पोस्ट पढ़े बिना सिर्फ टाइटिल देख कर यह मत सोंच लीजिये कि मैं किसी हालीवुड की 'XX' या 'XXX' श्रेणी की फिल्म का हिंदी रूपांतरण प्रस्तुत कर रहा हूँ या किसी भोजपुरिया फिल्म का शीर्षक अपने ब्लाग पर लगा दिया है।
वैसे भी मै वही कहता या लिखता हूँ जो मेरे दिल की बात होती है और दिल की बात कहते समय मै शब्दों पर कम अपने भावों पर ही ध्यान देता हूँ , तो जो दिल में बात उठती है वो लगभग वैसी की वैसी ही सामने प्रगट हो जाती है बिना सेंसर हुए ...
सुना है ना आपने " पर्दा नही जब कोई खुदा से , बन्दों से पर्दा करना क्या ...."
और आज तो मै "लौंडा बदनाम हुआ....से मुन्नी बदनाम हुयी" के मध्य देश और समाज में हुए विकास की भी बात करने जा रहा हूँ ....
अब आप भी सोच रहे होंगे कि "लौंडा बदनाम हुआ....से मुन्नी बदनाम हुयी" तक के जुमले का देश और समाज के विकास से क्या वास्ता....?
चलिए ज्यादा भूमिका बाँधे बिना पहले यह बताता हूँ कि आज अचानक यह विषय लेकर मै क्यों बैठ गया...
हुआ यह कि आज मै इतना त्रस्त हो गया कि मजबूरन यह पोस्ट लिखने के लिए बैठ गया....
और त्रस्त भी क्यों हुआ... हर पाँच मिनट पर मुन्नियों के बदनाम होने से ।
क्या ? आप सोच रहे है कि मै फिर शब्द जाल में उलझाने लगा...
नही नही ऐसा कदापि नही है...
वास्तव में यदि काल पात्र समय का सही से विवरण ना दिया जाय और बात को सन्दर्भ से अलग कर के एकतरफा देखा या प्रस्तुत किया जाय तो अर्थ का अनर्थ होने लगता है । और मै तो वैसे ही अनर्थकारी चर्चा छेड़ने जा रहा हूँ इसीलिए प्रयास कर रहा हूँ कि इसमे अनर्थ की जगह अर्थ ही आप के समक्ष प्रस्तुत हो ..
आगे आपका विचार , उस पर मेरा नियंत्रण नही है ,
[ अरे जब लोकतंत्र के ज़माने के ऐ. राजा और स्थायी रोजगार की तलाश में लगे अंग्रेजो के ज़माने के दिग्गी राजा पर आज देश के सर्वश्रेष्ट शक्तिमान व्यक्तियों में शामिल सोनिया जी और मनमोहन जी का नियंत्रण नही है और जिसके जो मन में आ रहा है वो अनाप सनाप तरीके से बेधड़क होकर कर रहा है या रात नशे में किसी पुरातन धटना से सम्बन्धित कोई सपना देख कर देश का लाभ-हानि विचारे बिना सुबह महज अपनी कब्जियत दूर करने के लिए और अपना तुच्छ राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध करने हेतु कुछ भी बेशर्मो की तरह बक दे रहा हो और वो दोनों चुपचाप तमाशबीन बने रह जाय वहां हमारा आपका एक दूसरे पर क्या नियंत्रण...? ]
तो फिर चलिए " लौंडा बदनाम हुआ.... से मुन्नी बदनाम होने तक.... हुए देश और समाज के विकास" पर सीधी बात...
