सभ्यता के दौर में भी , क्यों है भूँखा आदमी ?
गिद्ध सी दृष्टि से , क्यों देखता है आदमी ?
चील सा सब पर झपटता , आज क्यों है आदमी ?
आदमी के मांस को , क्यों नोचता है आदमी ?
घर में वो संतान है , माता पिता की शान है ।
भाई बहन के पर्व का , वो आज भी निशान है ।
अपने जीवन साथी के , आन का वो मान है ।
संतानों के अपने सभी , वो सदा अभिमान है ।
सभ्यता के दौर का जो , आज ये इन्सान है ।
देखने में जो भी लगे , अन्दर से हैवान है ।
छू रहा होता है जब , किसी दूसरे इन्सान को ।
उँगलियों के पोर से , चखता है वो मांस को ।
आँख चाहे जो कहे , वो तौलती है मांस को ।
शब्द प्रगट हो न हो , मन सोंचता है भाव को ।
हो नजर कितनी भी नीची , देखती टेढ़ी ही है ।
साधुता के लबादे में , लालच भी पलती ही है ।
कुछ लोगो में अवशेष है , ईमानदारी आज भी ।
पूरी कीमत वो चुकाकर , साख रखते मांस की ।
इस तरह वो भूंख का , आदर्श बनाया करते है ।
सभ्यता के दौर में भी , भूँख मिटाया करते है ।
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