जीवन की अभिलाषाओं का , कितना ही हम मान करे ।
उन्हें पूर्ण करने के खातिर ,कितना ही हम कार्य करे ।
जीवन की अभिलाषाए कब ,किसकी पूर्ण हुयी अब तक ।
कहाँ अंत होता है इनका , हम कितना ही उन्माद करे ।
रक्तबीज सी ये रहती जन्मती , रावण जैसी ये अमर रहे ।
सदा बसी रहती ये मन में , कितना ही हम त्याग करे ।
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
अच्छी कविता लिखे हैं
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