देवता बनने की चाहत , क्यों छुपाये मन में हों।
ठीक से देखो जरा , क्या मनुज बन पाये हों ?
लोभ के दलदल में , तुम धंसे हों इस समय ।
वासना के जाल को , काट पाये किस समय ?
जब लूट कर गैरों को , बाँटते अपनो में हों ।
फिर पाप के बीज से , चाहते क्यों पुण्य हों ?
कलुषित है मन अगर , व्यर्थ है चन्दन का टीका ।
कर्म अगर विपरीत हों, प्रवचनों का है मर्म फींका ।
केवल पोथी रटकर ही, धर्म का अर्थ है किसने जाना ?
छुधा कहाँ मिट पाती है , बिना पेट में जाये दाना ??
दौड़ जीतने के पहले , तुम्हे सीखना होगा चलना ।
देवतुल्य बनने से पहले, दानव से मानव है बनना ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
2 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर प्रस्तुति........नइ सोच
सही कहा……………सुन्दर प्रस्तुति।
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