ओ विप्लव के थके साथियों
विजय मिली विश्राम न समझो
उदित प्रभात हुआ फिर भी छाई चारों ओर उदासी
ऊपर मेघ भरे बैठे हैं किंतु धरा प्यासी की प्यासी
जब तक सुख के स्वप्न अधूरे
पूरा अपना काम न समझो
विजय मिली विश्राम न समझो
पद-लोलुपता और त्याग का एकाकार नहीं होने का
दो नावों पर पग धरने से सागर पार नहीं होने का
युगारंभ के प्रथम चरण की
गतिविधि को परिणाम न समझो
विजय मिली विश्राम न समझो
तुमने वज्र प्रहार किया था पराधीनता की छाती पर
देखो आँच न आने पाए जन जन की सौंपी थाती पर
समर शेष है सजग देश है
सचमुच युद्ध विराम न समझो
विजय मिली विश्राम न समझो
- बलवीर सिंह रंग

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

यदि इम्तहान उनका है ये , तो इम्तहान मेरा भी है ।

किसी ने क्या खूब कहा है :-

"वो बुझाये मै जलूँ , यह जुस्तजू दोनों में थी ।
इम्तहां उनका भी था , और इम्तहां मेरा भी था ।।"

आप सभी का पुन:  स्वागत है..

मै नही कहता कि मैंने  , किसी दर पर शीश झुकाया नहीं ।
पर हर दर पर फ़ौरन मुझको , शीश झुकाना भाया नहीं ।
यूँ वो भी कोई शीश है जो , हर दर पर झुक जाता हो ?
पर वो दर भी क्या दर है , जो शीश झुका ना पाता हो ?
अगर नहीं है मन में श्रधा , फिर शीश झुकाने का क्या मतलब ?
दिल में नही है चाह अगर , तो सीने से लगाने का क्या मतलब ?
मत कहना अभिमान इसे , ये तो है निर स्वाभिमान ही ।
शीश झुकाने का आडम्बर , कर सकता कोई बेईमान ही ।
हाँ कुछ दर ऐसे भी होते हैं , जिनको भाती है चाटुकारिता ।
सत्ता मद में होकर चूर , वो करते जाते हैं व्याभिचारिता ।
ऐसे दर जब मुझे झुकाना चाहेंगे , मै शीश उठाये रखूँगा ।
वो डर, भय लोभ दिखायेंगे ,  मै फिर भी सच ही बोलूँगा ।

विजय किसे मिल पाती है , वक्त ही तय कर पायेगा ।
स्वाभिमान और आडम्बर, जब आपस में टकराएगा ।
जब गरिमामय होगा दर , मै स्वयं से शीश झुकाऊंगा ।
वर्ना हर दर से मै वापस , बिना शीश झुकाए जाऊंगा ।
यह तो है एक इम्तहान , जिसे हम दोनों को देना है ।
यदि इम्तहान उनका है ये , तो इम्तहान मेरा भी है ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

सोमवार, 29 नवंबर 2010

निन्यान्वे का फेर

प्रिय मित्रो एवं ब्लॉग जगत के समस्त आदरणीय वरिष्ठ गुरुजन, यदि आप को कभी ध्यान आया हो मै अचानक ब्लाग जगत से कहाँ गायब हो गया तो लीजिये आपके सामने प्रस्तुत है वह कारण जिसने मुझे अचानक ११.१०.२०१० से निन्यान्वे के फेर में लपेट लिया और उसी समयाभाव के कारण ना तो मै अपने ही ब्लॉग पर निरंतरता के साथ कोई पोस्ट लगा सका ना ही आप स्नेहीजनो के ब्लाग पर आ सका, क्या करे एक तो निन्यान्वे का फेर ही ऐसा होता है जो अच्छे अच्छो को लपेट लेता है (मेरी तो बिसात ही क्या.. जाने कितने बादल आये गरजे बरसे चले गए... मै भी एक छोटा सा बादल.......) और फिर दूसरे मै अपने स्वाभाव से भी मजबूर हूँ कि जो काम अपने जिम्मे लेता हूँ उसे करता हूँ तो अपना पूरा जी जान लगाकर करता हूँ वरना नही करता हूँ फिर चाहे जो हो जाय ...
खैर एक नजर आप भी इस कारण पर डाल लें.... इससे बेहतर (इस तरह का) कोई और कारण ना तो पूर्व में कभी आया होगा ना शायद निकट भविष्य में आने वाला है...   तो यदि आप भी इसके फेर में पड़ने के फ़िराक में हो तो मुझे जरुर बताये शायद मै आपकी कोई मदत करने का दुस्साहस कर सकूँ..
Sahara Comosale ... An Uniq MLM...Intro

रविवार, 28 नवंबर 2010

आसान नहीं है...

