हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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शनिवार, 31 अगस्त 2013

बहुत मुश्किल है अब...

आज के इस अफरा तफरी , और भीड़ भरे इस संसार में ।
जब भुलाते जा रहे कर्तव्यों को , और लुटाते जा रहे आदर्शो को ।
जब मारते जा रहे अपनी आत्मा , बेंचते जा रहे अपने ईमान को ।
बहुत मुश्किल हो गया है बचा पाना , अपने अन्दर के इन्सान को ।
बार बार हुंकारता है अन्दर का , बलशाली होता शैतान यहाँ ।
दर दर की ठोकर खाता है , मानव के अन्दर का इन्सान यहाँ ।

ऐसे में बहुत मुश्किल है अब , इंसानियत का अस्तित्व बचा पाना ।
व्यवसायिक होती इस दुनिया में , उसको अब जीवित रख पाना ।
लालच-क्रोध-घृणा अभिमानो के , वारो से उसे बचा पाना ।
अपने स्वार्थ की बलि बेदी से , उसको सकुशल लौटा लाना ।
फिर भी अंतिम छण तक उसको , मै जीवित रखने की ठान रहा ।
लिखकर कागज पर व्यथा अपनी , मै उसको कुछ सांसे लौटा रहा ।

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सोमवार, 19 अगस्त 2013

कब ? कौन ? कहाँ ? कैसे ?

कब ?
        कौन ?
                 कहाँ ?
                          कैसे ?
                                   क्यों ?
                                           किसलिये ?
                                                      किसके लिये ?
                                                                   किसके कारण ?
                                                                              किसके साथ ?                                      
                                                                                         कब तक ?
               
हों जितने भी प्रश्न तुम्हारे मन में ,
उन सबको मुझे बताओ तुम !

काँटे से निकालता हूँ मै काँटा , 
प्रश्नों से मुक्त हो जाओगे तुम ।

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शनिवार, 17 अगस्त 2013

आसान नहीं है चलते रहना..

आसान नहीं है चलते रहना , तपते हुए रेतीले पथ पर ।
धूल भरी आंधी में भी , डिगना नहीं अपने पथ पर ।
अवशेष बचाए रखना अपने , छोड़े हुए पदचिन्हों का ।
महत्त्व बनाये रखना अपने , इतिहासों के पन्नो का ।

वो शूरबीर होते है जो , हर पल को हँस कर जीते है ।
प्रतिकूल हो रही स्थिति का , सदा सामना करते है ।
अपने श्रम से मरू-भूमि को , हरा भरा कर देते है ।
अपने अरि के मन में भी , सम्मान भाव भर देते है ।

आसान नहीं है सदा तैरना , उलटी बहती धारा को ।
चीर कर सीना लहरों का , अपनी मंजिल पाने को ।
अस्तित्व बचाए रखना, जल में बने प्रतिबिम्बों का ।
महत्व बचाए रखना , संघर्षो के हर एक पल का ।

वो महामानव होते है जो , हर धारा में खुश रहते है  ।
प्रतिकूल हो गए हालातो का , निश्चल हो सामना करते है ।
अपने रंग में रंग कर सबको , अपने सा कर लेते है ।
प्रतिद्वंदी के मन में भी , सहज भ्रात भाव भर देते है ।

आसान नहीं है मानव का , शूरबीर बन हर पल रहना ।
आसान नहीं है मानव का , महामानव सा हर पल जीना ।

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बुधवार, 14 अगस्त 2013

बाजी..

मैंने सुना कुछ लोग यहाँ , हर सांस में बाजी चलते है ।
चौपड़ के पासो के बदले , इंसानों की बाजी चलते हैं ।
वो दांव लगते जीवन का , जो होता नहीं उनका कभी ।
वो हर गोट फँसते ऐसी है , बच के कोई निकले ही नहीं ।
वो घेर कर बाजी चलते है , कोई घर नहीं खाली रखते है ।
वो रिश्तो का दांव चलाते है , सच झूंठ की गोट बढ़ाते है । 
बलि देकर प्यांदो के अरमां , सतरंज के वजीर बचाते है ।
सदा आड़ी-तिरछी चालो से , वो खेल का मजा उठाते है ।
सोंची-समझी चालो से वो , स्वयं की पहचान छिपाते है ।
गिरगिट जैसा रंग बदल कर , सबको धोखा देते जाते है ।
यूँ खेल बहुत ही अच्छा वो , आदतन खेलते जाते है ।
मगर कभी कभी वो भी , प्रतिद्वंदी गलत चुन जाते है । 
फिर चाहे जितने अज्ञाकारी , उनके विसात के प्यांदे हो ।
जब खुल कर सामने हम होंगे , किला बिखर ही जायेगा ।
साथ रहा हूँ जिनके सदा  , खेल उन्ही से उनका सीखा है ।
देख देख कर बाजी उनकी , हर दांव का तोड़ भी सीखा है ।
तो बेहतर है कह दो उनसे , ना मुझको ही गोट बनाये वो ।
चाल चलेगे जब हम अपनी , ना सहन मात कर पाएंगे वो ।
(पूर्व में कार्य-क्षेत्र से जुड़े हुए उदगार..)


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शनिवार, 3 अगस्त 2013

जीवन है माटी का लोंदा..

जीवन है माटी का लोंदा , पल पल रूप बदलता है ।
कभी ठोस चट्टान सा , कभी पल में ये बिखरता है ।
कभी ये गीली मिटटी सा , तृप्त स्वयं में रहता है ।
कभी आकाल की मिटटी सा , तकलीफों को सहता है ।
कभी आंधियां इसे उड़ा कर , दूर छोड़ कर आती हैं ।
कभी बाढ़ का पानी इसको , दूर देश ले जाती हैं ।

कभी किसी उपजाऊ मिट्टी , जैसा ये हो जाता है ।
कभी रेत के ढेर के जैसा , बंजर ये हो जाता है ।
अगर मिल गया इसे चतुर , सुघढ़ कुम्हार का हाथ  ।
रूप बदल कर वो इसको , सिखलाता जीवन की आश  ।
वर्ना किसी धूल के कण सा , मारा मारा फिरता है ।
इधर उधर सब के द्वारे , बस दुत्कारा फिरता है ।

जितना ज्यादा इसे तपाते , उतना ही यह चलता है  ।
वर्ना भीगी मिटटी सा , हर ठोकर में यह गिरता है ।
माटी जैसा जीवन इसका , फिर माटी में मिलता है ।
माटी से पैदा होकर ये , माटी का लोंदा रहता है ।

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आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

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आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

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