रचा गया यदि मुझे यहाँ तो , नियति को था मंजूर यही ।
बिना नियति की मर्जी के , कैसे बनता नियति नियंता ।
रचा नियति ने जगत यहाँ ,
बारम्बार अनेको बार ।
मिला जन्म है मुझको भी ,
बारम्बार अनेको बार ।
कभी बनाया उसने मुझको ,
धर्म-ध्वजा का पहरेदार ।
कभी बसाकर राज-पाठ को ,
सौप दिया मुझे उसका भार ।
कभी जगत के सभी तत्व का ,
करने दिया मुझे व्यापार ।
कभी चरण-रज धोने को मुझे ,
उसने झुंकाया बारम्बार ।
कभी उगाकर पंख बदन में ,
उसने दिया व्योम उपहार ।
कभी तैरना मुझे सिखाकर ,
पाने दिया सागर का प्यार ।
जितनी बार रचा जग उसने , किया जन्म मेरा उद्धार ।
यही चलता रहेगा अनंत काल तक , बारम्बार अनेको बार ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
3 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया..
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
बहुत सुन्दर भाव ..अच्छी रचना
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