सुनो इन गूंजती प्रतिध्वनियों को ,
जो थाती हैं हमारे शब्दों की ।
इंसानों सा ये नहीं मरती हैं ,
अनंतकाल तक ये यूँ ही विचरती ।
सुन पाओ तो ये हमें बताती हैं ,
हमारा इतिहास हमें सुनाती हैं ।
भेद कर ये हमारे मुखौटों को ,
असली चेहरा हमें दिखाती हैं ।
ये याद दिलाती हैं हमने ,
कितने वादे करके भुला दिये ।
पल-पल बदलते जीवन में ,
कितने मुखौटे प्रयुक्त किये ।
कितनी कसमे लेकर हमने ,
उन्हें बेशर्मी से छोड़ दिया ।
कितने दिलों को बेदर्दी से ,
हमने अब तक तोड़ दिया ।
हर गूँज हमारे शब्दों की ,
फिर लौट कर वापस आती है ।
भूली बिसरी बातों की ,
ये याद हमें दिलाती है ।
गलत सही का भेद हमें ,
शायद समझाना चाहती है ।
इसी लिए ये अनंतलोक का ,
विचरण कर वापस आती है ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
1 टिप्पणी:
बहुत सार्थक और सटीक चित्रण..बहुत सुन्दर
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