हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

पछतावा

सोंचता होगा खुदा भी , क्यों बनाया इस जहाँ को ।
जानवर तक ठीक था , पर क्यों बनाया आदमी को ।
आदमी तक ठीक था , क्यों दिया उसे बुद्धि इतनी ।
बुद्धि तक भी ठीक था , क्यों किया उसे शुद्ध इतनी ।
छोड़ कर इंसानियत , अब वो देवता बनने चला ।
अपनी हकीकत को भुलाकर , स्वांग है रचने लगा ।

जन्म देने वो लगा , विज्ञान से आदमीं ।
नष्ट करने वो लगा , प्रकृति की सादगी ।
है उतारू तोड़ने को , सारे जहाँ का संतुलन ।
जाने क्या है सोंचता , पढ़ नहीं पाता मै मन ।
अब तो मुश्किल होती है , पहचानने में श्रृष्टि अपनी ।
सोंच कर पछता रहा हूँ , जो हुयी थी भूल अपनी ।


© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

Kailash Sharma ने कहा…

bahut sundar aur vicharniya abhivyakti....

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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