हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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शुक्रवार, 18 मई 2012

तुम अब भी वैसे ही हो..

क्यों होते बेचैन हो इतना , क्यों स्वयं को भरमाते हो ।
सतरंगी इस जीवन से , क्यों अपना चेहरा छिपाते हो ।

मैंने सोंचा था शायद ,  जीने की कला तुम सीख गए ।
मौसम के परिवर्तन का , कुछ आनंद उठाना सीख गए ।

पर तुम अब भी वैसे ही हो , जैसा मै तुमको छोड़ गया ।
अचरज भरी निगाहों से , मुझे देख रहे क्यों छोड़ गया ।

मैंने सोंचा था शायद , मेरे जाने से तुम संभल जाओगे ।
मुझपर लगाये आरोपों से , आगे तुम निकल जाओगे ।

तुम थे तब मेरे बंधन में , जो तुमको दुख पहुंचता था 
निर्द्वंद जीवन का सुख , तब मन को तेरे ललचाता था ।

लेकिन तुम हो वहीं खड़े , जहाँ मै तुमको छोड़ गया था ।
देख तुम्हे होता है दुःख , क्यों मै तुमको छोड़ गया था ।

चलो लौट मै आया फिर , सच पूँछो गया कहाँ था दूर ।
तुम भले ना अपना समझो , तुम हो मेरे आँखों के नूर ।


 सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

1 टिप्पणी:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बहुत खूब ... शब्दों कों गहरे भाव दिये हैं आपने ..

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

मेरे ब्लाग का मोबाइल प्रारूप :-http://vivekmishra001.blogspot.com/?m=1

आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

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