हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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मंगलवार, 27 जुलाई 2010

देवता बनने की चाहत।

 देवता बनने की चाहत , क्यों छुपाये मन में हों।
 ठीक से देखो जरा ,   क्या मनुज बन पाये हों ?


 लोभ के दलदल में ,   तुम धंसे हों इस समय ।
 वासना के जाल   को ,  काट पाये  किस  समय ?


 जब  लूट कर गैरों को ,  बाँटते अपनो में हों ।
 फिर पाप के बीज से  ,  चाहते  क्यों  पुण्य हों ?


कलुषित है मन अगर , व्यर्थ है चन्दन का टीका ।
कर्म अगर विपरीत हों, प्रवचनों का है मर्म फींका ।


केवल पोथी रटकर ही, धर्म का अर्थ है किसने जाना ?
छुधा कहाँ मिट पाती है ,  बिना पेट में जाये दाना ??


दौड़ जीतने के पहले , तुम्हे सीखना होगा चलना ।
देवतुल्य बनने से पहले, दानव से मानव है बनना ।
                           
                      © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

2 टिप्‍पणियां:

Anamikaghatak ने कहा…

बहुत सुंदर प्रस्तुति........नइ सोच

vandana gupta ने कहा…

सही कहा……………सुन्दर प्रस्तुति।

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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