हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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सोमवार, 4 जुलाई 2011

माननीय जन-प्रतिनिधगण..

आज जब विश्व के कई  देशो में तरफ जन-आन्दोलन की भरमार है , जनता और जागरुक होती जा रही है , अपने अधिकारों के लिए धरना , प्रदर्शन और क्रांति के लिए उतावली हुयी जा रही है... तब आईये देखते है  की विभिन्न देशों की जनता के द्वारा चुने गए माननीय जन-प्रतिनिधगण पार्लियामेंट में विचारो की स्वतंत्रता के नाम पर किस प्रकार अपनी आवाज बुलंद करते है और मतान्तर होने पर दूसरो को किस प्रकारजबाब देते है...

 ये है महान रोमन साम्राज्य के इटली का नजारा 

 ये है शांति के मसीहा जापान के प्रतिनिध 

 ये है झगडा करने के माहिर मैक्सिकन

ये जन क्रांति के प्रणेता रूस  की संसद

 साऊथ कोरिया 

 ताइवान

 टर्की 

उक्रेन 

और ये हैं भारत के भाग्य विधाता 
*************************
और अब देखिये इन सबसे अलग देश , जिससे हम अपनी तुलना करने की हमेशा सोंचते है ..


 महान चीन 
भले ही यहाँ संसद में बोलने की आजादी न हो मगर सोने की भरपूर आजादी है....!!

शनिवार, 2 जुलाई 2011

प्रतिकार..

कुछ न कहूँ चुप ही रहूँ , शायद ये हो मेरा ठीक जबाब ।
मै कहता प्रतिकार इसे , तुम भले कहो कमजोरी जनाब ।
तुमने आरोप लगाया है ,  मैंने दिल को तेरे दुखाया है !
अपने अनर्गल शब्दों से , तेरे मन को दुःख पहुँचाया है ।
पीड़ा हुयी तुम्हे ज्यादा ही , सम्बन्ध ही थे इतने प्रगाढ़ ।
फिर भी समझ सके ना तुम , मेरे मन में उठते ज्वार ।

तुम तो सदा कहोगे ही  , हर शब्द तुम्हारे मर्यादित थे ।
चलो मान लेते है इसको , पर उनमे भी तीखेपन भी थे ।
तीरों जैसी नोक थी उनमे , दिल को भेद कर निकले थे ।
जब छलनी हो गया मन मेरा , प्रतिकार मेरे आने ही थे ।
सदा मुझे परखने की खातिर , अपनाते हो जिन पैमानों को ।
क्या कभी परख कर देखा, तुमने अपने भी व्यवहारों को ।

आरोप लगाना कठिन नही , है कठिन उसे मर्यादित रखना ।
सम्बन्ध बनाना कठिन नही, है कठिन उसे आगे ले चलाना ।
है एक बार की बात नही, कब तक मै साथ निभाऊंगा ।
आज नही तो कल मै भी , कभी पलट वार कर जाऊंगा ।
बिखर जायेंगे सम्बन्धो की , माला में गुंथे हुए मोती ।
इसीलिए चुप हूँ मै अभी , आँखे समेटे है कुछ मोती ।
 © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

बंधन

प्यार, सम्बन्ध और रिश्ते ,
जन्म , मरण और मोक्ष ।
मान , सम्मान और अपमान ,
धन,सम्पत्ति,वैभव और पराभव  ।
चाहत , नफ़रत और उपेक्षा , 
अनुग्रह,आभार और अनादर ।
न जाने कितने मकड़जाल , 
फैले हैं हमारे चारो तरफ ।

कभी वो दिखते हमें प्रत्यक्ष  , कभी वो रहते है अदृश्य ।
कभी हम पाते उन्हें समझ ,कभी वो होते अबूझ पहेली ।

यूँ  जब जब हम जीते है , जीवन अलग-अलग कई खंडो में ।
हम और उलझने लगते है , इन दृश्य-अदृश्य मकड़जाल में ।

फिर हम समझ नहीं पाते , है नहीं अलग खुशिया और दुःख ।
किसी जंजीर की कड़ियों सी , ये बंधी हुयी हैं असीम अनंत ।


© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

गुरुवार, 30 जून 2011

सभ्यता के दौर में...

सभ्यता के दौर में भी , क्यों है भूँखा आदमी ?
गिद्ध सी दृष्टि से , क्यों  देखता है आदमी ?
चील सा सब पर झपटता , आज क्यों है आदमी ?
आदमी के मांस को , क्यों नोचता है आदमी ?