आज १५ दिसम्बर की रात थी , और हिन्दू धर्म के लिए इस माह की यह आखिरी रात थी जब भोले-भाले नवयुवको को बलि-वेदी पर चढ़ाया जा सकता हो मतलब विवाह-वेदी पर बैठाया जा सकता हो, भोले-भाले नवयुवको की बात इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि आजकल बेचारे भोले-भाले नवयुवक ही घर परिवार,धर्म और समाज के कहने (उकसाने) पर बेदी पर बैठते है वरना जो भोले-भाले नहीं है वो घर-परिवार और समाज को ठेंगा दिखाकर ठसके से "लिव-इन" जैसे सम्बन्ध को अपनाने लगे हैं (हमारे ज़माने में तो जीवन साथी पाने का यह तरीका केवल अमेरिका जैसे देशो में ही था और बेचारा अपना मुल्क तब बहुत पिछड़ा हुआ था.., यह मत सोंचिये की अगर तब सुविधा होती तो मै क्या करता, यहाँ सवाल सुविधा होने और ना होने का है ) ।
तो समाज में रहने के कारण मुझे भी आज तीन-चार शादियों में शामिल होने का निमंत्रण मिला था, कहीं निमंत्रण वर पक्ष से था तो कहीं कन्या पक्ष से ।
हालाँकि आज मै अपनी रोजी-रोजगार के कार्य से कुछ ज्यादा ही थका था , साथ ही कुछ एसिडिटी की समस्या भी शायद ठण्ड की वजह से पैदा हो गयी थी और कुछ मौसम भी सर्द था जिसके कारण कुछ भी खाने का मन भी नही था तो पहले सोचा कि कहीं ना जाऊं और बाद में ना आ पाने का कोई उचित कारण खोज कर क्षमा मांग लूँगा (क्योंकि मात्र थका होना,एसिडिटी होना और मौसम सर्द होना जैसे कुल तीन कारण किसी को ????-वेदी पर चढ़ाये जाने के अवसर पर ना शामिल होने हेतु शायद पर्याप्त नही है ) मगर फिर ख्याल आया कि कम से कम कन्या पक्ष के निमंत्रण का तो आदर किया ही जाना चाहिए तो मै तैयार हो गया ।
संयोग से कार्यालय की कार और उसका चालक भी अभी साथ ही था जिससे मुझे स्वयं से ज्यादा तकलीफ भी नही करनी थी बस अपना भार उस पर ( कार पर भौतिक रूप से और उसके चालक पर मानसिक रूप से ) लाद देना था और एक जगह से दूसरी जगह उपस्थिति दर्ज कराकर वापस आ जाना था । और संयोग से मेरे एक अजीज बड़े भाई साहबान भी साथ ही थे तो सफर में बात करने वाला भी मिल गया,फिर क्या था चल पड़े सवार और सवारी।
यात्रा की शुरुवात करते समय तक जो दुश्वारियां गिनाई वो तो थी ही अब गोरखपुर जैसे पुराने शहर की असली समस्या सामने आने लगी कि, हर सड़क-हर गली और शायद पूरा शहर आज बारात और उसके बारातियों से जाम है , तो कार से किया जाने वाला सफ़र भी पैदल यात्रा के समान ही था और फिर जैसे ही एक बारात या मैरज-हॉउस से आगे बढ़े वैसे ही फिर अगला मिल जाय....
आखिर कुछ खींझ कर और कुछ अपनी बोरियत मिटाने हेतु मैंने भाई साहेब को छेड़ा "देख रहे है भाई साहेब आज भाई-बंधू और समाज के लोग कितने स्वार्थी और दूसरों के भावी दुःख में खुश होने वाले हो गए है कि बेदी पर चढ़ने जाते हुए एक मासूम के भावी परिणाम को सोच कर मारे ख़ुशी के नाच- नाच कर "चांस पे डांस" का अवसर नही खोना चाहते है ।
भाई साहेब ने भी मेरे बे-सिर पैर के दर्शन पर बजे कोई सीधी प्रतिक्रिया देने के अपने चुटीले अंदाज में एक नया ही राग छेड़ दिया कि, ध्यान दो ..! आजकल कोई बारात बिना "यह देश है बीर जवानो का,अलबेलों का,मस्तानो का..... यहाँ चौड़ी छाती बीरो की... इस देश का यारों क्या कहना ..." जैसा जोशीला गाना सुने बिना जोश में आती ही नही है ? और कम से कम एक बार यह गाना हर बारात में बजता जरुर है ।
मै इससे पहले इसपर अपनी कोई प्रतिक्रिया देता, मुझे ध्यान आया कि पिछले पौन घंटे से हर पाँच मिनट पर जो गाना सबसे ज्यादा, बार-बार बज रहा है वो तो "मुन्नी बदनाम हुयी डार्लिंग तेरे लिए" है । और यह ध्यान आते ही मेरे मन में ख्याल आया कि पहले तो बचपन में मै जब किसी शादी-बारात में जाता था तो ज्यादातर लोग "बारात में नाचने गाने वाली नचनियों की पार्टी जिसमे शामिल महिलाओं को उस ज़माने में 'पतुरिया' कहा जाता था" को ले जाते थे और फिर पूरी रात नाच गाना चलता रहता था, वर और कन्या पक्ष दोनों तरफ के लोग खा-पी कर शुरू से अंत तक नाच गाना देख-सुन कर आनंदित होते रहते थे और उस ज़माने में वो समाज द्वारा मान्यता प्राप्त मर्यादित आचरण ही था हाँ नचनियों को ना लाना जरुर वर पक्ष को अपमानजनक स्थित में पहुंचा देता था ....
