हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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सोमवार, 21 मार्च 2011

रोंको अपने अश्रु नयन में..

रोंको अपने अश्रु नयन में ,
भूले से बाहर ना ढलके ।
मोल अश्रु के परख सके ,
अब नहीं पारखी जग में मिलते ।

जो मूल्य जानने वाला ना हो ,
हीरे को कांच समझता है ।
कांच के टुकड़ो को सहेज कर ,
हीरा जैसा रखता है ।

जब तक अश्रु नयन में होते ,
मोती से अनमोल वो होते ।
एक बार जो बाहर ढलके ,
मिटटी में जाकर वो मिलते ।

ज्यों ही तुम हो इन्हें गिरते ,
ये गिरा तुम्हे भी देते हैं ।
अपने निष्कासन के बदले ,
सब राज तुम्हारा कहते है ।

आँखों में बनते ये मोती ,
जब-जब बाहर ढलते हैं ।
अंतरमन की कातरता को ,
जग में प्रगट कर देते हैं ।

बाहर निकले अश्रु सदा ,
व्यथा सार्वजनिक कर जाते हैं ।
औरों के परिहास का पात्र ,
पीछे जग में हमें बनाते हैं ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

2 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बिल्कुल सही कहा है ...मुझे रहीम जी का एक दोहा याद आ रहा है -- रहिमन निज मन की व्यथा , मन ही राखे गोय

बहुत अच्छी प्रस्तुति -



चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 22 -03 - 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

http://charchamanch.blogspot.com/

Shah Nawaz ने कहा…

बहुत बढ़िया रचना है...

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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