आसान नहीं है हर एक पल, अपने मन माफिक जी लेना ।
दुःख-सुख के सम्मिश्रण को , विचलित हुए बिना पी  लेना ।
कभी इतराना - बल खाना , पतंग बंधी हो डोर में जैसे ।
फिर बेसुध होकर गिर जाना , कटी पतंग हो कोई जैसे ।
कभी सागर की लहरें सा  , बनकर ज्वार मचल जाना ।
फिर टकराकर तट से , अपने आवेगों पर संयम पाना ।

कभी अकड़ना ऐसे जैसे , तुंग हिमालय की चोटी हो ।
कभी पिघलना ऐसे जैसे , हिम गंगा तुमसे बहती हो ।
कभी उठाना शीश शान से , पेड़ खजूर के रहते जैसे ।
पल में शीश झुकाना फिर , बौर लगी हो आम में जैसे ।
आसान नहीं है हर एक पल , अपने मन माफिक जी लेना ।
हर पल जो यहाँ बीत रहा, उसे अपने मन माफिक कर लेना ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 24 नवंबर 2010

सभ्यता की ओंट में

सभ्यता की ओंट में ,
कब तक चलेगी क्रूरता ।
पाखंड के व्यापार में ,
कब तक टिकेगी सभ्यता ।

जब धर्म के नाम पर ,
हो रहा व्यापार है ।
तब बचेगा धर्म कब तक,
बाजार के वो हाथ है ।



जब अमन के नाम पर ,
हो रहें है युद्ध सब ।
हैवानियत की भीड़ में ,
कब तक बचेगी इंसानियत ।


जब न्याय की ओंट में ,
हो रहा अन्याय है ।
न्याय के मंदिरों में ,
कब तक बजेगी घंटियाँ ।


मानवता के नाम पर ,
हर तरफ दानवता है ।
दानवों के बीच में ,
कब तक बचेगी मानवता ।
 © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

प्रतिकार

जाते हो तो जाओ प्रिये , मै कब तक तुमको रोक सकूँगा ।
प्रीति नही जब मुझसे तुमको , कब तक तुमको बांध सकूँगा ।
प्रीति बढाई जाती उससे , जिसको प्रीति निभाना आता ।
उसको क्या मै प्रीति सिखाऊ , जो बैरागी बनने जाता ।
ज्यों बिन बरखा के बादल , गरज-बरस कर चले गए ।
तुम भी आये पल-दो पल , फिर अंजानो सा चले गए ।

जब तुम्हे नहीं परवाह हमारी , क्यों मै ही तुमको याद करूँ ।
जब तुम मुझको बिसराते हो ,  फिर क्यों कोई फरियाद करूँ ।
ऐसा भी नही है यह जीवन , तुम बिन मुश्किल हो जायेगा ।
जब वक्त की धारा बदलेगी , हर घाव एक दिन भर जायेगा ।
जब प्रीति की आस जगायी  है , नया मीत हमें मिल जायेगा ।
तेरे बिन  भी जीवन पथ पर , एक जीवन साथी मिल जायेगा ।


जब जाते हो तो जाओ प्रिये , अब क्यों मै तेरी आस लगाऊं ।
तेरे दुःख में अपना जीवन  , अनंत काल तक क्यों भटकाऊं  ।
क्यों ना तेरे जाते ही मै , सुन्दर से किसी बाग में जाऊं ।
मदमस्त हवा के झोंको को , कोई सुन्दर गीत सुनाऊं  ।
अपना पराया भूल सभी को , नव आमंत्रण मै भिजवाऊं ।
भूतकाल को भुला कर अपना , वर्तमान मै पुन: सजाऊं ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

मेरा सच

आग और पानी का , नहीं मेल होता है ।
सदा सच बताना , नहीं खेल होता है ।
 दिलों में सभी के , कुछ अरमान होते हैं ।
कौन कहता है यहाँ , सब बेईमान होते है ।
मिलन क्या जरुरी है , अगर साथ चलना हो ?
शब्द क्या जरुरी है , अगर बात कहना हो ?

