हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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मंगलवार, 28 मई 2013

निर्देशन..

यूँ तो जिंदगी में ऐसे  बहुत से अवसर होते है , 
जब हम किसी कथाकार की तरह जीने का अवसर पाते है।
और जब जब ऐसा  होता है ,
हम अपनी कल्पनाओ को मूर्त रूप देते है।
और हम खींचने लगते है खाका किसी कहानी का ,
और अपने पसंद के पात्रो का उसमे चयन करने लगते है। 

हर एक पात्र को एक योजनाबद्ध तरीके से ,
अपनी कहानी के अनुरूप हम ढालते है।
उनकी वाणी में हम अपने शब्द डालते है ,
और उनके आचरण को अपने विचारो सा बनाते है।
और फिर किसी मँझे  हुए नाटककार की तरह,
हम उन घटनाओ को नाटक में लाते है जिन्हें हम चाहते है।

पर कभी कभी ऐसा भी होता है यारो ,
कहानी का कोई पात्र ज्यादा सशक्त हो जाता है।
और फिर वो कहानी को नया मोड़ देने लगता है ,
औरो से अपने चरित्र को ज्यादा प्रभावी बनाने लगता है।
पहले से तय कथाकार के कथानक को भूल कर ,
वह स्वयं ही एक नयी कथा बाँचने  लगता है।

तब यदि कथाकार में थोड़ी भी समझदारी होती है,
तो वह भावी स्थित का आँकलन  कर लेता है।
और फिर किसी आकस्मिक घटना के साथ ,
वह तत्काल ही स्वछंद हो गए पात्र को बदल देता है।
और इस तरह एक नाटकीय तरीके से पुन: ,
वह अपनी कहानी को वापस पटरी पर ला देता है।

पर मानव जीवन खुद अपने में ही एक कहानी है ,
और वह स्वयं ईश्वर निर्देशित नाटक का ही पात्र है।
विधाता कभी भी हमें जीवन का कथाकार नहीं बनने देता है ,
इससे उलट हमें ही किसी न किसी कहानी का पात्र बना देता है।
फिर घटनाये विधाता के अनुसार घटित होती है ,
जहाँ हमारी मर्जी पर कुछ निर्भर नहीं होता है।

और तभी तो हम कहते है , 
हम तो बस कठपुतलिया है विधाता की और वही असली कथाकार है।

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सोमवार, 20 मई 2013

सपने और अपने..

"औरंगजेब"  कल झेल़ा इसे, एकदम थर्ड क्लास बकवास मूवी , सिवाय सिर्फ एक बेहतरीन डायलाग के -
"सपनों से ज्यादा अपनो की कीमत होती है" , बात तो सच है पर क्या ये बात नहीं अधूरी ?

कहते तो सच हो सारा , पर कही बात अधूरी है यारा ।
सपनों से ज्यादा अपनो की , जीवन में कीमत होती है ।
पर अपने ही अपने ना हो तो, सपनों की बात करे हम क्या ?
सपने और अपने दोनों ही , कुछ सच कुछ आभासी होते है ।
कुछ दिखते अपनो के जैसे , पर सपनों के जैसे होते है ।
कुछ सपने सपने होते है , पर अपनो के जैसे होते है ।

मत हँसो मेरी इस बात पर तुम , मै बात घुमाता नहीं यारा ।
दिल की बात जो दिल से निकले , वही बात मै कहता हूँ यारा ।
सपने और अपने दोनों ही , अपने और पराये होते है ।
जो निभा सके संग तेरे अपना , बाकी सब पराये होते है ।
सपने बस सपने होते है , अपने बस अपने होते है ।
कुछ अपने सपने होते है , कुछ सपने अपने होते है ।

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रविवार, 19 मई 2013

उलटबाँसिया...

