मेरी डायरी के पन्ने....

शनिवार, 31 जुलाई 2010

गिद्ध साहित्य की दूसरी किस्त

दोस्तों ,
            कुछ लोगों ने पहले भी मुझसे पूंछा था कि ये आपका गिद्ध साहित्य क्या है , तो यहाँ कोई इसे पूँछे उससे पहले ही आपको बता दूँ कि आजकल ज्यादातर गिद्ध आसमान से गायब होकर पूर्णतया धरती पर निवास करने लगें है, और तो और उन्होंने मानव जाति से प्रभावित होकर मानव का चोला भी धारण कर लिया है (मगर मन अभी भी उनका वही है पुराना वाला है), अब आखिर वो भी मानव हो चुकें है और उनकी संगत में कुछ मानव गिद्ध बनने में प्रयत्नशी हैं ,तो उनके लिए भी कुछ साहित्य होना चाहिए ना ? तो उसे कौन लिखेगा ,वो स्वयं तो अपने लिए लिखेगे नहीं ,तो मैंने बीणा उठाया है कहाँ तक उनके साथ न्याय कर पाया हूँ अब यह तो आप लोग ही बतायेगे ........

'गिद्ध' दिष्ट से देख रहे , कुछ लोग यहाँ औरों को हैं ।
कुछ लोग गिरे घायल होकर , तो छुधा मिटे उनके तन की ।
जितने ज्यादा लोग गिरे , उतना ही साम्राज्य बढ़े ।
मांस नोचने को शायद , उनका कुछ अधिकार बढ़े ।
पीकर रक्त दूसरो का , शायद कुछ मन की प्यास बुझे ।
औरों के क्षत-विक्षत अरमानो से , कुछ उनकी अपनी आस जगे ।

तो अगर लड़ रहे लोग यहाँ , कुछ बे-मतलब की बातों पर ।
क्या है जरुरत गिद्धों को ? , जो समझायें उनको जाकर ।
उनका काम चुपचाप देखना , घटित हो रही घटना को ।
अपनी बारी आने तक , मन पर संयम रखने को ।
डरते है अन्दर ही अन्दर , अपने मन मे सारे गिद्ध ।
कहीं समझ ना आ जाये , और थम ना जाएँ सारे युद्ध ।
कही पनप ना जाये हममे , सद-बुद्धि और भाई-चारा ।
अगर हो गया ऐसा कुछ तो , मर जायेगा गिद्ध बेचारा ।।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

स्वंबली ही है बलशाली

जिन्हें चाहिए बल औरों का ,
वो पूजा करें बलवानों का ।
मुझको अपने बल का भरोसा, 
क्यों मान  रखूँ अभिमानों का ।  

जो लोग पूजते हैं उनको ,
जो हों चढ़ते सूरज की तरह ।
वो क्या आश्रय देंगे तुम्हे ,
तुम ढलते हुए सूरज की तरह ।

वो स्वं निर्भर हैं औरों पर ,
औरों से बल पाते हैं ।
औरों के बल पर अब तक ,
कौरव बनकर जी पातें हैं।

जो लोग बनाते सूरज है ,
वो लोग ही बल दे पातें हैं ।
निज बुद्धि और बाहुबल से ,
रक्षित जग को कर पातें हैं ।

चाहे जितने बलशाली हों , 
ये शूर-वीर कौरव दल के ।
नहीं टिके हैं नहीं टिकेंगे ,
पांडव के आगे छल बल से।

ये कथा नहीं महाभारत की ,
हर युग का लेखा-जोखा है ।
स्वंबली के बल के आगे,
पराश्रितों ने घुटना टेका है।।  

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

प्रगति तभी प्रगति है जब वह निरंतर हो...।

प्रगति है सच्ची वही , जिसमे निरंतरता रहे ।
कल-कल बहती हुयी नदी सी, निर्मल स्वच्छ धारा बहे।
रुक गयी धारा अगर , विषाक्त हो जायेगा जल।
संचित हुए सब पुण्य का , खर्च हो जायेगा फल।।

चाहे प्रगति हो राष्ट्र की , या हो प्रगति वह धर्म की ।
चाहे प्रगति हो सामूहिक , या हो प्रगति निज लाभ की ।
शांति और सुख है वहीँ  , संतुष्टि हो मिलती जहाँ ।
संतुष्टि होती है वहीँ , निरंतर प्रगति होती जहाँ।।



© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

अंधेर नगरी

मित्रों,
         बचपन  में दादा जी के मुह से सुना था " अंधेर नगरी चौपट राजा, सवा सेर भाजी सवा सेर खाझा " पर क्या ये बात सिर्फ कहानियों तक ही सीमित है ? शायद नहीं , तो सुने ............. 
अंधकार का राज जहाँ हो,
                         आडम्बर पलता बढता है।
 मात्र दिखावा करने से ही,
                         जीवन यापन चलता है।
सच का होता मूल्य नहीं,
                         ना कोई पारखी होता है।
कोरे होते सिद्धांत सभी ,
                         आदर्श खोखला होता है।
नव पथ का होता श्रजन नहीं,
                         गणेश परिक्रमा होता है।
सच को झूंठ ,झूंठ को सच,
                         मनमाना निर्णय होता है।।
                     चाटुकारिता वहां पनपती,
                         तृप्त अहम् को मिलता है।
अपना हिस्सा पाने को,
                         बस गुप्त होड़ तब चलता है ।
आम को आम नहीं कहकर,
                         जग उसको इमली कहता है।
कुत्ते के पिल्लों को जग,
                         जंगल का राजा कहता है।
ऐसे चौपट राजा का ,
                         राज जहाँ भी चलता है।
वह राज्य छोड़ कर दूर कहीं,
                         बंजर में रहना अच्छा है।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

एक पड़ोसी जनता की पाती एक पड़ोसी जनसेवक के नाम

सेवा में 
स्वं-घोषित विकास पुरुष नितीश कुमार जी

वैसे तो आप मुझे जानते नहीं होंगे तो मै आपको बता दू कि मेरा आपका रिश्ता पड़ोसी जनता और पड़ोसी जनसेवक वाला है क्योंकि मै आपकी सीमा (सीमा का अर्थ दायरे से ले ना कि किसी महिला मित्र के नाम से ) से सटे उत्तर प्रदेश जिसका (इसका दूसरा नामकरण भैया प्रदेश के रूप में उन बीर मराठों ने किया  जिनके शासक के बारे में इतिहास बताता है की वो हमेशा मारो और भागो की नीति पर काम करते थे और एक बार पकड़ में आ जाने पर उनके एक राजा को औरंगजेब ने मरवाकर छोटे छोटे टुकड़ों में कटवाकर मांस कुत्तों को खिलाया था)  की जनता हूँ और आप इससे सटे-सताए दूसरे भैया प्रदेश के  राजा है।

पहले तो मुझे अपने व्यस्तताओं के कारण बिलम्ब से पत्र लिखने हेतु क्षमा कीजियेगा।
आशा है आपका स्वस्थ और हाल (हवाला)-चाल ठीक-ठाक ही होगा क्योंकि अभी तक तो सी.बी.आई आपका स्वस्थ पारीक्षण करने नहीं ही गयी है।