नदी के तटों का  , होता एक रिश्ता है ।
भावना के तल पर , नहीं कोई पिसता है ।  
बराबर का दोनों को , अधिकार होता है ।
आपस में उनके भी , कुछ प्यार होता है ।
कुछ ऐसा ही मेरे मन में , उदगार होता है ।
मेरी नज़रों में जिसका , सदा इजहार होता है ।

अगर तुम समझ पाओ , रिश्तों की जटिलता ।
नहीं तुम कहोगे इसे , मन की मेरे कुटिलता ।
मुझे मेरी सीमाओं का , एहसास है सदा ही ।
मगर क्या तुम्हे मुझपर , विश्वास है जरा भी ।
करके साहस तुम सदा , खुला सच मुझसे कहना ।
नजरें बचाकर मुझसे तुम , ना कभी संग मेरे रहना ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

सोमवार, 1 नवंबर 2010

एकै साधे सब सधे

साथियों
              आज हर तरफ भ्रष्टाचार,लूट-घसोट  का बोलबाला है, हर कोई इससे व्यथित है। जिसको देखो वही कहता है कि फलां विभाग में बड़ा भ्रष्टाचार,लूट-घसोट का बोलबाला है मगर उसी व्यक्ति जब उसके अपने कार्य-क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार,लूट-घसोट के बारे में पूंछो तो वो अपना मुह घुमा लेता है या मात्र मुस्कुराकर रह जाता है ।

प्रशासन से लेकर शासन तक के सभी जिम्मेदार अधिकारी,पदाधिकारी सदैव यही कहते है कि वो लगातार (नीचे व्याप्त) भ्रष्टाचार को कम करने का प्रयास कर रहें है मगर भ्रष्टाचार है कि कम होने का नाम ही नहीं लेता है।
आखिर क्यों ?
कहाँ किस स्तर पर कमी रह जा रही है भ्रष्टाचार का नाश करने में ?
कहीं हमारा प्रयास " पर उपदेश कुशल बहुतेरे " वाला तो नहीं है ?

तो जनाब
ये जगत का नियम है कि धारा प्रवाह की दिशा सदैव ऊपर से नीचे की तरफ होती है।

अत: यदि श्रोत निष्कलंक हो तो मध्य या अंत में चाहे जितना मिलावट क्यों ना हो जाय , पूरी धारा को कभी पूर्णतया कलुषित नहीं किया जा सकता है क्योंकि पवित्र उदगम लगातार नयी उर्जा , नयी शक्ति और पवित्रता का प्रवाह करता रहता है जिसके संचरण से मार्ग में होने वाले परिवर्तन कभी स्थाई स्वरुप नहीं लेने पाते है ।

परन्तु

यदि उदगम ही दूषित,जहरीला हो जाय तो पूरी धारा दूषित हो जाएगी और कोई लाख कोशिश  करे,वो कछारों पर पवित्रता नहीं बनाये रख सकता क्योंकि वो उदगम का स्वरुप नहीं बदल पायेगा ।

और ये सिद्धांत केवल नदी, झरनों पर ही नहीं वरन मानव समाज पर भी लागू होती है ।

अत: यदि भ्रष्टाचार को समाप्त करना है तो देश,समाज,धर्म  के शीर्ष  शिखर पर बैठे लोगों को पहले अपनी पवित्रता बनाये रखना होगा और फिर कहा गया है कि "एकै साधे सब सधे,सब साधे सब जाय" ।


                                                     © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

रविवार, 24 अक्टूबर 2010

जो गिद्ध हैं प्रसिद्ध हैं, हम इन्सान हैं इसलिये परेशान हैं।

दोस्तों,
कुछ साल पहले की बात है, मै कुछ परेशान था, कुछ हैरान था, काम मै करता हूँ प्रसिद्ध कोई और पा जाता है। और फिर एक दिन मुझे मेरे गुरु ने बताया :-