तो उस ज़माने कुछ प्रचलित गानों में में जो गाना सबसे ज्यादा प्रचलित था वो "लौंडा बदनाम हुवा नसीबन तेरे लिए" था क्योंकि वो आज भी मुझे याद है, और मुझे यह भी याद है की बचपन में मैंने किसी से इस गाने का अर्थ जब पूंछा था तो जबाब में शायद डांट ही सुनने को मिला था, गाने का अर्थ तो समय ने समझाया ।
तो दोनों गानों के बोल एक साथ जेहन में आते ही एकाएक मुझे ख्याल आया कि मेरे बचपन से लेकर अब तक वास्तव में देश और समाज ने क्या क्या प्रगति कर ली है और क्या क्या परिवर्तन हो चुके हैं ? मैंने भाई साहेब से कहा देखिये पहले की शादी-बारात और आज की शादी-बारात में क्या क्या अंतर आ गया है ...
पहली प्रगति:- पहले लौंडा बदनाम होता था और अब मुन्नी बदनाम होने लगी है .... अर्थात पुरुष वर्चस्व समाप्त हो गया , महिला वर्ग की भी खुले आम भागेदारी सामने आने लगी है ।
दूसरी प्रगति:- 'सट्टा बंधा कर' अनावश्यक 'पतुरियों' पर पैसा खर्च कर एक-दो नाचने वालियों की जगह समाज में आये ज्यादा खुलेपन,आत्मनिर्भरता और सहयोग की भावना के कारण अब घर-परिवार, दोस्तों के परिवार और मोहल्ले से बारात में शामिल होने हेतु सज-धज कर आने वाली भांति-भांति के उम्र की महिलाएं ही बारात में नाच कर बराती,घराती और मार्ग पर चलने वाले यात्रियों के मनोरंजन की जिम्मेदारी अपने कंधो (मतलब अपने कमर पर) ले चुकी हैं ,जिसका एक सामाजिक प्रभाव यह हुआ है कि पतुरिया जैसा भौड़ा शब्द भी कहीं ना कही अपनी मान्यता खो चुका है, और उस विरादरी को अपनी रोजी रोटी हेतु भले ही लाले पड़ गए हों पर वर पक्ष का खर्चा कम हो गया है क्योंकि नाच गाने हेतु किराये के नचनियों पर निर्भरता समाप्त हो गयी है । इस प्रगति से कृपया महिलाएं नाराज ना हों क्योंकि पुरुष तो पहले भी जन्मजात नचनिया था आज भी है ।
तीसरी प्रगति :- पहले प्राय: बेचारे घराती अपना पेट पकडे और मुह बाँधे चुप-चाप तब तक इंतिजार करते थे जब तक बाराती ना डकार ले लें , मगर अब ज्यादातर बारात आने के पहले ही घराती डकारता है फिर जूठे-कूठे मेज , स्टाल पर बेचारा बराती भोजन करता है अर्थात घरातियों पर बारातियों की श्रेष्ठता लगभग समाप्त हो गयी है ।
चौथी प्रगति :- पहले बिकाऊ दुल्हे के पिता द्वारा दहेज़ मांगे जाने पर और उसे उचित मूल्य ना चुका पाने पर ना केवल कन्या का पिता वरन कन्या पक्ष के अन्य सम्मानितगण भी वर पक्ष को रिझाने-मानाने के लिए अपना शीश नवाने लगते थे, अपनी पगड़ी उतरने लगते थे, मगर अब ज्यादा मोल भाव करने पर दुल्हे, उसके पिता, भाई-बंधू और लगे हाथ बारात में शामिल बे-सहारा बाराती ( बाराती सदैव बेसहारा ही होते है.. उनका मोल केवल तब तक होता है जब तक बारात दुल्हन के घर ना पहुँच जाय, फिर सड़क के कुत्ते और लौटे बाराती में कोई अंतर नही रह जाता) भी दो पल में लतिया-जुतिया दिये जा रहे हैं , और जो मौके से भाग नहीं पाते उनका आगे का सत्कार सरकारी ससुराल में होने लगता है , तो दहेज़ की समस्या का भी कुछ-कुछ निदान हो रहा है ।
