हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

बारम्बार अनेको बार ।

रचा गया यदि मुझे यहाँ तो , नियति को था मंजूर यही ।
बिना नियति की मर्जी के , कैसे बनता नियति नियंता ।

रचा नियति ने जगत यहाँ ,
बारम्बार अनेको बार ।
मिला जन्म है मुझको भी ,
बारम्बार अनेको बार ।

कभी बनाया उसने मुझको ,
धर्म-ध्वजा का पहरेदार ।
कभी बसाकर राज-पाठ को ,
सौप दिया मुझे उसका भार ।

कभी जगत के सभी तत्व का ,
करने दिया मुझे व्यापार ।
कभी चरण-रज धोने को मुझे ,
उसने झुंकाया बारम्बार ।

कभी उगाकर पंख बदन में ,
उसने दिया व्योम उपहार ।
कभी तैरना मुझे सिखाकर ,
पाने दिया सागर का प्यार ।

जितनी बार रचा जग उसने , किया जन्म मेरा उद्धार ।
यही चलता रहेगा अनंत काल तक , बारम्बार अनेको बार ।


© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

3 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बढ़िया..

ana ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत सुन्दर भाव ..अच्छी रचना

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण


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