हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

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शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

एतिहासिक घृणा

बचपन की कहानियों में , और जंतु बिज्ञान की किताबों में ।
इस बात का जिक्र होता है , आदमी का जानवरों से पुराना रिश्ता है ।
थे आदम के पुरखे जो , चार पैरों पर चलते थे ।
नोंच कर वो औरों को , अपना पेट भरते थे ।
घूमते थे नग्न वो , था नहीं रिश्ता कोई ।
मनुष्य को मनुष्य ही , था नहीं जँचता कोई ।


सदियों पहले की बात है , जानवर बन गया आदमी ।
दो पैरों पर चलने लगा , शिकार हाथ से करने लगा ।
जन्म शर्म को उसने दिया , वस्त्रों का अविष्कार किया ।
अपना अधिकार जताने को , परिवार का उसने रूप दिया ।
पूंछ छिपाकर अन्दर की , दांत घटाकर छोटा किया ।
मगर मिटा ना पाया वो , औरों के प्रति अपनी घृणा ।

गुजरी हुयी सदियों में , उसने बहुत कुछ सीखा है ।
कैसे सजाकर प्लेट में , माँस को चिचोड़ा जाता है ।
कैसे दिन-दहाड़े राह में , अस्मत को लूटा जाता है ।
कैसे पहनकर वस्त्रो को , नग्न दिखा जाता है ।
कैसे झुका कर घुटनों पर , औरों को जीता जाता है ।
कैसे आधुनिक रूपों में , घृणा छिपाया जाता है ।

अपनी घृणा छिपाने को , उसने तरकीबे खोजी बहुत ।
कपडे सुन्दर बनवाये , आभूषण तन पर सजवाये ।
बाल सवाँरे उसने अपने , धर्म चलाये उसने कितने ।
मानवता-भाईचारे का , स्वांग रचाया सबसे मिल कर ।
लेकिन अपने अंदर की , घृणा मिटा ना पाया वो ।
घृणा की आग में तपकर , पत्थर दिल बन पाया वो ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

अंतत:..

तन अगर थकने लगे , मन तेरा निढाल हो ।
ज्ञात और अज्ञात के , भेद का ना ज्ञान हो ।
बोझिल जब लगने लगे , उपदेश धर्म गुरुओं के ।
मन में जब चुभने लगे , दंश जटिल सिद्धांत के ।
ढोल से कर्कश लगे , आदर्श जब संसार के ।
तुझको व्यथित करने लगे , भाषा अभिमान के ।

छोड़ कर संसार को , एकांत में जाओ कहीं ।
प्रकृति की गोद में , आश्रय तुम पाओ कहीं ।
भूल जाना बज रही , मंदिरों की घंटियों को ।
ध्यान ना देना किसी , अजान देती मस्जिदों को ।
राह वो चुनना जिधर , कोई मिले ना धर्म गुरु ।
पाखंड का करना नहीं , व्यापार तुम कोई शुरू ।

बस कहीं एकांत में , तुम सिर टिका देना धरा पर ।
फेंक कर सब शास्त्र को , निढाल होना तुम वहां पर ।
चीखना तुम जोर से , मन को लगे जो डर कहीं ।
जाकर लिपट जाना किसी , पेंड़ से यदि हो वहीँ ।
मिट रहे अभिमान को , बस देखते रहना वहीँ ।
फिर छोड़ देना मन को भी , तुम अकेले में कहीं ।

याद मत रखना वहां , तुम शक्ति अपने बाजुओं की ।
व्यर्थ मत गढ़ना वहां , कोई बात तुम तर्क की ।
कर सके तुम यदि इसे , अज्ञात को तुम पाओगे ।
अज्ञात के साथ में , समझ ज्ञात को भी जाओगे ।
फिर ना कोई धर्म होगा , ना कोई आडम्बर ही ।
फिर ना कोई खंड होगा , ना कोई पाखंड ही ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 8 सितंबर 2010

जिंदगी कागज की नाव

जिंदगी है बरसाती नदी सी , इन्सान कागज की नाव है ।
है नहीं पतवार कोई , कस्ती बहती धारा के साथ है ।

