जाने कैसी तपिश है , वर्षो से मन में मेरे ।
गीली लकड़ी सी सुलगती , ये सदा मन में मेरे ।
चाहता हूँ मै बुझा दूँ , एक पल में बस इसे ।
पर रोंकता है मन मेरा , जाने क्यों इससे मुझे ।
हो गयी आदत मुझे , शायद पुराने रोग की ।
या अभी भी है जरूरत , व्यर्थ के कुछ ढोंग की ।
जो भी हो अच्छी नहीं , मन में सुलगती चाहते ।
बस छोड़ देनी चाहिए , अब सारी पुरानी आदते ।
रोग बन जाये अगर , तन-मन की कोई जरूरत ।
फिर नहीं किसी बाहरी , शत्रु की कोई जरूरत ।
ज्वार का धर रूप जब , मुझको बहा ले जाये लहरे ।
उससे पहले जाना होगा , छोड़ कर अठखेलती लहरे ।
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