तो प्रिय 'जन सेवक' जी, कृपया आप इस 'जन सेवक' वाले संबोधन से नाराज ना होना क्योकि मूलत: जन सेवक पुराने बाबा-आदम के गाय और भैस के दूध से बने देसी घी वाले ज़माने में उसे कहते थे जो जनता की निश्वार्थ भाव से सेवा करते थे और बदले में कुछ भी नहीं लेते थे ।
परन्तु
आजकल हमारे-आपके ज़माने में जब जानवरों और इंसानों की हड्डियों को आग में तपाकर चर्बी से असली वाला नकली देसी घी बनाया जा रहा हो तो वो पुरानी बात कहाँ, अब तो वही असली जन सेवक है जो जनता से निश्वार्थ भाव से अपनी सेवा करवाए और बदले में उसको कुछ भी ना दे।

एक ब्रेक...........
                                 सीसी भरी गुलाब की , पत्थर पर पटक दिया।
                                 बेशर्म सीसी तो ना टूटी ,  पत्थर चटक गया ।।
नोट :- कुछ ऐसा ही दोहा  पहले के ज़माने के अधिकांश पत्रों में लिख जाता था मगर काल समय के अनुसार मैंने आज के स्वरुप के साथ लिखा है।

अब  पत्र आगे लिखता हूँ-
दो-चार दिन पहले अखबार के माध्यम से एक सचित्र समाचार छपा था जिसमे फोटो में एक महिला विधायक नचा-नचाकर, शब्दों पर जरा ध्यान दीजियेगा कहीं अर्थ का अनर्थ ना हो जाय, तो महिला विधायक नाच-नाच कर नहीं वरन नचा-नचाकर विधानसभा भवन के प्रवेश द्वार पर रखे गमलो को पटक रही थी और बाकी के  फोटास रोग (फोटो खिचवाने हेतु लालयित रहने वाला रोग) से पीड़ित सत्ता पक्ष और विपक्ष के विधायक (साथी गायक, वादकगण और दर्शकगण) उन्हें घेर कर तमाशा देख रहे थे।

हो सकता है कि दूरदर्शन चैनलों पर इस सब का सीधा प्रसारण भी आया हो क्योंकि आजकल बच्चो को बचपन से ही उच्च पेशेवर ज्ञान देने के लिए सदन की कार्यवाही कभी कभी सीधा प्रसारित भी किया जाता है पर मै अ-भागा कहीं और धान कूटने के चक्कर में उसे देखने से चूक गया।

खैर जब समाचार को देख कर मन भर गया (दुखी होने वाला नहीं वरन आँख सकने वाला) तो समाचार पढना शुरु किया तब ज्ञात हुआ कि असल मामला किसी बड़े संभावित  घोटाले का है जिसके कारण ये हंगामा हुवा। अब आप ही बताये बाढ़ जैसे आपदा के समय  जब राहत कार्य हेतु तत्काल चारा (मानवों का) ढोया जाना हो तो उसमें कौन बैठ कर पहले जांच करे कि गाड़ियों का नंबर, दो-पहिया वाहनों का है ना कि चार पहिया वाहनों का ?  और अगर दो-पहिया वाहनों का प्रयोग कर ही लिया गया तो यह तो अवसर के संवेदनशीलता  को देखते हुए राहत कर्मियों के तत्परता से निर्णय लेने का मामला है जिसके लिए उन्हें पुरस्कार ही मिलना चाहिए।

और आपके पहले के शासन में जानवरों के चारे का घोटाला हुआ था , तो आप तो विकास पुरुष है आपके राज में प्रगति तो होनी ही चाहिए ना , आखिर प्रगति कर के ही जानवर से मानव बना है ना।

और सदन के अन्दर सभापति पर जिस किसी नेता ने एक चप्पल फेंका था उसे उसका दंड भी मिल गया है, वो बेचारा सदन में मचे भागम भाग में अपनी मंदिर से चुरायी चप्पल को वापस भी नहीं प्राप्त कर सका और दुखी मन से दूसरी को रोड पर फेंककर बिना चप्पल के ही घर गया, हो गया गरीबी में आँटा  गीला ।
                                                 चप्पल चली बिहार में , हुवा सदन में हाहाकार।
 नेता को नेता ने पीटा , ये कैसा है अत्याचार ?
खुला पिटारा लूट का, मिला नहीं सबको हिस्सा।
मौसेरे भाई ने खोला, मजबूरन ये सारा किस्सा।

खैर अब जो हुआ सो हुआ पर मेरी तरफ से आपको मुक्त-कंठ से ढेर सारी बधाई स्वीकार हो।
बधाई इस बात की, कि अंतत: आपके शासन काल में एक लंबे अंतराल के बाद शायद बिहार पुन: अपना पुराना स्वरुप वापस पाने जा रहा है (यहाँ मै चक्रवर्ती महाराजा अशोक के ज़माने के बिहार के पुराने स्वरुप की बात नहीं कर रहा हू वरन आपके पुराने सखा आदरणीय लालू जी और जगन्नाथ मिश्र जी के ज़माने की बात कर रहा हूँ जिनके साथ आपने राजनीत का क , ख , ग सीखा था), और हम सभी नाहक ज्यादा दिन हैरान परेशान होने से बच गए कि क्या हो गया बिहार को, कैसे वो पलट गया मौसमों की तरह ।

और ये चप्पल वगैरा चलाने की तो आप चिता ही मत करियेगा, चप्पल वाले नेता लोग बेचारे अभी भी गरीबी की रेखा के नीचे ही जी रहे है और कभी कभी अपना दुःख इस तरह से प्रकट करते है वर्ना आजकल अमीर देशों के नेता लोग जूता पहनते है और उन पर जनता भी, जो ज्यादा ही अमीर है जूता ही फेंकती है। 
वैसे हमारे प्रदेश के सदन में तो कुछ साल पहले कुर्सी और माइक भी चल चुका है और बीर-मराठे तो सदन में थप्पड़ भी चलाते है।

