खोखले आदर्श और कोरे सिद्धांत,
दूर से बड़े मनोहारी लगते है ।
उनके आगे छठा बिखेरते सप्तरंगी,
इन्द्रधनुषों के रंग भी फींके लगते है।
लेकिन क्या हकीकत में ऐसा ही होता है?
पूंछो जरा उनसे जिन पर गुजरता है।
ढोल की पोल का उनको पता होता है,
शेर की खाल में सियार ज्यों चलता है।
जब तक है किस्मत बिकता सब मॉल यहाँ,
आगे कौन पूंछता क्या है तेरा हाल यहाँ ?
अंत में लगनी है दोनों की बोली ,
किसी अजायबघर में सजनी है डोली।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
सुन्दर रचना ,,,अंतिम पंक्तिया बहुत कुछ कहती हुई ,,,,,!!! सत्य के करीब लेखन ...आभार
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