घर में वो संतान है , माता पिता की शान है ।
भाई बहन के पर्व का , वो आज भी निशान है ।
अपने जीवन साथी के , आन का वो मान है ।
संतानों के अपने सभी , वो सदा अभिमान है ।

सभ्यता के दौर का जो , आज ये इन्सान है ।
देखने में जो भी लगे , अन्दर से हैवान है ।
छू रहा होता है जब , किसी दूसरे इन्सान को ।
उँगलियों के पोर से , चखता है वो मांस को ।

आँख चाहे जो कहे , वो तौलती है मांस को ।
शब्द प्रगट हो न हो , मन सोंचता है भाव को ।
हो नजर कितनी भी नीची , देखती टेढ़ी ही है ।
साधुता के लबादे में , लालच भी पलती ही है ।

कुछ लोगो में अवशेष है , ईमानदारी आज भी ।
पूरी कीमत वो चुकाकर , साख रखते मांस की ।
इस तरह वो भूंख का , आदर्श बनाया करते है ।
सभ्यता के दौर में भी , भूँख मिटाया करते है ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

हँस के हम सारे गम अब छुपाने लगे...

प्रिय गोविन्द जी के सौजन्य एवं उनसे जबरन प्राप्त अनुमति से आपके समक्ष प्रस्तुत है उनकी दूसरी रचना ...


हँस के हम सारे गम 
अब छुपाने लगे , 
हमसे वो अब 
बहुत दूर जाने लगे। 

भूल हमको
किसी से दिल वो लगाने लगे , 
हमी से मोहब्बत के 
किस्से सुनाने लगे। 

उनको हम अब तो
लगने बेगाने लगे ,
हमसे नज़ारे भी वो अब
चुराने लगे।

यादों में उनकी 
हम डूब जाने लगे , 
याद में उनकी 
आंसू बहाने लगे।

प्यार पाने की 
खुशियाँ वो मनाने लगे , 
प्यार खो के 
गम गले हम लगाने लगे।

सपने सारे हमारे 
टूट जाने लगे , 
वो तो औरो के 
सपने सजाने लगे।

वफ़ा कर के भी हम 
हार जाने लगे , 
हँस के आँसू भी हम 
पीते जाने लगे।

जिंदगी गम के साये में 
फिर बिताने लगे , 
हँस के हम 
सारे गम अब छुपाने लगे। 

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 ミ★गोविन्द पांडे ★彡

बुधवार, 29 जून 2011

हाथ की लकीरों में क्या लिखा है कौन जानता है?

प्रिये मित्रो एवं वरिष्ठ आदरणीय जन

आज मेरे एक बहुत ही अजीज मित्र और भाई गोविन्द ने मुझे अपनी लिखी एक रचना पढने के लिए भेजी जिसे कई बार पढने के बाद उनकी जबरदस्ती अनुमति प्राप्त करके अपने ब्लाग पर लगा रहा हूँ ताकि आप लोगो को भी उनने हुनर से वाकिफ कराया जाय...

तो आपके समक्ष प्रस्तुत है ....


हाथ की लकीरों में क्या लिखा है कौन जानता है?

तुम हमें मिलोगे,
अपना बनाओगे , हर पल
मेरा साथ निभाओगे, या
यादों के सहारे जिंदगी गुजर जाएगी,
कौन जानता है?

पेड़ से पत्तों की तरह,
बिखर जाती हैं खुशियाँ,
बस साख लिए खड़े हैं तपती धूप में,
इस पतझड़ के बाद बसंत आएगा
या नहीं, कौन जानता है?

उगा था एक पौधा,
कुछ हसरत लिए,
जुल्म सहता हुआ
खड़ा है वो, वो पेड़ बन पायेगा
या टूट जायेगा,
कौन जानता है?

जो सपने सजाये थे हमने,
तुम्हारे साथ दुनिया बसायेगे ,
सपने सच होंगे, या
एक अधुरा ख्वाब बन के रह जायेगे,
कौन जानता है?

संवर जाती जिंदगी हमारी,
तुम्हे भी दे सकूँ खुशियाँ सारी,
हासिल होगी कामयाबी,
या खुद लिखनी पड़ेगी
अपनी बरबादियों की कहानी,
कौन जानता है?\

जिंदगी में लोग आये,
सबसे हमने दिल लगाये,
उनकी तरह तुम भी छोड़ जाओगे,
या हमारी हाल पे मुस्कुराओगे,
कौन जानता है?

जीवन पे काली घटा छाई है,
सारी फिजा अँधेरे के
आगोश में समाई है,
इन अंधेरों में खो जायेगे हम,
या सुनहरा सवेरा होगा,
कौन जानता है?

जीवन के साथ खेल खेलती हैं ये लकीरें,
कभी सुख कभी दुःख देती हैं,
हर पल रंग बदलती हैं ये लकीरें,
क्या होगा अगले पल में,
कौन जानता है?

हाथ की लकीरों में क्या लिखा है कौन जानता है?

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 ミ★ गोविन्द पाण्डे ★彡

भँवर..

मन के अथाह सागर में ,
प्रतिपल हलचल रहती है ।

भावनाओ की अनगिनत , 
लहरे रोज मचलती हैं ।

चाहतो की नित जटिल ,
भँवरे  यहाँ बनती हैं ।

आगोश में अपने समाये ,
भावनाओ को रखती हैं ।

जो भी चाहो वो दिखेगा ,
चाहतो की इन भँवर में ।


कर के देखो तुम जरा ,
मन के सागर का मंथन ।


© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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