हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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बुधवार, 21 जुलाई 2010

धर्म, कर्म और भाग्य त्रिकोण

कर्म के सिद्धांत में , ना धर्म को जोड़ो कभी । 
धर्म की राह से, ना कर्म को मोड़ो कभी ।

कर्म है तन की जरुरत, धर्म मन की भूँख है ।
कौन है इसमें बड़ा, ये प्रश्न ही एक भूल है ।

वृक्ष पहले था यहाँ, या बिज से है वृक्ष बना ।
धर्म सिखलाता कर्म है, या कर्म से है धर्म बना ।

भाग्य को ना कर्म से, ना धर्म से तोलो कभी ।
वो कर्म का अवशेष है , और धर्म में ही शेष है ।

है जटिल सिद्धांत ये , यदि तुम इसे समझो नहीं ।
तीन दिशाएं त्रिभुज की , बीच में हों तुम कहीं । १६/०६/२००४

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आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

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