वैसे विकास पुरुष जी आप तो अत्यंत ही समझदार है, (तभी मलाई खा लेने के बाद अब भाजपा से पिंड छुडाने की सोंच रहे है)  इसलिये आप को ज्यादा क्या कहना बस लगे रहिये आखिर आपको भी तो आगे चुनाव लड़ना है, उसका खर्च-पानी कहाँ से आएगा ? , जनता तो अपने मन से देने से रही, उसे जाति धर्म , भाषा के नाम पर मूर्ख बना कर धोखे से लूटना ही पड़ता है।
तो लगे रहे जन सेवक जी , डिगे ना अपने काम से।
"ईमान" का क्या है वो तो होता ही है बिकने के लिए वर्ना उसमे नमक , तेल , मसाला डालकर अंचार थोड़े ही बनाया जाता है । तभी तो मै कहता हूँ -
"जब पूंछते है लोग हमसे , कब बेंचना ईमान है ?
मै ये कहता हूँ सभी से , हर पल बिकाऊ ईमान है ।
शर्त ये जो भाव हो , पाया ना कोई आज तक ।
मेरा मोल दे दो मुझे , सब खोंल दूंगा राज तक । 
हर चीज बिकती है यहाँ , खेल है सब भाव का ।
कौन क्या ले पायेगा , ये खेल नहीं है ताव का ।
कौन देता दाम है , कुछ भी बिना जांचे यहाँ ।
तो क्यों कोई कुछ बेंच दे, घाटे में अपना यहाँ ।
जिस छण मुझे मिल जायेगा, मोल मेरे भाव का। 
सौदा करने को मै राजी , हो जाऊंगा ईमान का।
व्यर्थ झिकझिक ना करो, यदि दाम ना हो पास में । 
मुहमाँगा भाव ना मिला तो, इमानदार मै रहूँगा।।"

आप की एक पड़ोसी जनता

तो इन्ही शब्दों के साथ जय-राम जी की।

पांडव बन कर रहें....

दोस्तों यदि आपको अपने जीवन में सफल होना है तो आपको पांडव बनना होगा अर्थात :-
  1. युधिष्ठिर :- युद्ध में स्थिर रहने वाला धर्म ,विवेक , बैराग्य।
  2. भीम      :- दृढ संकल्प, बल ।
  3. अर्जुन    :- एकाग्रता, एकनिष्ठा ।
  4. नकुल    :- कुलहीन ज्ञान ।
  5. सहदेव  :- लगन (भक्ति) ।
इस प्रकार हम अपने अन्दर सभी पांडवों के प्रतीक धर्म , संकल्प , एकाग्रता , ज्ञान और लगन को वास्तविक अर्थो में समाहित करना होगा क्योंकि बिना इन सभी को सम्मलित किये आप राष्ट्र को रोकने वाले 'धृतराष्ट्र' और उसके 'दु: ' नामधारी पुत्रों से लोहा नहीं ले सकते है ।

"काल का चक्र जब,
                          रच रहा कुचक्र हो ।
और उससे बचने का ,
                          हो ना कोई रास्ता ।
द्वार सब बंद हो ,
                         और रास्ते भी तंग हों ।
बढ़ रहा कुचक्र हो ,  
                         चल रहा नित चक्र हो ।
                                           तब
बचने को काल से ,
                         दो ही हैं रास्ते ।
रोंक दो चक्र को ,
                        और तोड़ दो कुचक्र को।
या तोड़ दो चक्र को ,
                         और रोंक दो कुचक्र को ।
फिर ना कोई चक्र होगा ,
                          ना ही कुचक्र होगा ।।"
 ध्यान रहे कि कुरुक्षेत्र की लडाई केवल द्वापर तक सीमित ना रहकर आज भी हमारे जीवन की दिन प्रतिदिन की घटना है ।
  

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

हे अधिकारी..

दोस्तों,
         जो यहाँ कहने जा रहा हूँ उसके लिए वैसे तो आपके सामने किसी भूमिका की जरुरत नहीं है, मगर फिर भी बता दूँ यह लोकतंत्र है, यहाँ सब राजा है , सब रंक भी है , सब सत्ता में है सब सेवक भी है, यह श्रंखला अनंत अपार असीम आकाश के समान विशाल है, । यहाँ भांति-भांति के स्वामी है और भांति-भांति के सेवक भी । उन्ही में से कुछ लोग ऐसे भी होते है जो मात्र आदर्श बघारते है और अपने लिए अपने अधिकारियों से कुछ और व्यव्हार चाहते है और अपने अधिनस्थो से कुछ और व्यव्हार करते है। यह किसी एक विभाग या व्यक्ति की बात नहीं है वरन आजकल के ६० से ७० प्रतिशत लोग इसी बीमारी से ग्रसित है तो प्रस्तुत है " हे अधिकारी"........... साथ ही अनुरोध है कि इसे मेरी निजता से ना जोड़े हालाँकि यह मात्र फलसफा भी नहीं है............

हे अधिकारी जगत मुरारी , नाच रहा तेरे आगे  मै ।
सुनकर तेरी वाणी को ,  स्वध्न्य सदा रहता हूँ मै ।
तेरे आने के पहले मै, रण-भूमि 'कुरुक्षेत्र' में आता हूँ ।
चक्रव्यूह के सब द्वारों का, मै  भेद तुझे बतलाता हूँ ।।

तेरे   खिलाफ लोगों का ,  मै कच्चा चिठ्ठा लाता हूँ ।
तेरी गर्दन  झुके कभी ,  उससे पहले मै झुक जाता हूँ ।
नाराज हो सको मुझ पर तुम, अवसर मै ले आता हूँ ।
तेरी डांट को सुनने में भी, मै हित ही सदा बताता हूँ।।

तेरी हाँ में हाँ मिलाकर , मै आनंद तुझे दिलाता हूँ ।
तेरी मूर्खता को भी मै, नित सिद्धांत नया बताता हूँ ।
तेरे  घर  के राशन को भी ,  मै   ही सदा मांगता हूँ ।
खाकर जो तुम डकार गए, उसको भूल मै जाता हूँ ।।
तेरे आगे अपनी बुद्धि ,  मै  कभी  नहीं  अजमाता हूँ ।
तुझसे ज्यादा सुन्दर बनकर, कभी नहीं मै आता हूँ ।
तेरे  बच्चो  के  लिए खिलौना ,  मै खरीदने जाता हूँ ।
भूलकर अपना जन्मदिवस, बस तेरा रटता जाता हूँ ।।

कलयुग के अवतार हो तुम, ये सबको सदा बताता हूँ ।
अपनी   नवीन खोजों को   मै ,   तेरे नाम चढ़वाता   हूँ ।
तेरी कमियों को आगे बढ़ , मै अपनी कमीं बताता हूँ ।
खुशहाल रहो तुम सदा यहाँ, ये पाखंड रोज रचाता हूँ ।।


यूँ चक्रवर्ती  सम्म्राटों सा मै , एहसास तुझे   कराता  हूँ ।
इस लोकतंत्र में राजतन्त्र का , घालमेल  करवाता हूँ ।
इतने पर भी अगर ना तुम , खुश हो पाओ  मेरे भगवान।
करबद्ध प्रार्थना है मेरी, अब तो ले जाएँ तुझको भगवान।।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

खोखले आदर्श और कोरे सिद्धांत..।

खोखले आदर्श और कोरे सिद्धांत,
दूर से बड़े  मनोहारी लगते है ।
उनके आगे छठा बिखेरते सप्तरंगी,
इन्द्रधनुषों के रंग भी  फींके लगते है।

लेकिन क्या हकीकत में ऐसा ही होता है?
पूंछो जरा उनसे जिन पर गुजरता है।
ढोल की पोल का उनको पता होता है,
शेर की खाल में सियार ज्यों चलता है।

जब तक है किस्मत बिकता सब मॉल यहाँ,
आगे कौन पूंछता क्या है  तेरा हाल यहाँ ?
अंत में लगनी है दोनों की बोली ,
किसी अजायबघर में सजनी है डोली।


© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

ईश्वर बनाम बेईमान सूदखोर

हे भगवान , क्या आप किसी बेईमान सूदखोर के समान है ?