कहीं भँवर है उसे घुमाती , कभी हैं लहरे उसे हिलती ।
कभी भिंगोती बारिस की बूंदे , कभी पवन से वेग वो पाती ।

जिस मोड़ पे लहरें मुडती है , वो मुड जाती उसके साथ है ।
जीवन चक्र को पूरा कर , कस्ती खो जाती नदी के साथ है ।


कर्म है उसका चलते रहना , भाग्य है सब कुछ सहते रहना ।
जन्म से लेकर अंत समय तक , प्रतिपल धारा संग बहते रहना ।
सहना रोज थपेड़े को , नित अवरोधों से टकराते रहना ।
हर होनी अनहोनी को , बरदान मान कर चलते रहना ।
कागज की हर नाव का , अंत ही उसका भाग्य है ।
बहती रहे अगर निश्चल हो , तो यह उसका सौभाग्य है ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

खोखली है जिंदगी.......!

खोखली है जिंदगी , खोखले आदर्श सब ।
खोखली बातों के संग , जी रहे है लोग सब ।

जो नहीं खुद को पसंद , वो चाहते औरों से हम ।
जो नहीं कर पा रहे , कह रहे शब्दों में हम ।

घट रहा जो भी यहाँ , चलचित्र सा लगता कभी ।
एक ही सुर ताल पर , जब डोलने लगते सभी ।
मर चुकी संवेदनाये , पत्थर के हैं इन्सान ज्यों ।
इंसानियत की चाह में , फिर जी रहें है लोग क्यों ?

हाथ में पत्थर नहीं , पर शब्द पत्थर से ना कम ।
मासूम सा चेहरा मगर , दिल जालिमो से है ना कम ।
जो नहीं कह पा रहे , लिख रहे शब्दों में हम ।
खोखली है जिंदगी , खोखले हो चुके हैं हम ।
 
 © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

कल्कि पुराण - सतयुग,द्वापर,त्रेता,कलयुग

सतयुग,त्रेता,द्वापर,कलयुग , बस चार युगों का जीवन है ।
सत है प्रथम और कलि अंतिम , त्रेता द्वापर मध्य में है ।
हर एक काल अपने में विशिष्ट , मानव जैसा ही किलिष्ट ।
हर युग ये दर्शाता है , जीवन कैसे बदलता जाता है ।
वो 'सतयुग' था जब धरती पर, प्रज्ञा का पहला उदय हुआ था ।
कोई चार शीश का प्राणी था , कोई स्रहस भुजाओं वाला था ।
सत था सच्चा और पहला भी , वो चार पैर पर चलता था ।
लोभ,मोंह और त्याग की बातें , नहीं समझ वो सकता था ।
फिर आया 'त्रेता' युग आगे , जो तीन पाँव पर चलता था ।
लोभ,मोंह और त्याग की बातें , पूर्ण समझ वो सकता था ।
तब मानव थे,कुछ दानव थे , कुछ वानर थे कुछ रीछ वहां ।
कुछ सतयुग के थे शेष बचे , कुछ त्रेता युग की देन वहां ।


फिर दो पैरों पर 'द्वापर' आया , जिसने विकसित मानव पाया ।
ख़त्म हुयीं संक्रमण जातियां , हो गया विभाजन नर, वानर का ।
फिर मानव ने खोई मानवता , कल-पुर्जों वाला कलयुग आया ।
आधा मानव , आधा कल , ये मानव का अंतिम युग आया ।
अब लेंगे 'कल्कि' अवतार जब , मानव 'रोबोट' बन जायेगा ।
प्यार,मोहब्बत , अपनापन , सब कुछ भूल वो जायेगा ।
होगा विध्वंस मानवता का , सतयुग फिर से आयेगा ।
धरती माँ को फिर से उसका , वैभव प्राप्त हो जायेगा ।।
( अथ कल्कि पुराण द्वित्तीय अध्याय समापनं)
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

