नादानों सा भटक रहे , क्यों अंजानो सा अटक रहे ।
क्या आज हुआ तुमको मानव , क्यों अपने को तुम भूल रहे ।
तुम ईश्वर की सर्वश्रेष्ट कृति , आशाएं तुमसे उसे बड़ी ।
पुरषार्थ की राह में आलस्य की , देखो क्यों है दीवार खड़ी ।
मानवता की बगिया में , दानवता कैसे पली बढ़ी ।
जहाँ प्रेम के फूल थे लगने , क्यों नफ़रत की है बाड़ खड़ी ।
सोचो हुयी कहाँ ये भूल , किसने चुभाये तुमको शूल ।
अपने मन का सागर मथ कर , खोजो क्या है इसका मूल ।
शायद कुछ रत्न मिले तुमको , अंतर्मन के मंथन से ।
या मुक्त हो सको तुम अपने , मन में घुले हलाहल से ।
रत्न तुम्हारे अपने होंगे , हैं नीलकंठ विष पीने को ।
कर्म तुम्हारे अपने होंगे , है भाग्य केवल फल देने को ।
क्या आज हुआ तुमको मानव , क्यों अपने को तुम भूल रहे ।
तुम ईश्वर की सर्वश्रेष्ट कृति , आशाएं तुमसे उसे बड़ी ।
पुरषार्थ की राह में आलस्य की , देखो क्यों है दीवार खड़ी ।
मानवता की बगिया में , दानवता कैसे पली बढ़ी ।
जहाँ प्रेम के फूल थे लगने , क्यों नफ़रत की है बाड़ खड़ी ।
सोचो हुयी कहाँ ये भूल , किसने चुभाये तुमको शूल ।
अपने मन का सागर मथ कर , खोजो क्या है इसका मूल ।
शायद कुछ रत्न मिले तुमको , अंतर्मन के मंथन से ।
या मुक्त हो सको तुम अपने , मन में घुले हलाहल से ।
रत्न तुम्हारे अपने होंगे , हैं नीलकंठ विष पीने को ।
कर्म तुम्हारे अपने होंगे , है भाग्य केवल फल देने को ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
बहुत बढ़िया...
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