कहे कबीर बुलाकर मुझको , एक अजूबा होए ।
धरती बरसे अम्बर भींजे , बूझे बिरला कोय ।
मैंने कहा सुना है गुरूजी , ये गजब अजूबा होय ।
एक अजूबा मैं भी देखा , अब बूझे उसको कोय ।
प्यासा बैठे घर पर अपने , नदिया चलकर जाय ।
बूझे जो कोई विरला इसको , वो मेरा गुरु कहाये ।

हम दोनों ने एक दूजे पर , अपने अपने दाँव लगाये ।
मैंने अपनी खातिर फिर , अपने सारे जतन लगाये ।
मैंने कहा सुनो भाई साधो , ये  बात तुम्हारी ठीक है ।
प्रथम हो गया अंतिम और , साधन हो गया साध्य है ।
जब भी किसी कार्य में हम , होते है तल्लीन बहुत ।
कार्य बदल जाता कारण में , कारण बनता कर्म तब ।

सुनकर कहा कबीर ने मुझसे , एक सी है ये दोनों पहेली ।
हम तो प्रेम पुजारी थे ही , तुम भी बन गए नए पुजारी ।
जब जब बहती प्रेम की नदिया , यू  ही होती उलटबाँसिया ।
कभी बरसती धरती है तो , कभी है चलकर जाती नदिया ।
जब जब लगन लगेगी मन से , साधन होगा साध्य तब ।
समझ न पाए जो कोई  इसको , उसको क्या  समझाये अब 

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नशा..

( एक दशक पुरानी रचना है ये...पर शायद नही है बदले हालत अभी..)

नशा शराब का होता उतर जाता कब का । 
नशा चढ़ा है मुझ पर मेरी रवानी का । 
                  ये रवानी भी क्या गजब चीज है यारो ?
                  असर शराब का और महक पानी का ।
दूर से लोग कहते है किया है नशा ।
पास आकर कहते है जिया है नशा । 
   तो 
बिना पिये ही चढ़ी हो अगर बोतले ।
पीकर खाली करू मै  क्यों बोतले । 
                  जिनको चढ़ता नहीं है रवानी का नशा ।
                  उनको ही चाहिए अंगूरी महुवे का नशा 
हाँ कदम यदि बहकते दिखे हो तुम्हे ।
इसको कहना मेरी जवानी का नशा ।
                  अब इसके बारे में अधिक क्या कहूँ ।
                  शायद तुमने भी पाया हो इसका मजा ।
    पर 
जिसे चढ़ा हो एक से ज्यादा नशा ।
समझो हो गया वो काकटेल का नशा ।
                  अब छोड़ो ये बाते कहूँगा फिर कभी ।
                  देखो चढ़ने लगा है मुझे नींद का नशा । 
क्या कहा तुम मिलोगे उतरने के बाद ।
तो शायद तुम मिलना दशको के बाद ।

                  तब तक शायद उतर जाये वो नशा ।
                  जिसको कहा था मैंने जवानी का नशा ।
और रहा शेष मेरी रवानी का नशा ।
वो तो उतरेगा केवल मेरे मरने के बाद ।
                  हाँ अगर तुम मिले मुझसे कल की शुबह ।
                  तब तक शायद उतर जाय नींद का नशा ।
और जो बोतल खोली थी तुमने अभी ।
उसका मुझ पर चढ़ा ही कब है नशा ?

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रविवार, 12 मई 2013

सफल बे-ईमान...

जब बेईमान व्यक्ति सफल होता है तो यह उसकी बेईमानी की सफलता नहीं वरन यह उसमे पाए जाने वाले अच्छे  गुणों की सफलता होती है ।

यह जरूरी नहीं है की एक ईमानदार आदमी सभी योग्यताओं से युक्त हो । हो सकता है की कोई व्यक्ति सिर्फ ईमानदार हो पर साथ में कमजोर,हिम्मत हीन , अव्यवहार कुशल या कायर हो । तो अगर एक ईमानदार व्यक्ति असफल होता है तो ज्यादा संभावना होती है कि वह अपनी ईमानदारी के वजह से नही वरन अपनी अन्य कमजोरियों के वजह से असफल है 

