कर्म के सिद्धांत में , ना धर्म को जोड़ो कभी ।
धर्म की राह से, ना कर्म को मोड़ो कभी ।
कर्म है तन की जरुरत, धर्म मन की भूँख है ।
कौन है इसमें बड़ा, ये प्रश्न ही एक भूल है ।
वृक्ष पहले था यहाँ, या बिज से है वृक्ष बना ।
धर्म सिखलाता कर्म है, या कर्म से है धर्म बना ।
भाग्य को ना कर्म से, ना धर्म से तोलो कभी ।
वो कर्म का अवशेष है , और धर्म में ही शेष है ।
है जटिल सिद्धांत ये , यदि तुम इसे समझो नहीं ।तीन दिशाएं त्रिभुज की , बीच में हों तुम कहीं । १६/०६/२००४
"चल पड़े मेरे कदम, जिंदगी की राह में, दूर है मंजिल अभी, और फासले है नापने..। जिंदगी है बादलों सी, कब किस तरफ मुड जाय वो, बनकर घटा घनघोर सी,कब कहाँ बरस जाय वो । क्या पता उस राह में, हमराह होगा कौन मेरा । ये खुदा ही जानता, या जानता जो साथ होगा ।" ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
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बुधवार, 21 जुलाई 2010
धर्म, कर्म और भाग्य त्रिकोण
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आभार..
मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "
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