रोंको अपने अश्रु नयन में ,
भूले से बाहर ना ढलके ।मोल अश्रु के परख सके ,
अब नहीं पारखी जग में मिलते ।
जो मूल्य जानने वाला ना हो ,
हीरे को कांच समझता है ।
कांच के टुकड़ो को सहेज कर ,
हीरा जैसा रखता है ।
जब तक अश्रु नयन में होते ,
मोती से अनमोल वो होते ।
एक बार जो बाहर ढलके ,
मिटटी में जाकर वो मिलते ।
ज्यों ही तुम हो इन्हें गिरते ,
ये गिरा तुम्हे भी देते हैं ।
अपने निष्कासन के बदले ,
सब राज तुम्हारा कहते है ।
आँखों में बनते ये मोती ,
जब-जब बाहर ढलते हैं ।
अंतरमन की कातरता को ,
जग में प्रगट कर देते हैं ।
बाहर निकले अश्रु सदा ,
व्यथा सार्वजनिक कर जाते हैं ।
औरों के परिहास का पात्र ,
पीछे जग में हमें बनाते हैं ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG
2 टिप्पणियां:
बिल्कुल सही कहा है ...मुझे रहीम जी का एक दोहा याद आ रहा है -- रहिमन निज मन की व्यथा , मन ही राखे गोय
बहुत अच्छी प्रस्तुति -
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 22 -03 - 2011
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.blogspot.com/
बहुत बढ़िया रचना है...
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