वही एक बेइमान व्यक्ति साहसी,बुद्धिमान,संगठन क्षमता युक्त,भविष्य का अनुमान करने वाला,पहल करने वाला आधि उच्च गुणों से युक्त हो सकता है और इन सारे गुणों की वजह से वो आसानी से सफलता प्राप्त कर लेता है । जैसे चोरी भी एक जटिल विग्ज्ञान है , इसमे बडे गुण चाहिए । एक सफल चोर में एक सैनिक के समान हिम्मत , एक संत के समान शांति और एक ज्ञानी के समान अन्तर्दृष्ट होनी चाहिए अन्यथा ना तो वो चोरी करने की हिम्मत जुटा पायेगा और अगर जाएगा भी तो पकड़ा  जायेगा ।

चोरी या बेइमानी सफलता नही लाती है क्योंकि वो तो अपने आप में असफल होने को आबद्घ है । हाँ अगर उसमे अन्य योग्यताये जुड जाए तो वह सफल हो सकती है । वही अगर ये सारे गुण किसी अ-चोर में हो तो उसकी सफलता के क्या कहने ।

वास्तव में दुनिया के बुरे से बुरे व्यक्ति की सफलता के पीछे वही गुण होते है जो दुनिया के अच्छे से अच्छे व्यक्ति की सफलता के पीछे होते है और इसका उल्टा  असफलता के लिए लागू होता है ।

तो व्यर्थ में किसी बे-ईमान सफल व्यक्ति से सिर्फ इस लिए इर्ष्या ना करे की वो बे-ईमान है , पहले उसकी सफलता के अन्य कारणो को भी समझे

शुक्रवार, 10 मई 2013

नयी अभिलाषा...

तन प्यासा है मन प्यासा है , 
                     जीवन को पाने की आशा है ।
अब तक जो कुछ पाया है , 
                     वो प्यास ना मेरी मिटा सका है ।
केवल अधरों को गीला कर , 
                     मेरी आस को ही बस जगा सका ।

अब चाह रहा मै वो अमृत , 
                     जो जीवन को मेरे तृप्त करा दे ।
मुझको मेरी अभिलाषा से , 
                     जीवन भर को मुक्त करा दे ।
प्यास बुझा कर तन मन की , 
                     मुझको मेरी दिशा दिखा दे ।

वर्ना जब तक मन प्यासा है , 
                     तन को प्यासा रहना ही है ।
या जब तक तन प्यासा है , 
                     मन में आनी नयी अभिलाषा है ।
यूँ जब तक तन मन प्यासा है , 
                     फिर जीवन पाने की आशा है ।

अब चाह रहा मै वो अमृत , 
                     जो कण्ठ को मेरे तृप्त करा दे ।
तन मन की मेरी प्यास बुझाकर , 
                     जीवन भर को मुक्त करा दे ।
श्याम रंग में मुझे डुबोकर , 
                     अब तो मेरे ईश्वर से मुझे  मिला दे ।

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मंगलवार, 7 मई 2013

रिश्तो की डोर...

रिश्तो की डोर कोई , उलझ गयी ऐसी ,
ना तोडे से टूटे , ना सुलझाई जाए ही..

रिश्ता भी ऐसा , जिसे दिल ही निभाए ,
ना छोड़े से छूटे , ना अपनाया जाए ही.. 

सांप और छछुंदर सी , हो गयी स्थिति ,
ना निगल ही सके , ना उगला जाए ही..  

रिश्तो की डोर जब , उलझ जाए ऐसी ,
कितना ही बचाओ , गाँठ लग जाए ही..

जितना ही समझो , ना बात समझ आये ,
सुलझाते सुलझाते , बात उलझ जाए ही..

अटक गयी बात जो , वो दिल से ना जाय ,
कितना ही भुलाओ , फिर से याद आये ही..

गैर कोई हो तो , कुछ बतलाया जाए भी ,
अपनो को यारो , ना कुछ कहा जाए ही..

रिश्तो की डोर एक , उलझ गयी ऐसी ,
ना तोडे से टूटे , ना सुलझाई जाए ही..

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ये नहीं है जगत वो...