मेरे ईश्वर
              मुझे क्षमा करे (हालाँकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि वास्तव में मै कुछ गलत कर रहा हूँ) कि "मै आपकी तुलना किसी बेईमान सूदखोर से कर रहा हूँ और मेरे इस किये जाने वाले पाप को मेरे पाप-पुण्य के खाते में ना डाले।
अगर ऐसा नहीं हो सकता है तो आपसे अनुरोध है कि इसका फल (यदि मेरा कथन सत्य है तो मेरा इनाम अथवा यदि मेरा कथन असत्य है तो सही वस्तुस्थित का ज्ञान) मुझे तत्काल प्रदान करने कि कृपा करें।
क्योकि 
  • मै जितना ही और अधिक हिन्दू धर्म और उसके पाप पुण्य के उपदेशों का चिंतन मनन करता हूँ ,
  • आपके इच्छा के विरुद्ध कुछ भी घटित ना होने के सिद्धांत को सुनता और स्वीकार करता हूँ,
  • आपकी परम सत्ता को स्वीकार कर उसमें अपनी आस्था रखता हूँ,
  • आपके कर्म फल,भाग्य,प्रारब्ध और उसके जन्मो-जन्मो तक चलने वाले चक्र के बारे में सोंचता हूँ,
उतना ही अधिक मुझे आप किसी बेईमान सूदखोर में समानता नजर आती जाती है !
जिस प्रकार
एक बेईमान सूदखोर कभी सच्चे मन से अपने मूल को वापस पाकर देनदार के खाते को बंद करने का प्रयास नहीं करता है वरन सदैव मूल पर सूद और सूद पर भी आगे सूद जोड़ कर खाता रहता है और प्रयास करता है कि उसका लेन देन का खाता जीवन पर्यन्त पीढ़ी दर पीढ़ी लगातार पिता से उसके पुत्र और आगे पौत्र आदि तक चलता रहे।  
उसी प्रकार
हे ईश्वर आप भी तो अपने प्राणियों के द्वारा किये गए कर्मो का हिसाब किताब उसका जीवन समाप्त  होने के बाद भी चलाते रहते है। कभी व्यक्ति अपने पूर्व जन्म के पितृ ऋण , कभी मात्री ऋण, कभी गुरु ऋण, कभी भ्राता ऋण तो कभी स्वं ऋण आदि ना जाने कितने ऋण के बंधन से बंधा रहता है। और यह हिसाब किताब भी पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है ।
पुनः देखे
जिस प्रकार एक कर्जदार पिता का पुत्र स्वं कर्ज ना लिए होने के बाद भी अपने पिता की मृत्यु के बाद उसके कर्जो को पाटता है उसी प्रकार एक नया जन्म लेने वाला बालक भी तत्काल अपने पूर्व जन्म के कर्जो को अपने नवीन जन्म में चुकता करना प्रारंभ कर देता है ।
माना कि
जो "बोया है वो काटेंगे" या "जैसा कर्म करेंगे वैसा फल पाएंगे "संसार का नियम है और उसी के अनुरूप अच्छे का फल अच्छा और बुरे का बुरा फल मिलाता है ।
मगर
मेरे परमात्मा क्या आप बता सकते है कि एक दुधमुहा बच्चा पैदा होने कि प्रक्रिया में क्या कर्म करता है जिसके कारण कोई बालक किसी अमीर घर में पैदा होकर सोने चांदी के बर्तन से दूध पीता है तो कोई साधारण घर में पैदा होकर जीवन की अत्यंत ही सामान्य प्रारंभ पाता है। और तो और किसी को तो यह भी नहीं नसीब होता है और उनकी माये उन्हें किसी सडक या सुनसान जगह पर बिना उसकी जीवन मरण का ध्यान छोड़ जाती है ! तो पैदा होते ही अलग अलग परिस्थितियां क्यों?
  •  जब आपने ही इस संसार की और मानव की रचना की और आप अभी भी इतने सर्वशक्तिमान है कि आपके इच्छा के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता या उसका फल प्राप्त नहीं हो सकता (पौराणिक काल से ही कहा जाता रहा है कि "हरी इच्छा बिन हिले ना पत्ता") तो कैसे कोई मानव गलत कार्य की तरफ अग्रसर हो जाता है ?
  • अगर शैतान के कहने या चाहने से मानव ऐसा करता है जैसा कि कुछ अन्य धर्म कहते है तो फिर क्या शैतान भी आपके सामानांतर सत्ताधारी है? और अगर ऐसा नहीं है तो फिर आप क्यों नहीं रोकते ?
  • और अगर आपने मानव की रचना की थी तो उसके मस्तिष्क को इस प्रकार क्यों बनाया कि वह गलत कार्य की ओर आकर्षित हो ? यह रचनाकार की त्रुटी नहीं है क्या ? 
  • और अगर आप किसी गलत कार्य हेतु जिम्मेदार नहीं है और मानव स्वं में इतना सक्षम है कि वो आपकी इच्छा के बिना गलत कार्य करता जाय तो क्या आपके "हरी इच्छा बिन हिले ना पत्ता का सिद्धांत गलत नहीं होता? फिर अगर रावण, कंस आदि महामानव (जो स्वं के स्तर पर अधित सक्षम हो गए थे )  ने आपकी सत्ता को  मानाने से माना किया तो उन्हें आपने पुन: जन्म लेकर क्यों मारा? क्या यह आज काल के ज़माने जैसा गरीबो का अमीरों के द्वारा किया जाने वाला उत्पीडन जैसा नहीं था ?  
  • कहीं इस गलत कार्यों में आपकी मौन स्वीकृत तो नहीं रहती? जिससे मानव सदैव अपराध बोध के साथ जीवन जीता रहे और आपसे अपने किये के लिए क्षमा मांगता रहे और आप लगातार उसके साथ पाप पुण्य का खेल खेल कर अन्त आकाश में कही दूर अकेले मजा लेते रहें ?
  •  मैंने धर्म गुरुवों से सुना है और बहुत सी पुस्तकों में पढ़ा भी है कि मरने के बाद बुरे लोंगो को दंड दिये जाने हेतु नरक और अच्छी लोगों को स्वर्ग मिलता है। तो वहीँ उसका हिसाब क्यों नहीं ख़त्म कर देते है? फिर बकाया लगाकर पुन: क्यों धरती पर भेजते है ?
  • क्या यह बेईमानी नहीं है कि खाता बंद नहीं होगा ? 
आपका यह लेन देन का, पाप पुण्य का, भाग्य और प्रारब्ध का चक्र कब तक चलता रहेगा और हम मानव इसमें पिसते रहेंगे।
तो मुझे तो आप में और किसी बेईमान सूदखोर में अभी भी अंतर नहीं नजर आ रहा है बाकी आपकी इच्छा।

