हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

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बुधवार, 11 सितंबर 2013

मह्त्वकांक्षाये किसे प्रिय नहीं होती...

मह्त्वकांक्षाये किसे प्रिय नहीं होती , कौन रहना चाहता है उसके बिना ?
और बिना मह्त्वकांक्षाओं के कहो , मिला है किसी को कहाँ कुछ यहाँ ।
भले हो वो शासक किसी देश का , या हो वो सिपाही किसी भेष का ।
वो करता हो चाहे व्यापार कोई , या हो वो किसी का खरीददार कोई ।
देता भले हो जगत को वो शिक्षा , या लेने वो जाता हो स्वयं ही दीक्षा ।
चाहे लुटाता जगत को धरम हो , या अकेले निभाता अपना करम हो ।

अगर है जीवन में हमें कुछ करना , मह्त्वकांक्षी निश्चित ही होगा बनना ।
मगर ये तभी तक ख़ुशी हमको देती , जब तक गुलामी नहीं इसकी होती ।
बनता ये जिस दिन हमारा व्यसन है , उसी दिन गुलामी में शवसन है ।
फिर नचाने ये लगता पोरों पे अपनी , चलाने ये लगता राहों पे अपनी ।
जब हम लुटाते हैं आजादी अपनी , तभी हम बुलाते है बर्बादी अपनी ।
अच्छे और बुरे का हम अंतर भुलाते , किसी भी तरह से विजयश्री लाते ।

फिर मिटाते उन्ही को जो कल थे अपने , हमारे लिए जो बुनते थे सपने ।
फिर आता है वो पल हमारे लिए भी , जहाँ हम अपने किये को जिए भी ।
अच्छा है होना मह्त्वकांक्षी यारो , मगर उतना ही जो हित में हमारे ।
तभी हमको मिलती उससे ख़ुशी है , वही सबको देती सच्ची ख़ुशी है ।
उसी से हमारा वा जगत में सभी का , होता है सच में कल्याण थोड़ा ।
वरना भुलाकर हमको हमी से , मह्त्वकांक्षाये ही याद रहती है सारी ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

सही और सटीक अभिव्यक्ति !
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आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

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