हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

गुरुदेव..

माना कि आप बड़े हैं , बुलंदियों के शिखर पर खड़े हैं।
हमने भी कहाँ मानी हार ,अनंत हौसले के साथ लड़े हैं।
मत डर दिखाओ हमको कि , रास्ते मुश्किलों से भरे हैं।
ये स्वभाव है अपना , हम कभी मुश्किलों से नही डरे है।
बंद रास्ते पर अटक जाऊं , कौन सी मुश्किल है अनंत।
पीछे लौट कर कुछ कदम , नयी राह तलाश लूँगा तुरंत।

आप जिसे कहते हो मुश्किल , उसको मुश्किल मानता नही हूँ मै।
मुश्किल तब है मेरे लिये जब , वापस लौटने का हौंसला खो दूँ मै।
फिर गिरने सम्भलने की फिक्र , क्यो अभी से करने लगूँ मै।
दोस्ती और दुश्मनी की, एक नयी परिभाषा गढ़ने चला हूँ मै ।
और दोस्ती या दुश्मनी को , उस हद की हद तक निभाया करता हूँ।
जहाँ दोस्ती मे दुश्मनी और , दुश्मनी मे दोस्ती की शुरूवात होती है।

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गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

आतंरिक विद्रोह...

जबतक आप किसी भी कार्य , लक्ष्य , अथवा सम्बन्धो हेतु पूर्णतया स्वयं अंतरमन से राजी नहीं होते , 
आप बाह्य दबाव अथवा कारको के प्रभाव में अपना सर्वोत्तम योगदान नहीं दे सकते हैं ।
और
जब तक आप हार्दिक रूप से प्रशन्न और भावविभोर नहीं होते , आप अपने अंतरमन को संतुष्ट नहीं कर सकते। फिर जब तक आपका ह्रदय रिक्त है आपका अंतरमन विरक्त ही रहेगा ।
और
जब तक आपका अंतरमन विरक्त है आप अपने अंदर ही विद्रोही को पालते रहेंगे जो आपकी हर रचनात्मकता और सकारात्मकता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता रहेगा ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG


बेसहारा...

जीवन संघर्षो की बनी दुधारी , लगते घाव हैं बारी बारी ।
जायें किधर समझ ना आये ,आगे कुआँ और पीछे खाई ।
एक तरफ आदर्शो का अब , कटु कोरापन हो रहा प्रगट ।
ठोस धरातल था कल तक , दलदल बन वो रहा विकट ।
परीलोक की गल्प कथाएं , प्रेतलोक का भय दिखलाये ।
कलियों पर मंडराते भौरे , दूर दूर तक नजर ना आयें ।

ठकुरसुहाती सुनने वाले , सोहर सुन कर भी मुस्काए ।
आवारो सा भटके जीवन , कोई सहारा नजर ना आये ।
इनकी टोपी उनके सर , मंत्र भी देखो काम ना आये ।
नजर घुमाओ जिस भी ओर , हाहाकार नजर में आये ।
भागम भाग है चूहों की , और सागर में कश्ती बौराये ।
दरक रहा जलयान पुराना , खेवनहार नजर ना आये ।

मृगतृष्णा सा था जीवन , जीवन भर अब तक ललचाए ।
टूटा पौरुष ढली जवानी , चलने को सहारा नजर ना आये ।

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गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

थोड़ा सा जल मुझे चाहिए..

प्यास लगी है मन में मेरे , ज्वाला जलती तन में मेरे ।
विकल हो रहे नेत्र हमारे , डग-मग होते कदम हमारे ।
जन्म जन्म की प्यास लगी है , व्याकुल मन को करने लगी है ।
देख पास शीतल जल धारा , तन को हर्षित करने लगी है ।

पल भर का अवरोध नहीं , अब मन को जरा सुहाता है ।
जी भर कर जल का पान करूँ , यह भाव ही मन में आता है ।
क्या कहा निषिद्ध है जल धारा , उस पर नहीं अधिकार हमारा ।
पर भुला सभी प्रतिबंधो को , मन व्याकुल होता सम्बन्धो को ।

क्या होगा जो अनाधिकार , एक अंजलि भर जल पी लूँगा ।
क्या इससे पूरी जलधारा को , अपवित्र अछूत मै कर दूँगा ।
तुम चाहो तो जाकर पूंछो , उस अमृतमय जलधारा से ।
क्या ओंठो को मेरे छूने की , कोई चाह नहीं जलधारा को ।

प्यास बुझाए बिना पथिक की , क्या धर्म निभा वो पाएगी ।
मुझको प्यासा छोड़ अकेला , क्या सुख से वो सो पायेगी ।
तो मिलन हमारा होने दो , अवरोध व्यर्थ ना खड़े करो ।
सूख रहे ओंठो को मेरे , थोड़ा सा जल बस पीने दो ।

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काल और हम ...