सादर
       आपकी ही बनायीं एक मानव रचना ( विवेक मिश्र )

नोट :- अंत में मै विवेक मिश्र यह सिद्धांत प्रतिपादित करता हूँ कि हे मानवों -
"अगर तुम्हे कोई सताता है , दुखी करता है, तुम्हारे साथ अन्याय करता है और आप यह सोंचते है कि ईश्वर उसे इसका दंड देगा तो आपको यह भी सोंचना होगा कि हो सकता है यह आपके द्वारा पूर्व जन्म में उस व्यक्ति के साथ किये गए किसी अन्याय का दंड इस जन्म में उसके माध्यम से मिल रहा हो। अत: आपको अपने साथ अन्याय करने वाले को आगे दंड मिलने की केवल पचास प्रतिशत ही आशा करनी चाहिए और अन्यायी को दंड ना मिलने पर व्यर्थ में ईश्वर को दोष नहीं देना चाहिए।"

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 28 जुलाई 2010

संगी साथी और सफ़र

१. 
चल पड़े मेरे कदम , जिंदगी  की राह में ।
दूर है मंजिल अभी, और फासले है नापने।
जिंदगी है बादलों सी, कब किस तरफ मुड जाय वो ।
बनकर घटा-घनघोर सी ,  कब कहाँ बरस जाय वो ।
क्या पता उस राह में , हमराह होगा कौन मेरा ?
ये खुदा ही जानता , या जानता जो साथ होगा। 

२.
कारवां की खोज में , क्यों भटकते आप हों ?
तुम सफ़र अपना करो , कारवां मिल जायेगा।  
क्यों है हसरत साथ की , जब तुम अकेले आये हो ।
एक दिन सब छोड़ कर ,  सब फिर  अकेले जायेंगे ।
भूल से तुझको कहीं , साथी अगर मिल जायेगा ।
तेरा दिल रोयेगा जब , वक्त बिछुड़ने का आएगा ।
          
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG


 

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

देवता बनने की चाहत।

 देवता बनने की चाहत , क्यों छुपाये मन में हों।
 ठीक से देखो जरा ,   क्या मनुज बन पाये हों ?


 लोभ के दलदल में ,   तुम धंसे हों इस समय ।
 वासना के जाल   को ,  काट पाये  किस  समय ?


 जब  लूट कर गैरों को ,  बाँटते अपनो में हों ।
 फिर पाप के बीज से  ,  चाहते  क्यों  पुण्य हों ?


कलुषित है मन अगर , व्यर्थ है चन्दन का टीका ।
कर्म अगर विपरीत हों, प्रवचनों का है मर्म फींका ।


केवल पोथी रटकर ही, धर्म का अर्थ है किसने जाना ?
छुधा कहाँ मिट पाती है ,  बिना पेट में जाये दाना ??


दौड़ जीतने के पहले , तुम्हे सीखना होगा चलना ।
देवतुल्य बनने से पहले, दानव से मानव है बनना ।
                           
                      © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

दिल्ली चलो

दिल्ली चलो, दिल्ली चलो, दिल्ली अभी भी दूर है ।
जो मिली "आजादी" हमको , वो बड़ी मजबूर है ।
अब   भी   चलता है यहाँ , शासन  किसी और का ।
नेता हमारे  हैं   मगर ,  फैसला किसी   और का ।

रोज लहराते 'तिरंगा' ,  पर नहीं बनता निशां
हिंद को ही भूलकर , 'जै-हिंद' हम कहते यहाँ ।
आपस में ही लड़ रहे , फिर बाँटने को देश हम ।
क्या करे नेताओं को ,  रह गया है  काम कम ।
हों चुकी है हरित-क्रांति , सोना उगलते खेत है ।
फिर भी देखो भूँख से, मर रही जनता यहाँ की ।
कहीं उफनती है नदी ,   है कहीं पड़ा सूखा पड़ा ।
कौन लेगा देश हित मे , कब कोई फैसला कड़ा ।
दिल्ली चलो,दिल्ली चलो दिल्ली अभी भी दूर है ।
नारा दिया था जिसने हमको, वो कहीं अब दूर है।
माँगा था उसने हमसे तब, खून की कुछ चंद बूंदें।
पर बहाया उसको हमने ,  घर के आंगन में कहीं।
है यहाँ 'हिन्दू' कोई , कोई 'मुस्लिम' है यहाँ ।
सिख हैं कुछ लोग तो , 'ईसाई' भी रहते यहाँ ।
क्या जन्म लेगा देश में , कोई 'भारतीय' कभी?
या सोवियत-संघ  की तरह, देश बिखरेगा अभी ?

कब तलक सीमाओं पर, अपमान हम सहते रहेंगे।
कब तलक इस देश में, यूँ भष्टाचारी पलते रहेंगे ।
रोज अगणित ढल रही,टकसाल में मुद्रा यहाँ की।
फिर भी देखो चल रही,बाजार में मुद्रा कहाँ की ?
अफसोस है अफ़सोस है , देश फिर भी खामोश है।
मर गए है   लोग    सब ,  या हैं नशे में धुत पड़े ?
दिल्ली चलो, दिल्ली चलो, दिल्ली अभी भी दूर है।
जो मिली आजादी हमको ,   वो  बड़ी मजबूर है ।

आवो चल कर फिर करें  ,  हम इकठ्ठा  खून को ।
खेतो में फिर से उगायें   ,  क्रांति के नव-सूत्र को ।
झिझकोर कर हम जगाएं,फिर देश के नौजवाँ को।
क्रांति की घुट्टी पिलाये , देश के सब नौनिहाँ को।
माँगती है जन्मभूमि , फिर कुछ नए बलिदान को।
आवो मिलकर हम सजाये , फिर नए संग्राम  को ।
आगे बढ़कर हम बदल दें ,  विश्व के भूगोल को ।
और ढहा दे दासता के   , शेष बचे अवशेष को ।

पर ना देखो चूक जाना  , तुम कहीं  फिर भूल से ।
देश को रखना बचाकर , अब भेड़ियों के झुण्ड से ।
पहले भी जीती थी हमने , अपने जाँ पर बाजियां ।
अफ़सोस हमने सौंप दिया, कुछ गीधड़ो को हस्तियां।
हमने समझा था जिन्हें , ये देश के है पहरूवा
अब वतन आगे बढेगा ,    अब वतन आजाद है ।
रोंक पाये वो ना अपने  ,   अंतर्मन के लोभ को ।
देश को गिरवी रखा , बेंच कर स्वाभिमान को ।

तो चलो हम प्राण करें , अब वतन आजाद होगा ।
कौमें जो रहती यहाँ, उनको वतन पर नाज होगा ।
देश में मुद्रा हमारी और, फैसले सब अपने होंगे ।
फिर ना कोई संघर्ष होगा, ना कोई बलिदान होगा।
                                        
       (भारत को पुन: नवीन क्रांति की जरुरत है...........क्या आप तैयार हैं निडरता के साथ..? )
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

रविवार, 25 जुलाई 2010

जगतगुरु ने कहा है जब से..