पाँचवी प्रगति :- जैसा की पहले ही कह चुका हूँ कि जो लोग भोले-भाले नही है, उनको इन सब बन्धनों से दूर कहीं शांति और ज्यादा खुलेपन से अभी तो भारत के मेट्रो शहरों में ही लागू लिव इन रिलेशन को अपना लेने की सुविधा मिलने लगी है, और आगे उम्मीद है कि जल्द ही पूरे देश में इसकी मान्यता मिल ही जाएगी ।
और सबसे अंत में
छठवीं प्रगति :- अब तो भारत में भी शादी करने और हनीमून मनाने हेतु एक कन्या और एक युवक के जोड़े के होने की बाध्यता समाप्त हो रही है , राजधानी के एक अदालत के मध्यम से कुछ माह पहले कानूनन अप्रत्यक्ष रूप से सहमति देश का विधान दे ही चुका है , आगे भारत के भावी कर्णधार पूत और कुछ समाज सेवी पेट दर्द से परेशान एन.जी.ओ. उसे नवीन दिशा और मंजिल दे ही देंगे, तो पूरब और पश्चिम का अधिकांश अंतर समाप्त हो गया है और जो शेष रह गया है वो भी जल्दी ही समाप्त हो जायेगा और फिर पूरब पश्चिम से निश्चित ही हर मामले में आगे होगा ।
तो चलिए बात समाप्त करता हूँ , आगे मुझसे सहमत होना ना होना आपकी मर्जी ... वैसे भी मुझे इससे कभी फर्क नही ही पड़ता है.. क्योंकि मेरे कहने के पूर्व ही हम जैसो के लिए ओशो ने कह दिया था " मुझे सही समझे जाने की कोई जिज्ञासा नहीं। यदि कोई सही नहीं समझता तो यह उसकी समस्या है,उसका दुख है। मैं अपनी नींद नहीं खराब करूंगा "
अब रात भी बहुत ज्यादा हो गयी है, साथ ही कई शादियों में शामिल होने के बाद भी मुझे भूंखे पेट (एसिडिटी के कारण) सोना भी है ।..... तो नमस्कार , शुभ रात्रि
आपका अपना (यही लिखा जाता है कूटनीतिक तौर पर जबरदस्ती अपनापन दिखने के लिए)
विवेक (मिश्र..अनंत)
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
11 टिप्पणियां:
ऎक दम सटीक कटाक्ष । शुभकामनायें।
Badhiya. Mahaul par kaafi paini nigah hai aapki. Aur aapke anubhav bhi kabile taarif hain.
Alok
भारतीय विवाह पर अच्छा प्रकाश डाला है। व्यंग्य बाण भी कई जगह सटीक लगे हैं। कुल मिलाकर अच्छा है। बधाई।
Man gaye ham to Mishrji aapko, bahut badhiya vardan kiye hain.
dhanyvad aap sabhi ka ..
kal ke is basi chaval me aaj fir se kuch tarka lagaya hai .. eb bar fir se mauka mile to chakh lijiye
ज़बरदस्त शोध ...
लौंडा बदनाम हुआ, बहुत अच्छा लिखा है विवेक भाई।
भाई कुछ दे सको तो लेखनी की ये क्षमता हमको दे दो। बिल्कुल सटीक और धाराप्रवाह। एक-एक शब्द मोतियों जैसा चमकता हुआ।
अॉफिस में एक इलाहाबादी मित्र हैं अखिलेशजी पांडेय। उन्होंने इतना जिक्र किया था कि इस गाने की उत्पत्ति 'लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए' से हुई है लेकिन आपने तो नारी शक्ति की प्रधानता बताते हुए दिल खुश कर दिया।
'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:'
पुन: बधाई
आपका विशाल
सब बकबास है बिरु ये सब दिल को फोर्ने वाले बात है भाई अपुन ब्लॉग की दुनिया में नया है मगर कभी फुर्सत मिले तो मेरे ब्लॉग पे आके देखो आख निकल जायगी बच्चू
a healthy discussion //
Thoda unique laga.
dhanyavad aap sabhi ka
abhay bachhu
jaroor aunga aapke blog par bhi.. jab samay milega
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