कालचक्र की गति सनातन , ठहराव नहीं उसकी गति में ।
आठो पहर के हर एक पल , घूमे रथ के पहिये निरंतर ।
जल थल से लेकर नभ तक , धरती और पाताल सभी ।
घूम रहे प्रतिबल बन छाया , अदभुद कालचक्र की माया ।

सेवक बनकर पीछे चलते , दशो दिशाओं के दिगपाल ।
हाथ जोड़ कर शीश नवाते , श्रृष्टि के सारे महिपाल ।
भूत भविष्य और वर्तमान , उसके रथ के अश्व महान ।
एक रास में एक साथ ही , उन्हें जोतता है महाकाल ।

कभी यहाँ और कभी वहां , ना जाने किस पल रहे कहाँ ।
किसको कब वो राज दिला दे , कब राजा को रंक बना दे ।
बैरी दल के अन्दर भी , विश्वस्थ मित्रता तुम्हे दिला दे ।
विश्वस्थ सहचरों की टोली , जाने कब वो बागी बना दे ।

महाकाल की एक हांक से , उलट पुलट हो जाती श्रृष्टि ।
सूर्य चंद्र और तारों तक की , गति दिशाहीन हो जाती ।
ऐसे में हम मानव क्या  , अभिमान करे अपने ऊपर ।
कर्त्तव्य हमारा है पुरषार्थ , बस उसे करे निर्मल होकर ।

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मंगलवार, 9 सितंबर 2014

आओ स्वप्नदर्शी बने...

स्वप्नों का संसार अनोखा , और अनोखी स्वप्न साधना ।
काल समय का भेद मिटाकर , स्वप्न नए जगत दिखाता ।
नित जाने-अनजाने लोकों की , स्वप्न हमें है सैर कराता ।
उत्तर कई अबूझ पहेलियों के , स्वप्न ही प्राय: हमें बताता ।

कुछ लोग देखते स्वप्नों को , जब वो निंद्रा में होते हैं ।
खुलती उनकी आँखे जहाँ , वो स्वप्न तिरोहित होते हैं ।
व्यर्थ हो जाते स्वप्न सभी , जो केवल निंद्रा में देखे जाते ।
कभी धरा का ठोस धरातल , स्वप्न नहीं वो बन पाते ।

पर कुछ बिरले मानव होते , जो स्वप्नदृष्टा हैं बन पाते ।
खुली आँख से स्वप्न देखते , स्वप्नों को साकार बनाते ।
खुली आँख से देख स्वप्न को , जीवान्त यहाँ जो कर पाते ।
वही स्वप्नदर्शी इस जग का , कायापलट सदा कर जाते ।

है अगर भूँख कुछ करने की तो , खुली आँख से देखो स्वप्न ।
तन मन धन सम्पूर्ण लगाकर , सृजित करो धरा पर स्वर्ग ।
जब स्वप्न धरातल पर उतरे , तब कहलाती स्वप्न साधना ।
जब सत्य स्वप्न का मूल बने , तब मन की वो बनती कामना । 

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रविवार, 17 अगस्त 2014

मिले जो राह में कांटे..

मिले जो राह में कांटे , कदम वापस ना लेना तुम ।
उन्हें समेट कर आगे , कदम अपने बढ़ाना तुम ।
मिले जो राह में ठोकर , कदम धीमे ना करना तुम ।
कदम की ठोकरों से ही , राह खाली कराना तुम ।
खड़े अवरोध हों आगे , ना घबड़ाकर रुक जाना तुम ।
मिटाकर हस्तियाँ उनकी , मंजिल अपनी पाना तुम ।

मिले जो संगी साथी तो , उन्हें भी साथ ले लेना ।
मगर घुटनों पे रेंग कर , कभी ना साथ तुम देना ।
निभाना दोस्ती या दुश्मनी , आगे ही बढ़कर तुम ।
मगर कभी पीठ में छुरे को , ना अवसर देना तुम ।
लगी हो जान की बाजी , अगर मंजिल को पाने में ।
कभी भूले से ना मन में , हिचकिचाहट लाना तुम ।

भले ही लोग करते हों , तुम्हारी कैसी भी निंदा ।
भूल कर जग की बाते , साथ सच का ही देना तुम ।
ना खाना खौफ तूफानो से , हौंसला साथ तुम रखना ।
भले ही कुछ भी हो जाए , साथ तुम अपनो के रहना ।
दिखे कुछ भले मुश्किल , मगर मुश्किल कहाँ कुछ भी ।
अगर तुम ठान मन में लो , कहाँ कुछ भी तुम्हारे बिन ।

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आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

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आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

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