जगतगुरु ने कहा है जब से , जग है माटी मोल ।
भाव बढ़  गया माटी का , अब माटी है अनमोल ।

खाली हाथ ही आये है , खाली हाथ ही जाना है ।
जब से कहा ये जगतगुरु ने , कर्ज का सबने खाया  है ।

क्या है मेरा क्या हैं तेरा , ये दुनिया रैन बसेरा है ।
जगतगुरु की सुनकर बाते , औरों का मॉल बटोरा है।

अब तो कहते लोग सभी , जो तेरा था वो मेरा है ।
तेरा कब था तेरा जिसको , तू कहता ये मेरा है ।

जब खाली हाथ ही आये थे , सब औरों से ही पाए हों ।
लौटा दो अमानत औरों की , मोह से क्यों भरमाये हों ।

माटी मोल है जीवन ये , सब माटी में मिल जायेगा ।
करो दान और पुण्य कमाओ , वही  साथ में जायेगा

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

ब्लागाचार

स्वागतम
            प्रिय विजिटर जम्बू दीप/आर्यावर्त/देवभूमि/भारतवर्ष/भारत/हिंदुस्तान/हिंद/इण्डिया अथवा इस भू-मंडल के किसी भी कोने में स्थित जिस किसी भी देश के आप निवासी हों "http://vivekmishra001.blogspot.com."  यू.आर.एल पर स्थित मेरे ब्लाग अनंत अपार असीम आकाश पर आयोजित ब्लागाचार के अवसर पर मै आप का हार्दिक स्वागत करता हूँ, अभिनन्दन करता हूँ, महिमामंडन करता हूँ।

आप के चरण मेरे ब्लाग पर क्या पड़े,क्षमा कीजियेगा ये तो हों नहीं सकता है क्योकि उस स्थिति में आपके डेस्कटॉप के मानीटर अथवा लैपटाप की जीवनलीला समाप्त  हों जाएगी, तो यूँ कहें कि आपके माउस और की-बोर्ड की सहायता से आपकी नजर मेरे ब्लाग पर क्या पड़ी,मेरा ब्लाग धन्य हों गया।

और चूँकि यह मेरा ब्लाग है तो मारे ख़ुशी के "वो आये मेरे ब्लाग पर, कभी मै अपने ब्लाग को तो कभी मेरे लाइव ब्लाग विजिटर फीडर  में दर्ज हुए उनके आने के संकेत को देखता हूँ" (लाइव ब्लाग विजिटर फीडर यह देखने के लिए ही लगाया है कि देखे मशीनी सर्च इंजन के पर मारने के अलावां क्या कोई इन्सान भी मेरे ब्लाग पर आता जाता है या नहीं), साथ ही सोंचता हूँ कि वो क्या हसीन पल रहे होंगे जब आपने मेरे ब्लाग पर आने का फैसला किया होगा (यहों स्पष्ट कर दूँ की ये मै अपने पल के सन्दर्भ में  बात कर रहा हूँ, आप के वो पल हसीन थे अथवा नहीं ये मै कैसे जान सकता हूँ हुजूर) । 

वैसे आप सोंच सकते है कि मै इतना ज्यादा नम्र होकर आपका स्वागत सत्कार क्यों कर रहा हूँ (और आपको ऐसा कुछ भी सोंचने का अधिकार भी है क्योंकि आज लगभग सभी देश आजाद है और उसके नागरिक स्वतंत्र)।
तो जनाब यह जान लें कि एक तो यह मेरे देश जम्बू दीप/आर्यावर्त/देवभूमि/भारतवर्ष/भारत/हिंदुस्तान/इण्डिया की परम्परा है कि द्वार पर आये हुए का चाहे वो आपका शत्रु  ही क्यों ना हों,का पहले स्वागत-सत्कार किया जाना चाहिए फिर आगे पात्रता के अनुरूप कोई कार्यक्रम ।
फिर ऊपर से जैसे "करेला और नीम चढ़ा" (हालाँकि शायद यह गलत जगह पर कहा गया सही मुहावरा अथवा सही जगह पर कहा गया गलत मुहावरा है जो भी समझें),के अनुरूप  मै जम्बू दीप के उत्तम प्रदेश में स्थित लखनपुर जिसे आजकल लखनऊ कहते है का रहने वाला हूँ और हमारे यहाँ तो गाली भी मान-सम्मान के साथ "आप" शब्द लगाकर दिया जाता है (जैसे "आपकी ...... का ........", "आप ....... है", आदि)।
और यहाँ तो मै आपका स्वागत कर रहा हूँ। हाँ अगर स्वागत में कुछ लखनउवा अंदाज कम दिखे तो  फिर क्षमा कीजियेगा मै पिछले  १०-१२ सालों से रोजी रोटी के चक्कर में उन इलाकों में घूमता रहा हूँ जहां के लिए कहा जाता है कि "यहां की साकी को भी मुह लगा लो तो जबान बिगड़ जाती है) ।     

और हाँ कहीं ऊपर का पैरा पढ़ कर आप ने यह तो नहीं समझ लिया कि मैंने आपको शत्रुओं की श्रेणी में रखा दिया है...या मै आपको लखनवी अंदाज में गाली दे रहा हूँ.......!

तो जनाब पहले मै यह स्पष्ट कर दूँ की जब तक आप प्रकट्य रूप से जाने-अनजाने में मेरा किसी प्रकार का कोई अहित नहीं करते है तब तक मै आपको अपना शुभकांछी/ मित्र/हितैषी/सहयात्री  ही समझूंगा और आप की सज्जनता के आगे मै कदापि अपनी दुर्जनता प्रगट नहीं होने दूंगा और यही मेरा सजग और सहज स्वभाव भी है।  

और अब बात ब्लागाचार की जिसके बारे में आप सोंच रहे होंगे कि यह क्या बला है तो इसके बारे में जान ले की जैसे पहले घर के द्वार पर आने वालों विशिष्टगण के स्वागत में द्वारचार होता था (यह पुरानी बात है,पहले यह अवसर सभी को मिलता था आजकल तो केवल बारातियों को ही मिलता है और फ़िलहाल यहाँ शादी विवाह जैसा कोई कार्यक्रम नहीं है तो मै आपको विशिष्टगण ही मन रहा हूँ), मैने अपने ब्लाग पर आने वालों के स्वागत,अभिनंदन के लिए ब्लागाचार पृष्ट का मान्त्रिक आवाहन किया है।