जो गिद्ध हैं प्रसिद्ध हैं, हम इन्सान हैं इसलिये परेशान हैं"

उक्त गिद्ध ज्ञान को जान कर वास्तव में मेरी सभी चिंता परेशानी तिरोहित हो गयी और फिर मैंने तत्काल जगत कल्याण हेतु, गिद्ध ज्ञान साहित्य में इजाफा करने एवं माननीय गिद्धजनो से अपने राजनय सम्बन्ध मधुर करने हेतु कुछ लिखने का प्रयास किया था उसे पुन: आप लोगों के सामने इस आशय से प्रस्तुत कर रहा हूँ-

"भले ही एस.एम.कृष्णा एवं शाह महमूद कुरैशी आज तक 'भारत' और 'ना-पाक'के मध्य बेहतर राजनय सम्बन्ध बना पाने में अ-सफल रहे हो" पर शायद इससे हमारे और आपके राजनय सम्बन्ध बेहतर हो सकें -

जब जान रहे हो तुम जग में , गिद्ध ही होता सदा प्रसिद्ध ।
पूंछ रहे हो फिर क्यों मुझसे, क्यों सबसे ज्यादा गिद्ध प्रसिद्ध ?

लो सुनो आज बतलाता हूँ , मै तुमको राज सुनाता हूँ।
है गिद्ध की दृष्टि बहुत प्रबल , वह मौका सदा ताकता है।

मौका मिलते ही सबको , निश्चल मन से खा जाता है ।
बैर भाव या मैत्री जैसे , मन में भाव नहीं वो लाता है ।

उसके लिए जगत के सारे, प्राणी सब एक समान हैं ।
उसके लिए दुखों के क्षण भी, सुख के ठीक समान हैं।

लाभ अगर दिख जाय उसे, वह आगे सबसे आ जाता है ।
मौका मिलते ही वह पूरा, कूरा(हिस्सा) चट कर जाता है ।

बाट जोहने वालो को वह , खाली ठेंगा दिखलाता है ।
पता निशां भी पीछे अपने , नहीं छोड़ कर जाता है ।

अंतर्यामी होता हैं वह , और तीनो कालों का वो स्वामी ।
भूत भविष्य और वर्तमान का , मानव केवल अनुगामी ।

पहले भी बतलाया था , फिर से गिद्ध राग सुनाता हूँ ।
देकर ज्ञान सभी को यूँ ही , जग में प्रसिद्ध करवाता हूँ ।

सुनकर गिद्ध ज्ञान मानव , मुक्त दुखों से हो जायेगा ।
पुनर्जन्म लिए बिना जब , मानव-तन में गिद्ध समाएगा ।
जय हो बाबा गिद्धनाथ की............

गिद्ध साहित्य का प्रचार प्रसार पुन: आगे फिर होगा..
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

धुआं उठना चाहिए ।

छोड़ने को जगत क्यों , हो रहे अधीर हो ।
हाथ खाली है अभी , बनने जा रहे दानबीर हो ।
जो है नही तेरा अभी , कैसे बाँट दोगे और को ।
हाथ में आये बिना , कैसे छोड़ दोगे सार को ।
पहले जानो अर्थ स्वयं , फिर कहो किसी और से ।
छोड़ कर भागो नही , यूँ डर कर किसी और से ।

माना तमस में जी रहे , यह ज्ञात होना चाहिए ।
व्यर्थ में अर्थ का , नही अनर्थ होना चाहिए ।
है उठाना यदि धुआं , तो अंगार होना चाहिए ।
या राख के नीचे दबी , कुछ आग होनी चाहिए ।
और कुछ गीली लकड़ियाँ , जो सुलगती रह सके ।
ना बुझ सके पूरी तरह , ना धधकती रह सके ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

सामंजस

तारो को ढीला रखने से ,
स्वर वीणा के नहीं निकलते हैं ।
ज्यादा कस दो तारो को ,
तो कर्कश स्वर ही निकलते हैं ।

तारो को खींचो उतना ही ,
जिस पर हो स्वर का सामंजस ।
ना बंहके कोई स्वर लहरी ,
ना साज लगे कानो को कर्कश ।
.....to be finished
हैं भांति भांति के लोग यहाँ ,
और जगत भरा विबिधता से ।
ना भूल कर पशु सा समझ उन्हें ,
तुम सबको हांको लाठी से ।

