"साम दाम और दंड भेद, हैं चार विधाए संचालन की
इनसे ही चलता आया , मानव सदा पुरातन से ।"
वेदों में लिखा है "साम दाम और दंड भेद" वह अचूक मन्त्र हैं जिससे तीनों लोकों के महिपलों , दसों दिशावों के लोकपाल , समस्त महिपाल एवं उनके अधीन समस्त भू-पाल एवं सामान्य जान को अपने अधीन करने में समर्थ है।
जी हाँ मनु कि समस्त सन्ताने चाहे वो हिन्दू हों, मुसलमान हों, सिख हों, ईसाई हों, यहूदी हों, जैन हों, बौध हो या उनका कोई भी धर्म ना हों और वो परम नास्तिक ही क्यों ना हों और उनकी संख्या कुछ भी हों सभी पुरातन काल से वर्तमान तक इन्ही चार विधावों से सदा संचालित और नियंत्रित होते आयें है।
यह सत्य है कि हर काल खंड और देश-काल का अलग रहन सहन और नियम विधान होता है मगर चाहे वो भूत काल रहा हों या वर्तमान हों चाहे वो भारत हों या पाकिस्तान , चाहे अमेरिका हों या यूरोप 'साम दाम और दंड भेद' ही समस्त जन और समाज को नियंत्रित और संचालित करता आया है और करता रहेगा।
"साम दाम और दंड भेद हैं चार विधाए शासन की
ये अमोघ अस्त्र है जन मानस के संचालन की । "
इसमें कुछ भी नया नहीं है, ये चिर पुरातन नियम है ।
मगर
"साम दाम और दंड भेद" चतुर्मुखी हथियार है जो जन मानस के संचालन हेतु तभी अमोघ है जब इनका प्रयोग सजगता से किया जाय। ये मानव द्वारा प्रयोग किये जाने के अस्त्र हैं ना कि किसी मशीन के द्वारा। इसका प्रयोग कब, कहाँ,किस पर और किसके द्वारा किया जा रहा है उसके आधार पर निर्धारित किया जाता है कि इसके किस मुखाग्र से प्रहार किया जाय। इन्हें अचूक बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि इनका प्रयोग किये जाते समय काल पात्र और स्थान का ध्यान रखा जाय। क्योंकि ये चारो अस्त्र सदैव एक सामान सभी पर प्रभावी नहीं होते है ना ही सभी व्यक्ति इसे समस्त रूपों में चलने के योग्य होते है ।
यदि 'साम' से कोई समाज संचालित होता है तो कभी उसपर नियंत्रण हेतु 'भेद' का नियम अपनाना होता है ,
कभी 'साम और भेद' का प्रयोग असफल होने पर 'दाम' का लोभ दिखाना पड़ता है तो कभी "साम दाम और भेद" तीनो के असफल होने पर दंड का भय दिखाना पड़ता है।
ध्यान रखें :- 'साम' श्रेष्टतम है , 'दाम और भेद' मध्यम और 'दंड' निकृष्टतम कोटि का अस्त्र है।
जो समूह 'साम' से संचालित हों रहा हो वहां अन्य का प्रयोग करने से साम धीमे-धीमे अप्रभावी होने लगता है।
जहाँ 'दाम' का लोभ देने पर समाज पतित होता है, 'भेद' से समाज विघटित होता है और लम्बे अवधि के 'दंड' से बिद्रोही हो जाता है।
और जब 'साम' अप्रभावी हों जाय तो पहले भेद को अपनाया जाना चाहिए (जिससे दाम भी बचा रहे और समाज पतित भी ना हो) क्योंकि विघटित समूह और समाज प्राय: तेज प्रगति करते है और उनके आगे पुन: एक होने कि संभावना बनी रहती है मगर पतित तेजी से और पतन की और बढता है और उसका वापस लौट पाना मुश्किल होता है।
और अंत में जब पूर्व के तीनो से काम ना बने तो... दंड है ही।
और कुछ लोग दंड भय से ही चलते है जैसे - बाबा तुलसीदास जी ने कहा है-
'सूद्र,गंवार,ढोल,पशु,नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी'
हालाँकि कुछ लोग उपरोक्त पाँच में सूद्र और नारी के नाम पर नाराज हो जाते है और कहते है की वास्तव में सूद्र और गंवार दो ना होकर एक ही अर्थात गँवार-सूद्र (सूद्र जो पड़ा लिखा ना हो) एवं पशु नारी अलग-अलग ना होकर 'पशु नारी' है अर्थात वो नारी जो पशु सामान हो 'जैसे रामचंद्र जी के ज़माने की ताड़का' समझा जाना चाहिए। इस प्रकार इनकी संख्या पाँच से तीन ही रह जाती है। मगर पुन: कुछ लोग को इसमे पशुवों को हटाने और किसी भी प्रकार की नारी को शामिल करने पर आपत्ति है और वो पशु को अलग और नारी का संधि बिच्छेद कर नार+अरि=जो नारी का शत्रु हो कहते है। खैर अभी इस विवाद पर विस्तार से चर्चा करने का मन नहीं है अतः: जो बाबा ने कहा हो वो जाने जो , जो बच्चो को समझाना हो वो समझे ..........!
समूह के साथ ही "साम दाम और दंड भेद" के व्यक्तिगत प्रयोग में भी उपरोक्त सावधानी बरती जानी आवश्यक है क्योकि-
प्रत्येक व्यक्ति एक समान नही होते है, भगवान ने सभी को अलग-अलग बनाया है, भले ही हम उन्हें समूह में कितना ही अभ्यास कराकर एक जैसा बनाने की कोशिश करें मगर आतंरिक मनोभाव, आचार विचार और सोंचने का तरीका अलग-अलग ही रहता है। कौन सा व्यक्ति किस प्रकार के अस्त्र और उसकी कितनी मात्र के प्रयोग से नियंत्रित होगा और किस मात्रा और किस अस्त्र के प्रयोग के बाद वो पूरी तरह से अनियंत्रित, बिद्रोही, पशु समान अथवा मूक बधिर, निर्जीव बन जायेगा इसका ध्यान रखा जाना जरुरी है और एक बेहतर शाशक/प्रबंधक वही है जिसको इस बात का सदैव घ्यान रहता है ना की वो जो अपने सत्ता के घमंड में जबरन एक ही तरह से सबको हांकने की कोशिश करता रहे।
अतः प्रबंधन के चार सूत्र 'साम दाम और दंड भेद' का प्रयोग करें परन्तु संयम और सजगता के साथ....!
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