और अब तीसरी बात स्पष्ट कर दूँ की मेरे ब्लाग पर आपको देवनागरी लिपि में लिखे हुए  पृष्ट दिखाई देंगे मगर इससे आप किसी प्रकार का यह भ्रम ना पालिएगा कि मै हिंदी का कोई बहुत बड़ा ज्ञाता हूँ ना ज्ञाता बनने  की कोशिश  है, ना इसके लिए रोजी रोटी के चक्कर में समय ही है।
आपको बता दूँ की मैंने हिंदी की सजग रूप से पढ़ाई मात्र  माध्यमिक स्तर तक ही की थी और उसे भी बहुत साल हों गए हालाँकि मै हिंदी साहित्य पड़ता रहता हूँ मगर उस समय मेरी आधी सजगता कहीं और ही होती है।
दूसरे आजकल हिन्गलिस का जमाना है तो आदत ख़राब हों गयी है।
तीसरे जैसा की आप को ऊपर बता चूका हूँ कि मै लखनऊ का हूँ तो लखनवी तहजीब के उर्दू के शब्द भी मेरे जबान पर घुले-मिले हैं ।
और सबसे बड़ी चौथी बात, रोमन से देवनागरी में परिवर्तन कि व्यवस्था, जरा सा ध्यान हटा कि ना जाने क्या से क्या शब्द और मात्रा हों जाये ,फिर या तो पुराना ही खोज खोज कर सुधार करते रहिये या कुछ नया कीजिये। 

तो आपसे अनुरोध है की ....

शब्दों पर ना जाये मेरे,बस भावों पर ही ध्यान दें।
अगर कहीं कोई भूल दिखे उसे भूल समझकर ही कहकर टाल दें।
खोजें नहीं मुझे शब्दों में,मै शब्दों में नहीं रहता हूँ।
जो कुछ भी मै लिखता हूँ, अपनी जबानी कहता हूँ।
ये प्रेम-विरह की साँसे हो,या छल और कपट की बातें हो।
सब राग-रंग और भेष तेरे,बस शब्द लिखे मेरे अपने है।
तुम चाहो समझो इसे हकीकत,या समझो तुम इसे फँसाना।
मुझको तो जो लिखना था, मै लिखकर यारो हुआ बेगाना

                 तो जनाब अब यहाँ इस पृष्ट पर मै अपनी लेखनी को विश्राम दे रहा हूँ और किसी अन्य पृष्ट पर आपके लिए कुछ नया  करने का प्रयास करता हूँ तब तक जिसकी रचना हों चुकी है उसका आप आनंद लीजिये और आपने क्या महसूस किया अथवा अगर आपका महसूस तन्त्र यहाँ आने के बाद ख़राब हों गया तो भी उसके बारे में कमेन्ट बाक्स में अपना अमूल्य विचार अवश्य दीजियेगा ।

इन्ही शब्दों के साथ
नमस्कार









विवेक मिश्र "अनंत"

और सबसे अंत में एक जरुरी सूचना :-

१. इस ब्लॉग में लिखी गयी वे समस्त कविताये एवं आलेख जिस पर किसी अन्य लेखक के नाम का जिक्र नहीं है मेरा द्वारा लिखी जाने वाली मेरी डायरी के अंश है जिसे मै यहाँ पुन: लिख रहा हूँ एवं इस पर मेरा अर्थात विवेक मिश्र का मूल अधिकार है एवं इनके कहीं भी किसी भी रूप में प्रकाशन का सर्वाधिकार पूर्णतया मेरे पास है।
२. मेरी पूर्व अनुमति के बिना मेरी किसी कविता, लेख अथवा उसके किसी अंश का कहीं और प्रकाशन कांपीराइट एक्ट के तहत उलंघन माना जायेगा एवं गैर क़ानूनी होगा।
३. हाँ इस ब्लॉग अथवा मेरी किसी रचना को लिंक के रूप में प्रयोग किया जा सकता है परन्तु उसके साथ मेरे नाम का जिक्र आवश्यक होगा।
४. इस ब्लाग पर कभी कभी अन्य रचनाकार की रचना भी लगायी जा सकती है परन्तु वो हमेशा उनके नाम के साथ होगी।

शनिवार, 24 जुलाई 2010

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैने....गुलजार साहेब की रचना

दोस्तों
आपके सामने गुलजार साहेब की एक रचना प्रस्तुत है जिसे कितनी ही बार मै क्यों ना पढू मगर फिर इसे पढने की इच्छा मान में बनी ही रहती है.........

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पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैने....

काले घर मे सूरज रख के,
तुमने शायद सोचा था मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,
मैने एक चिराग़ जला कर अपना रास्ता खोज लिया.

तुमने एक समन्दर हाथ मे लेकर मुझपर ठेल दिया,
मैने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी.

काल चला तुमने, और मेरी ज़ानिब देखा,
मैनें काल को तोड के लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया.

मेरी खुदी को तुमने चंद चमत्कारों से मारना चाहा,
मेरे एक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया.

मौत की शह देकर तुमने समझा था, ...अब तो मात हुयी,
मैनें ज़िस्म का खोल उतार कर सौंप दिया और रूह बचा ली.
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी....
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खुदा (दस कहानियां) Rise and Fall
गुलजार

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

चिराग तले अँधेरा...।

दोस्तों

हम दीपक या चिराग जलाते है अपने आस पास के अंधकार को दूर करने के लिए और इसी लिए हम कहते है कि "जलाओ  दिये रह ना जाये अँधेरा..." 

और दूसरी तरफ कहावत है "चिराग  तले अँधेरा होता है।" जिसे आप सभी ने जरुर सुना होगा।

और ये मात्र कहावत ही नहीं है इस हकीकत को आपने अपनी आँखों से भी देखा भी होगा।
मगर क्या आपने कभी ध्यान दिया कि -
"जैसे जैसे, जिस अनुपात में दीपक का आकार बड़ा होता है और उससे निकले वाले प्रकाश और उर्जा की मात्रा बढ़ती  है वैसे वैसे उसी अनुपात में उसके तले में अन्धकार की मात्रा भी बढ़ती जाती है।"
अर्थात छोटे चिराग तले कम अँधेरा और बड़े चिराग तले ज्यादा अँधेरा दिखता है।

और "चिराग तले अँधेरा का सिद्धांत केवल दीपक पर ही नहीं लागू होता है वरन यह मानव जीवन पर भी सदैव लागू होता है। मैंने ना जाने कितने लोगों को दूसरों के बारे में कहते सुना है कि - यार इतना बड़ा व्यक्ति और ऐसी ओछी हरकत , ऐसी छोटी मानसिकता , छोटी छोटी चीजों के लिए ऐसी लिप्सा आदि आदि... और बहुत बार मै भी यही कहता हूँ कुछ तथाकथित विराट लोगों के लिए ।

और ये परखा हुवा सत्य है कि जैसे जैसे किसी व्यक्ति का पद, प्रतिष्ठा, प्रभुत्त्व बढ़ता है  अर्थात उसका बाह्य व्यक्तित्व बड़ा होता है वैसे वैसे उसके अन्दर की खामियां भी विराट स्वरुप धारण करती जाती है

इसके दो मुख्य कारण हों सकते है-

१. छोटे बाह्य व्यक्तित्त्व में पाई जाने वाली कमियों की तरफ कम ही ध्यान जाता है या हम उसे देख कर भी नजरंदाज कर देतें है। मगर जब उसी व्यक्ति का बाह्य व्यक्तित्त्व बड़ा हो जाता है तो हम सभी का और सारे समाज का ज्यादा ध्यान उस व्यक्ति की तरफ केन्द्रित होने लगता है और चाहे-अनचाहे बरबस ही उसकी कमियां हमारी नजर आँख में चुभने लगाती है। तो ये है देखने के नजरिये का नियम ...