ये नहीं है जगत वो , जिसको चाहा था मैंने ।
वो सपनों का महल था , ये है खण्डहर विराना ।
सोंचा था मैंने कुछ , हरे भरे बाग़ होंगे ।
फूलो की खुशबू और , फलो की मिठास होगी ।
सुबह शाम ठंडी-ठंडी , चलती बयार होगी ।
कभी कभी रिमझिम सी , आती बरसात होगी ।
बागो से कोयल की , आती पुकार होगी ।
मंदिर में बजते , घंटो की टंकार होगी ।
न्यायप्रिय राजा , और जनता खुशहाल होगी ।
धरती पर स्वर्ग की , वो एक मिसाल होगी ।

लेकिन ये स्वप्न था , और स्वप्न ही रह गया ।
महल सारे गिर गए , और खण्डहर ही रह गया ।
बाग़ सब उजड़ गए , कंटीले झाड़ो से भर गए ।
फूल तो खिले नहीं , फलो की क्या बात करे ।
चहुओर कौए है और , गिद्धराज राज करे ।
कर्कश सी तान पर , वो अपना बखान करे ।
चाहता है मन मेरा , लौट चलू घर की और ।
फिर ना कभी आऊ , भूले से इस बनवास में ।

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रविवार, 5 मई 2013

प्यासा सारा जीवन है..

धरती प्यासी, नदिया प्यासी , प्यासा सारा अम्बर है ।
तन प्यासा है , मन प्यासा है , प्यासा सारा जीवन है ।
प्यास लगे जब धरती को तो , नदियाँ उसकी प्यास बुझाये ।
प्यास लगे जब नदियों को तो , अम्बर उसकी प्यास बुझाये ।
प्यास लगे जब अम्बर को तो , सागर उसकी प्यास बुझाये ।
प्यास लगे जब सागर को तो , उसकी प्यास को कौन बुझाये ?

प्यास लगे जब जीवन को , तन है उसकी प्यास बुझाये ।
प्यास लगे जब तन को भी , मन है उसकी प्यास बुझाये ।
प्यास लगे जब मन को , उसकी प्यास को कौन बुझाये ?
सोंच रहा हूँ कैसे बुझे अब , प्यास लगी जो सागर को ।
सोंच रहा हूँ कैसे बुझे अब , प्यास लगी जो मेरे मन को ।
शायद कोई आकर बुझाये , अपने प्रेम की गागर से ।

प्रेम की गागर से जो छलकी , अमृत की दो चार भी बूंदे ।
पीकर तृप्त हो जायेगा ,  मन मेरा और सागर भी । 
तो आओ खोजे हम उसको , जिसके पास है प्रेम की गागर ।
चाहे उसकी खातिर हमको , बनना पड़े स्वयं प्रेम का सागर ।

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अब भी है समय...

जीवन में कभी कभी , कुछ पल ऐसे आते है ।
जहाँ हम प्रायः: अपनी , मर्यादाओ को भूल जाते है ।
और भुलाकर मर्यादाओ को , जो कुछ भी हम करते है ।
आज नहीं तो कल हम , कही न कही उसकी भरपाई करते है ।
और अगर हमको कभी , होता नहीं गलती का एहसास ।
तो किसी अपने के दिल पर , निश्चित होता है बज्रपात ।

तो 

अब भी है समय , संभल जा ओ राहगीर ।
फिर ने नए भरोसे को , बना तू आस-पास ।
वो गलतिया तुम्हारी , जो तुमने की थी कभी ।
गर हो सके मानो , तुम जाकर उसके पास ।
जिसको लगी थी चोट , मूर्खता से त्तुम्हारी ।
शायद इसी तरह से , फिर बने नया विशवास ।

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शुक्रवार, 3 मई 2013

विशवास...

जब कभी होगी जरूरत , फिर नए विशवास  की ।
जिन्दगी को उलझनों के , जाल में हम डाल देंगे ।

उलझनों के जाल से , जब निकल कर आयेंगे ।
एक नए विशवास का , आधार लेकर आयेंगे ।   

जब कभी होगी परिक्षा , फिर मेरे विशवास की ।
जिन्दगी खुद ही रचेगी , नीव नए निष्ठाओ की ।

कौन कहता है कि जलता , स्वर्ण भी है आग  में ।
वो सदा तपकर निखरता , आग  के ही खाक से ।

और अगर उलझने ही , ना घेरे हमारी राहो को ।
तो करे क्यों हम इकट्ठा , इतनी सब निष्ठाओ को ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

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आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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