मानव भेद पर आधारित ,
हैं साम-दाम-दण्ड-भेद बने ।
फिर ब्रह्मण-क्षत्रिये वैश्य-शुद्र ,
जैसे जटिल जाति विभेद बने ।

हर मानव की अपनी क्षमतायें ,
हर एक की अलग मनोस्थिति है ।
हर एक की गति और दिशा अलग ,
हर एक का अपना सामंजस है । 
 शायद पूरा हुआ २१/१०/२०१०
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

शब्दों का संसार

प्रिय स्नेही जन
पूर्व में भी एक शब्द बाण व्योम में छोड़ा था,
उसी कमान से ये दूसरा बाण भी निकल रहा है ,
भाव वही पुराना है बस शब्द शक्ति का अंतर है.....
शायद तब जो कहने से छूट गया हो , उसको ये साध सके.........

ध्यान रखो शब्दों का , और उनसे निकलते भावों का ।
जाने कब किस मोड़ पे , वो अर्थ बदल दे बातों का ।
है शब्दों का संसार अनोखा , देते हैं अक्सर ये धोखा ।
ये कभी गिराते दीवारे , तो कभी खीचते लक्ष्मण रेखा ।
हैं कभी महकते फूलों सा , चुभ जाते कभी ये शूलो सा ।
कभी पल में बनते सेतुबंध , कभी हो जाते हैं  खाई सा ।

हर एक शब्द के अर्थ कई , उनसे ज्यादा अनर्थ कई ।
तुम जपो राम का नाम भले , वो समझेंगे है मरे कई ।
सन्दर्भ अगर दे साथ छोड़  ,  तो समझो हुयी प्रलय कहीं ।
कब बात बतंगण  बन जाये , कहो लगता उसमे समय कहीं ।
हाँ मीठे वचन भी औरों के , हैं चुभे तीर के भांति कभी ।
तो मन को दिलासा दे जाये , व्यंग में बोली बात कभी ।

तो सोच समझ कर शब्दों का , जिह्वा से करो प्रयोग सदा ।
यहाँ जहर घुला हवाओं में , कर देती विषाक्त वो बात सदा ।
उस पर यदि शब्द भी तीखे हों , हो ना सकेगी काट कभी ।
बिन छेदे छाती औरों की , वो होगी व्यर्थ ना बात कभी ।
अस्त्र-शस्त्र से लगे घाव , भर जाते हैं उपचारों से ।
शब्द भेद से बने घाव , नहीं मिटते मन के द्वारो से । 
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सोमवार, 18 अक्टूबर 2010

अपने वश की बात नहीं...

कहो सोचकर अंजाम को , मैं कैसे पीछे हट जाऊँ ।
भूलकर वादों को अपने , कैसे नजर से गिर जाऊँ ।

नजर झुका कर चलते रहना , अपने वश की बात नहीं ।
कहे गए शब्दों से डिगना , अपने वश की  बात नहीं ।
जीवित रहना इमान बेचकर , अपने वश की बात नहीं ।
यूँ गैरों के तानो को सुनना , अपने वश की बात नहीं ।

ये बात अलग है पत्थर से , पत्थर बन कर मिलता हूँ ।
रिश्तों के व्यापारी से , मोल मै अपना करता हूँ ।
पर
लेकर मोल बदल जाना , ये अपने वश की बात नहीं ।
सौदों से रिश्तों को भुलाना , अपने वश की बात नहीं ।
जबरन ताकत से झुक जाना , अपने वश की बात नहीं ।
अपने मन की ना कर पाना , अपने वश की बात नहीं ।
modified again..19/10/10
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शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

कार्य और कारण

कार्य और कारण में ,
सदा सामंजस होता है ।
बिना कारण कोई कार्य ,
कहाँ धरा पर होता है ।
हम कहें भले है कार्य अकारण ,
सोंचो क्या यह सच होता है ?
क्या अंतर-मन का भाव हमारा ,
कार्य का कारण नहीं होता है  ?
ये सच है पूर्व नियोजित कारण ,
हर कार्य का कारण नहीं होता है ।
लेकिन जग में कोई कार्य ,
नहीं बिना अकारण होता है । 
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

सब कुछ है, कुछ भी नहीं...

