अम्बर बरसै धरती भींजे , नदिया तब उतराए ।
सहेज समेट कर इस जल को , सागर में मिल जाए ।
सागर से फिर बादल बन कर , अम्बर को मिल जाए।
इसी तरह से चलती रहती , प्रकृति की सब क्रीडाये।
आओ हम भी अब बन जाए , प्रकृति के हमराही।
एक दूजे पर प्रेम लुटाकर , कहलाये प्रेम पुजारी।
जितना प्रेम लुटाएँगे हम , उससे ज्यादा पाएंगे।
जितना प्रेम हम पाएंगे , वो सब तुमको लौटाएंगे।
अगर कहीं रुक गया नियम ये , धरती बंजर हो जायेगी।
सूखेंगी सब नदिया सारी , सागर भी मिट जायेंगे।
प्रेम की लय जो टूट गयी तो , तुम भी चैन ना पाओगे।
मेरे जैसा साथी कोई , इस जग में फिर ना पाओगे।
हमको अपना क्या कहना , बिन जल के ही मर जाएंगे।
तेरे बिना इस धरती पर , कहीं चैन ना पाएंगे।
तो फिर आओ करे प्रयत्न , नियम सदा ये अटल रहे।
एक दूजे की खातिर हम , भावों से सदा भरे रहें।
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
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