प्रीति नही जब मुझसे तुमको , कब तक तुमको बांध सकूँगा ।
प्रीति बढाई जाती उससे , जिसको प्रीति निभाना आता ।
उसको क्या मै प्रीति सिखाऊ , जो बैरागी बनने जाता ।
ज्यों बिन बरखा के बादल , गरज-बरस कर चले गए ।
तुम भी आये पल-दो पल , फिर अंजानो सा चले गए ।
जब तुम्हे नहीं परवाह हमारी , क्यों मै ही तुमको याद करूँ ।
जब तुम मुझको बिसराते हो , फिर क्यों कोई फरियाद करूँ ।
ऐसा भी नही है यह जीवन , तुम बिन मुश्किल हो जायेगा ।
जब वक्त की धारा बदलेगी , हर घाव एक दिन भर जायेगा ।
जब प्रीति की आस जगायी है , नया मीत हमें मिल जायेगा ।
तेरे बिन भी जीवन पथ पर , एक जीवन साथी मिल जायेगा ।
जब जाते हो तो जाओ प्रिये , अब क्यों मै तेरी आस लगाऊं ।
तेरे दुःख में अपना जीवन , अनंत काल तक क्यों भटकाऊं ।
क्यों ना तेरे जाते ही मै , सुन्दर से किसी बाग में जाऊं ।
मदमस्त हवा के झोंको को , कोई सुन्दर गीत सुनाऊं ।
अपना पराया भूल सभी को , नव आमंत्रण मै भिजवाऊं ।
भूतकाल को भुला कर अपना , वर्तमान मै पुन: सजाऊं ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG
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