प्रगति है सच्ची वही , जिसमे निरंतरता रहे ।
कल-कल बहती हुयी नदी सी, निर्मल स्वच्छ धारा बहे।
रुक गयी धारा अगर , विषाक्त हो जायेगा जल।
संचित हुए सब पुण्य का , खर्च हो जायेगा फल।।
चाहे प्रगति हो राष्ट्र की , या हो प्रगति वह धर्म की ।
चाहे प्रगति हो सामूहिक , या हो प्रगति निज लाभ की ।
शांति और सुख है वहीँ , संतुष्टि हो मिलती जहाँ ।
संतुष्टि होती है वहीँ , निरंतर प्रगति होती जहाँ।।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें