हे भगवान,

हे भगवान,
इस अनंत अपार असीम आकाश में......!
मुझे मार्गदर्शन दो...
यह जानने का कि, कब थामे रहूँ......?
और कब छोड़ दूँ...,?
और मुझे सही निर्णय लेने की बुद्धि दो,
गरिमा के साथ ।"

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा एवं प्रतिक्रिया हेतु मेरी डायरी के कुछ पन्ने

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मंगलवार, 9 सितंबर 2014

आओ स्वप्नदर्शी बने...

स्वप्नों का संसार अनोखा , और अनोखी स्वप्न साधना ।
काल समय का भेद मिटाकर , स्वप्न नए जगत दिखाता ।
नित जाने-अनजाने लोकों की , स्वप्न हमें है सैर कराता ।
उत्तर कई अबूझ पहेलियों के , स्वप्न ही प्राय: हमें बताता ।

कुछ लोग देखते स्वप्नों को , जब वो निंद्रा में होते हैं ।
खुलती उनकी आँखे जहाँ , वो स्वप्न तिरोहित होते हैं ।
व्यर्थ हो जाते स्वप्न सभी , जो केवल निंद्रा में देखे जाते ।
कभी धरा का ठोस धरातल , स्वप्न नहीं वो बन पाते ।

पर कुछ बिरले मानव होते , जो स्वप्नदृष्टा हैं बन पाते ।
खुली आँख से स्वप्न देखते , स्वप्नों को साकार बनाते ।
खुली आँख से देख स्वप्न को , जीवान्त यहाँ जो कर पाते ।
वही स्वप्नदर्शी इस जग का , कायापलट सदा कर जाते ।

है अगर भूँख कुछ करने की तो , खुली आँख से देखो स्वप्न ।
तन मन धन सम्पूर्ण लगाकर , सृजित करो धरा पर स्वर्ग ।
जब स्वप्न धरातल पर उतरे , तब कहलाती स्वप्न साधना ।
जब सत्य स्वप्न का मूल बने , तब मन की वो बनती कामना । 

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

रविवार, 17 अगस्त 2014

मिले जो राह में कांटे..

मिले जो राह में कांटे , कदम वापस ना लेना तुम ।
उन्हें समेट कर आगे , कदम अपने बढ़ाना तुम ।
मिले जो राह में ठोकर , कदम धीमे ना करना तुम ।
कदम की ठोकरों से ही , राह खाली कराना तुम ।
खड़े अवरोध हों आगे , ना घबड़ाकर रुक जाना तुम ।
मिटाकर हस्तियाँ उनकी , मंजिल अपनी पाना तुम ।

मिले जो संगी साथी तो , उन्हें भी साथ ले लेना ।
मगर घुटनों पे रेंग कर , कभी ना साथ तुम देना ।
निभाना दोस्ती या दुश्मनी , आगे ही बढ़कर तुम ।
मगर कभी पीठ में छुरे को , ना अवसर देना तुम ।
लगी हो जान की बाजी , अगर मंजिल को पाने में ।
कभी भूले से ना मन में , हिचकिचाहट लाना तुम ।

भले ही लोग करते हों , तुम्हारी कैसी भी निंदा ।
भूल कर जग की बाते , साथ सच का ही देना तुम ।
ना खाना खौफ तूफानो से , हौंसला साथ तुम रखना ।
भले ही कुछ भी हो जाए , साथ तुम अपनो के रहना ।
दिखे कुछ भले मुश्किल , मगर मुश्किल कहाँ कुछ भी ।
अगर तुम ठान मन में लो , कहाँ कुछ भी तुम्हारे बिन ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG 

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

सामंजस पर टिकी ये श्रृष्टि है..

कुछ अच्छाई और बुराई के ,
सामंजस पर टिकी ये श्रृष्टि है ।
विपरीत ध्रुवो के बिना कहाँ ,
कभी चल पायी कोई श्रृष्टि है ।
शिव शक्ति के मिले बिना  ,
नहीं होती श्रृष्टि की उत्पत्ति है ।

मानव जाति है जग में तो ,
दानवो जाति भी होगी ही ।
यदि देवो का है देवलोक ,
असुर लोक भी होगा ही ।
अच्छाई बिना बुराई के ,
पहचानी नहीं कभी जाती ।

अगर है बहती प्रेम की धारा ,
फिर विरह वेदना होगी ही ।
त्याग अगर है इस जग में ,
फिर लोभ की ज्वाला होगी ही ।
दुःख के बिना नहीं इस जग में ,
सुख का एहसास हो पाता है ।

अच्छाई और बुराई के ,
सामंजस पर टिकी ये श्रृष्टि है ।
विपरीत ध्रुवो के बिना कहाँ ,
कभी चल पायी कोई श्रृष्टि है ।
सामंजस्य बनाकर चलना ही ,
जीवन की है बस नियति है ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

ये मान्यता है...पर मै इससे कदापि सहमत नहीं।

मान्यता है और मीडिया के लोग कहते हैं ये तस्वीर राम भक्त हनुमान जी के पैरों की है श्रीलंका में.... 

पर मै इससे कदापि सहमत नहीं कि ये तस्वीर राम भक्त हनुमान जी के पैर हैं


अगर ये निशान हनुमान जी के पैरों का होता तो अकेला नहीं होता..वरन दूसरे पैर का निशान या और भी पदचिन्ह होते वहां पर क्योंकि हनुमान जी केवल एक पैर पर तो खड़े नहीं रहे होंगे लंका में।


निश्चित तौर पर यह बाली पुत्र और वानर सेना के सेनापति महाबली अंगद के पैर के निशान हैं।

और ये तब के हैं जब वो भगवान् राम के दूत बनकर रावण की सभा में गए थे और रावण के ललकारने के जबाब में अपना "एक पैर जमा कर" वहीँ राजसभा में खड़े हो गए थे और समस्त राक्षस जाति को ललकार कर बोले थे कि यदि कोई मेरा एक पैर भी हिला दे तो भगवान् राम अपनी हार बिना युद्ध के मान लेंगे...

और कहते हैं कि महाबली अंगद ने अपना पैर भूमि में इतना तगड़ा जमाया था कि दशानन रावण के दरबार का कोई भी बलशाली राक्षस और यहाँ तक उसका इंद्र तक को बंदी बना लेने वाला पुत्र इन्द्रजीत भी अंगद के एक पैर को हिला नहीं पाया था।

तो यह सत प्रतिशत निश्चित तौर पर अगर है किसी के पैरों का निशान तो महाबली बालि पुत्र अंगद का ही।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG 

गुरुवार, 31 जुलाई 2014

तुम्हे शौख होगा...

तुम्हे शौख होगा चेहरे पर मुखौटे पहनने का,
हम अपने चहरे पर कोई नकाब नहीं रखते।

तुम्हे शौख होगा बातों को घुमाकर कहने का,
हम अपनी जबान में झूंठी मिठास नहीं रखते।

तुम्हे शौख होगा झूंठ को सच सच को झूंठ कहने का,
हम अपने जानिब झूंठी किस्सागोई का हुनर नहीं रखते।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

मंगलवार, 29 जुलाई 2014

एक सूफी कहानी....


एक फकीर सत्य को खोजने निकला। 
अपने ही गाव के बाहर, जो पहला ही संत उसे मिला, एक वृक्ष के नीचे बैठे, उससे उसने पूछा कि मैं सदगुरु को खोजने निकला हूं आप बताएंगे कि सदगुरु के लक्षण क्या हैं? 
उस फकीर ने लक्षण बता दिये...लक्षण बड़े सरल थे।
उसने कहा, ऐसे-ऐसे वृक्ष के नीचे बैठा मिले, इस-इस आसन में बैठा हो, ऐसी-ऐसी मुद्रा हो बस समझ लेना कि यही सदगुरु है।

फिर फ़क़ीर चल पड़ा खोजने सदगुरु...
कहते हैं तीस साल बीत गये, सारी पृथ्वी पर चक्कर मारा बहुत जगह गया, लेकिन सदगुरु न मिला। बहुत मिले, मगर कोई सदगुरु न था। थका—मादा अपने गाव वापिस लौटा। लौट रहा था तो हैरान हो गया, भरोसा न आया...वह बूढ़ा बैठा था उसी वृक्ष के नीचे। 
अब उसको दिखायी पड़ा कि यह तो वृक्ष वही है जो इस बूढ़े ने कहा था, ‘ऐसे-ऐसे वृक्ष के नीचे बैठा हो।’ और यह आसन भी वही लगाये है, लेकिन यह आसन वह तीस साल पहले भी लगाये था। क्या मैं अंधा था? इसके चेहरे पर भाव भी वही, मुद्रा भी वही। वह उसके चरणों में गिर पड़ा। कहा कि आपने पहले ही मुझे क्यों न कहा? तीस साल मुझे भटकाया क्यों? यह क्यों न कहा कि मैं ही सदगुरु हूं?

उस बूढ़े ने कहा, मैंने तो कहा था, लेकिन तुम तब सुनने को तैयार न थे। तुम बिना भटके घर भी नहीं आ सकते थे । अपने घर आने के लिए भी तुम्हें हजार घरों पर दस्तक मारनी पड़ेगी, तभी तुम आओगे। कह तो दिया था मैंने, सब बता दिया था कि ऐसे-ऐसे वृक्ष के नीचे, यही वृक्ष की व्याख्या कर रहा था, यही मुद्रा में बैठा था; लेकिन तुम भागे- भागे थे, तुम ठीक से सुन न सके; तुम जल्दी में थे। तुम कहीं खोजने जा रहे थे। खोज बड़ी महत्वपूर्ण थी, सत्य महत्वपूर्ण नहीं था तुम्हें। लेकिन आ गये तुम! मैं थका जा रहा था तुम्हारे लिए बैठा-बैठा इसी मुद्रा में! तीस साल तुम तो भटक रहे थे, मेरी तो सोचो, इसी झाड़ के नीचे बैठा कि किसी दिन तुम आओगे तो कहीं ऐसा न हो कि तब तक मैं विदा हो जाऊं! तुम्हारे लिए रुका था आ गये तुम! तीस साल तुम्हें भटकना पड़ा अपने कारण। जबकि सदगुरु मौजूद तुम्हारे सामने ही।

बहुत बार जीवन में ऐसा होता है, जो पास है वह दिखायी नहीं पड़ता, जो दूर है वह आकर्षक मालूम होता है। दूर के ढोल सुहावने मालूम होते हैं। दूर खींचते हैं सपने हमें।

अष्टावक्र कहते हैं कि तुम ही हो वही जिसकी तुम खोज कर रहे हो। और अभी और यहीं तुम वही हो।

तकनीकी का आया युग है..

देखो देश तरक्की पर है , तकनीकी का आया युग है ।
चोरी चोरी चुपके चुपके , कल तक बिकता था ईमान ।
आज बिक रहा है वो देखो , खुल्लम खुल्ला इंटरनेट पर ।
कल तक भाव लगा करता था , गिनकर खोखा पेटी को ।
आज बिक रहा है ईमान, नेतागण का लेकर नाम । 

देखो देश तरक्की पर है , तकनीकी का आया युग है ।
कल तक बिकते थे जनसेवक , सत्ता के तंग गलियारों में ।
आज बिक रहें है वो देखो  , खुल्लम खुल्ला इंटरनेट पर ।
पहले भाव बताते थे कुछ , सत्ता के घुसपैठ दलाल ।
आज लगाता भाव है देखो , इंटरनेट पर ओलेक्स डाट काम ।

देखो देश तरक्की पर है , तकनीकी का आया युग है ।
कल तक बिकती थी अस्मिता , लाल रोशनी की बस्ती में ।
आज बिक रही है वो देखो , खुल्लम खुल्ला इंटरनेट पर ।
पहले तो कुछ चुपके चुपके , लोग दलाली करते थे ।
आज कर रहा है सब खुलकर , इंटरनेट पर बाजी डाट काम ।

देखो देश तरक्की पर है , तकनीकी का आया युग है ।
कल तक रात अँधेरे में जो , लूट रहे थे राज पथो को ।
आज डकैती डाल रहे है  , खुल्लम खुल्ला इंटरनेट पर। 
कल तक गली मोहल्लो में जो , चोर सिपाही खेल रहे थे ।
आज खेलते हैं अब देखो , साइबर क्राईम डाट डाट काम ।

देखो देश तरक्की पर है , तकनीकी का आया युग है ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG 

आपके पठन-पाठन,परिचर्चा,प्रतिक्रिया हेतु,मेरी डायरी के पन्नो से,प्रस्तुत है- मेरा अनन्त आकाश

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आभार..

मैंने अपनी सोच आपके सामने रख दी.... आपने पढ भी ली,
आभार.. कृपया अपनी प्रतिक्रिया दें,
आप जब तक बतायेंगे नहीं..
मैं कैसे जानूंगा कि... आप क्या सोचते हैं ?
हमें आपकी टिप्पणी से लिखने का हौसला मिलता है।
पर
"तारीफ करें ना केवल, मेरी कमियों पर भी ध्यान दें ।

अगर कहीं कोई भूल दिखे ,संज्ञान में मेरी डाल दें । "

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