सब कुछ है, कुछ भी नहीं , मूरत है प्राण नहीं ।
मानव है इन्सान नहीं , मंदिर है भगवान नहीं ।
चार दीवारे ऊपर छत , लेकिन घर का आभास नहीं ।
मोटे मोटे धर्म ग्रन्थ हैं , जिनमे धर्म का सार नहीं ।
गली गली विद्द्यालय हैं , जहाँ शिक्षा का मान नहीं ।
गुरुजन हैं बहुतेरे मगर , विद्दया का देते दान नहीं ।

अगणित पण्डे और पुरोहित, सही कर्म कांड का ज्ञान नहीं ।
शासन सत्ता सभी यहाँ , पर नीति नियम का ध्यान नहीं ।
अधिकारों के पालन कर्ता, हैं अधिकारी अधिकार नहीं ।
लोकतंत्र का राज यहाँ , पर जनता का सम्मान नहीं ।
न्याय पालिका स्वतंत्र यहाँ , जो करती पूरा न्याय नहीं ।
कलयुग की ये है माया , सब कुछ है पर कुछ भी नहीं ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

सोमवार, 11 अक्टूबर 2010

लक्ष्मण रेखा

युगों - युगों पहले जब , जब राम थे वनवास में ।
मृग रूप धर मारीच ने , करना चाहा था धोखा ।
कहते है तभी द्वार पर , लक्ष्मण ने खींची थी रेखा ।
उसे रावण भी लाँघ न पाया, ना भंग उसे कर पाया ।
फिर जाल बिछाकर शब्दों का , सीता को उसने उलझाया ।
आ जाओ बाहर रेखा के , यही सीता को उसने समझाया ।
तब से लक्ष्मन रेखा को , फिर जिस नारी ने पार किया ।
ना लौट सकी वो घर वापस , घर को अपने बर्बाद किया ।
दीवार नहीं है लक्ष्मण रेखा , जो खींची जाती हर युग में ।
मर्यादाओं  की परिधि है ये , जिसमे सुरक्षित है नारी सदा ।
ये बंधक नहीं बनाती है , बस बुरी नीयति से ये बचाती है ।
त्रेता युग से कलयुग तक , सदा अपना कर्त्तव्य निभाती है । 

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

रविवार, 10 अक्टूबर 2010

पुराने यार


कल शाम एक महफ़िल में , मिल गए पुराने यार मेरे ।
कुछ मझे हुए व्यापारी थे , कुछ थे नेता अब यार मेरे ।
कुछ बने धर्म के वाहक थे , कुछ सत्ता के अधिकारी थे ।
कुछ चौखम्भे के रक्षक थे , कुछ उनमे बहुत जुगाड़ी थे  ।
जब छिड़ी बात मर्यादा की , वे सब मिलकर कहने लगे........
जीने की कला हम भूल गए , मरने की कला क्या याद करें ।
स्वयं भिखारी हैं जग में , फिर त्याग की क्या हम बात करें ।
जब बेंच रहे सब अपने को , फिर धर्म का क्यों ना मोल धरें ।
जब हाट लगा हर ओर यहाँ , फिर क्यों कर हाथ पे हाथ धरें ।

जब बात चुभी मेरे सीने में , तब ओंठ मेरे स्वयं बोल उठे......

हाँ ठीक कहा ये तुमने भी , तुम स्वयं क्यों सबसे अलग रहो ?
जब बेंच रहे ईमान सभी ,  फिर क्यों तुम पीछे जग में रहो ?
ये देश धर्म और मानवता , यूँ ही सदियों से बिकते आये हैं ।
तुम जैसे ही जाने कितने , घुन लोग यहाँ भर पाये हैं ।
तुम भी आत्मा बेंच कर देखो , क्या क्या वो सुख पाये हैं......
ये बात अलग है इस जग में , अब भी कुछ पागल रहते हैं ।
जो राष्ट्र धर्म और मानवता हित , सर्वस निछावर करते हैं ।
देकर प्राणों का उत्सर्ग सदा , वो मृत्यु का मान बढ़ाते  हैं ।
पल दो पल की खातिर तो , वो जीने की कला बताते है ।।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


क्रिएटिव कामन लाइसेंस
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