खींच कर दो-चार लाइन, और बनाकर एक चतुर्भुज।
देखता हूँ बाँचते है , वो ना जाने क्या-क्या भविष्य।
वो जिन्हे खुद का अभी तक , है पता मालूम नहीं।
वो बताते है आसमानी , शक्तियों के हमको पते।
वो जो शायद पढ़ सके ना , श्याह-सफ़ेद अक्षरो को।
वो शान से है पढ़ रहे , हाथों पर उभरी इबारतो को ।
वो जिन्हे शायद पता हो , कैसी होगी आज की रात।
वो हमें बतला रहे है , जन्म जन्मान्तरो की बात ।
ना मै नहीं कहता कभी , विद्या ये पूरी पाखण्ड है।
पर मै ये कहता मित्र , अब शेष इसके कुछ खंड है।
अब ये है प्यारी धरोहर , अभिलेखो और स्मारको में।
मत सजाओ तुम इसे , निज पुरषार्थ की दीवार में ।
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
बहुत सटीक और सार्थक अभिव्यक्ति...
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