कल्कि पुराण

 हे कलियुग के दीन दुखी प्राणियों , तुम्हारे कल्याण और आत्मा की शांति हेतु मै 'भगवान कल्कि' का मानव दूत तुम्हे चारो युगों की सम्पूर्ण कथा समय कम होने के कारण संक्षेप में सुनाता हूँ ,जिसे समझ पाना तो तर जाना वर्ना फिर व्यर्थ में मुझे ना सताना ।"     श्री श्री १००००८ महर्षि विवेक

 प्रथम अध्याय

           हे मूर्ख दीन दुखी प्राणियों ! जैसा कि तुम जानते हो पर मानते नहीं हो यह संसार अजर अमर अविनाशी नहीं है , यहाँ काल चक्र का पहिया निरंतर घूमता रहता है । ना यह संसार पहले था , ना फिर आगे होगा, यह तो मात्र क्षणिक युगों के लिए निर्मित हुआ है और फिर नष्ट हो जायेगा ।
         
           तुम जिसे सूर्य कहते हो वैसे ना जाने कितने ख़रब सूर्य आज भी तुम्हारे सामने चमक रहें है और ना जाने कितने प्रतिपल नष्ट होकर पुन: जन्म ले रहें है जिनमे से कुछ को तुम तारों के रूप में देखते हो और कुछ को देखने की अभी तुम्हारी सामर्थ नहीं विकसित हो पायी है । और तुम जिसे धरती कहते हो ऐसी कई संख-पद्म धरती अपने चन्द्रमा आदि के साथ इन सूर्यो के चारो तरफ अखिल ब्रम्हाण्ड में भरी पड़ी हैं और उसमे तुम्हारी भाषा के अनुसार ना जाने कितने तरह के सीधे , गोल मटोल , चौकोर , टेड़े-मेड़े,छोटे-बड़े प्राणियों का जीवन बिखरा पड़ा है । 
       
            तुम्हारी तरह ही प्रत्येक धरती का हर प्राणी अपने भगवान को सबसे बड़ा और अपने आप को ही सर्वश्रेष्ट प्राणी मानता है और अपनी जाति को ही अपने भगवान की सबसे सुंदर रचना मानता है । मगर अफ़सोस आज तक किसी भी संसार का कोई भी धर्म अथवा विज्ञानं उस अथाह गहराई को नहीं पा सका है जहाँ से यह सब अरबो-खरबों संसार प्रतिपल जन्म ले रहें है और नष्ट होकर पुन: अनंत अंधकार में समा रहें है ।
- अथ प्रथमो अध्याय: समापनं ।
 © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

मूर्ख मन..

होता है आसान बहुत , अपमानित करना औरों को ।
जहर उगलना विषधर बन , कलंकित करना औरों को ।
बड़ा मजा आता है मन को , सुनकर निंदा औरों की ।
भरता पेट अहम् का जब , व्यथा देखता औरों की ।
जटिल जीव इन्सान यहाँ , बोता कुछ फल चाहे कुछ ।
नीचा दिखाकर औरों को , ऊपर उठना चाहे कुछ ।
औरों को जहर पिलाता है , स्वयं मरने से डर जाता है ।
अपमान के घूँट को जन्मो तक , भूल नहीं वो पाता है ।
राख के ढेर में जैसे कोई , सुलगा करती चिंगारी है ।
मन की जटिल ग्रंथियों में , बदले की भावना रह जाती है ।
जिस दिन मिलता अवसर है , पलटवार मानव करता है ।
अपने अपमानो का बदला , गिन गिन कर वो लेता है ।
इतने पर भी मानव को , है नही समझ ये सीधी सी ।
अपमानित करते आज जिसे , उसका वक्त भी होगा कभी ।
जो चाह रहे हम अपने लिए , क्या देते है वो औरों को ?
स्वर्ग चाह कर अपने लिए , नरक  में रखते औरों को ।
क्यों याद नहीं रख पाते हैं  , जो बोया वो ही काटे हैं ।
बोकर पेड़ बाबुल का कब , आम का फल हम पाते हैं ।

 © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

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आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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