हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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मंगलवार, 21 सितंबर 2010

नियति निगोड़ी

रूठो ना तुम मुझसे प्रियवर , नहीं दोष इसमें मेरा ।
आ जाऊंगा लौट के मै , जैसे होगा नया सबेरा ।
मै भी आहत हूँ बाणों से , जो नियति के हाथों छूटे हैं ।
घायल है मेरा अंतरमन , कुछ अपने भी मुझसे रूठे है ।
तन तो शायद सह जाता , मन नहीं चोट सह पाया है ।
कुटिल नियति की चालो ने , हमको बहुत सताया है ।

सोंचा था कुछ बातें होगी , गीत सुनेगें तुमसे हम ।
बाँहों में तुमको भरकर , सुन्दर सपने देखेंगे हम ।
लेकिन नियति निगोड़ी को , स्वीकार नहीं है ख़ुशी हमारी ।
रात चांदनी आती उससे , पहले आ गयी जाने की बारी ।
बनकर सौतन तेरी वो, जबरन मुझे बुलाती है ।
मुझको मेरे कर्तव्यों की , सौगंध याद दिलाती है ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

वीना श्रीवास्तव ने कहा…

मुझको मेरे कर्त्तव्यों की सौगंध याद दिलाती है...

मन को छूने वाली पंक्ति...कर्त्तव्य ही याद रहे तो फिर फसाद काहे के....

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

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आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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