२. कुछ गिने चुने महान लोगों को छोड़ दिया जाय तो जैसे जैसे छोटे बाह्य व्यक्तित्त्व वाले व्यक्ति की पद, प्रतिष्ठा, प्रभुत्त्व बढ़ता है अर्थात उसका बाह्य व्यक्तित्व बड़ा होता है वैसे वैसे उसके अन्दर अपने लोभ , लिप्सा , लालसा , और भूंख को जल्दी से जल्दी पूरी करने की तीब्र इच्छा उठने लगाती है और वो अन्दर से और ज्यादा कुटिल होने लगता है। तो यह है जैव विकास का नियम ...

इसलिये अगर आगे से आपको ऐसा कोई बड़े बाह्य व्यक्तित्व का तथाकथित विराट पुरुष, स्त्री या नपुंसक दिखे तो उसके कमियों के बारे में कहे जरुर मगर ज्यादा हैरान और अचम्भित ना हों क्योंकि यह प्रमाणित है कि "चिराग तले अँधेरा होता है।"

तो नमस्कार,
चलता हूँ ,  मुझे भी अपने अंतरतम के अंधकार में अपने व्यक्तित्व के अनुरूप अपने लोभ , लिप्सा आदि की पूर्ति के लिए कुछ देर खोना है।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG


गुरुवार, 22 जुलाई 2010

खेल तुम्हारा, गणित हमारा

मित्रों ,
मेरे किसी गुरु को उनके किसी गुरु ने सिखाया था,
जो मुझको उन्होंने अनजाने में बतलाया था......
"If you want to Win them ,
Then Join them,
Learn their Game from them,
Get Mastership in there game,
Then,Beat them in their Game....!"
मगर मैंने उसे "एकलव्य" सा अपनाया था ,
पर दुख है, इसे सबसे पहले उनपर ही अजमाया था ।
तो आनंद लीजिये कूटनीति का.....
*===================================================* 
(१.)
हतप्रभ ना हों तुम इतना , जो बोया था वो पाया है । 
तुमसे सीखे दाँव सभी , मैंने तुम पर ही अजमाया है ।
सब गणित तुम्हारी अपनी , सब खेल वही पुराना है ।
मैंने चुने हैं अपने मोहरे , बाकी सब नियम तुम्हारा है ।
सतरंज बिछाकर औरों को , कैसे ललचाया जाता है ।
पहली चाल उन्हें देकर , उनसे शुरू कराया जाता है।
कैसे पिटवाकर अपने मोहरे , जाल बिछाया जाता है ।
कैसे अपने राजा का , किला बनाया जाता है ।
कैसे प्यादों की कमजोरी का , लाभ उठाया जाता है ।
कैसे घोड़ों के बल पर , टेढ़ी  चाल चला जाता है ।
कैसे तिरछी ऊँट चाल से , वजीर गिराया जाता है ।
कैसे हाथी के बल पर , दुश्मन को रौंदा जाता है ।
कैसे अपनी कमजोरी का , लाभ उठाया जाता है ।
कैसे वजीर सामने लाकर,शह मात बचाया जाता है।
कैसे एक चाल से केवल, बाजी को पलता जाता है।
कैसे प्यादों के बल पर , राजा को जीता जाता है ।

(२.)
हतप्रभ ना हों तुम इतना , जो बोया था वो पाया है ।
तुमसे सीखे दाँव सभी , मैंने तुम पर अजमाया है ।
सब पत्ते फेंटे तुमने है , और तुरप तुम्ही ने खोला है ।
मैंने चले है अपने पत्ते , बाकी ये खेल तुम्हारा है । 


दो और दो को पाँच बनाकर , कैसे पेश किया जाता है ।
नहले पर दहला देकर आगे , कैसे चाल चला जाता  है ।
कैसे गुलाम के जोर पर राजा , औरों का गिरवाते है ।
कैसे बदरंग रानियों को , रंग की दुग्गी से पिटवाते है ।
सत्ते पर सत्ता चलकर भी , कैसे रंग जमाते है ।
कैसे गिनकर औरों के पत्ते , अपनी गणित बिठाते है ।
कैसे  इक्के पर तुरुप चाल से , अपना हाथ बनाते है ।
कैसे पढ़कर चेहरों को ,  हम अपना जाल बिछाते है ।


बावन पत्तो के खेल में , कैसे अपनी धाक जमाते है ।
चुपचाप इशारों से केवल , कैसे साथी को समझते  है ।
कैसे कमजोर पत्तों से , सेंध लगाया जाता है ।
कैसे तुरुप के इक्के से , धाक जमाया जाता है ।
नाराज ना हों तुम अपने पर , क्यों खेल मुझे बताया है ।
यूँ तुमने सिखाया नहीं मुझे , अनुभव से ज्ञान ये पाया है ।
सत्ता का था घमंड तुम्हे , आँखों पर तेरे पर्दा था  ।
बदला लेना है तुमसे , ये मेरा बरसों का सपना था।
हतप्रभ ना हों तुम इतना , जो बोया था वो पाया है ।
तुमसे सीखे दाँव सभी , मैंने तुम पर ही अजमाया है ।
जब आज फंसे हों बुरे यहाँ , क्यों व्याकुल होते हों इतना ।
याद करो तुम थोड़ा सा , तुमने औरों को लूटा कितना !
(original - १६/०७/२००४, Modified टुडे)
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 21 जुलाई 2010

धर्म, कर्म और भाग्य त्रिकोण

कर्म के सिद्धांत में , ना धर्म को जोड़ो कभी । 
धर्म की राह से, ना कर्म को मोड़ो कभी ।

कर्म है तन की जरुरत, धर्म मन की भूँख है ।
कौन है इसमें बड़ा, ये प्रश्न ही एक भूल है ।

वृक्ष पहले था यहाँ, या बिज से है वृक्ष बना ।
धर्म सिखलाता कर्म है, या कर्म से है धर्म बना ।

भाग्य को ना कर्म से, ना धर्म से तोलो कभी ।
वो कर्म का अवशेष है , और धर्म में ही शेष है ।

है जटिल सिद्धांत ये , यदि तुम इसे समझो नहीं ।
तीन दिशाएं त्रिभुज की , बीच में हों तुम कहीं । १६/०६/२००४

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

सन्नाटा....

रात का सन्नाटा ख़ामोशी से,जब चारो तरफ पसरता है। बस्तियां सुनसान कर, जंगलों को आबाद करता है।
भेड़ बकरियों की खोज में, भेडियों का दिल मचलता है।
इनके पीछे पीछे कुछ, गीधड़ो का झुण्ड भी चलता है।
इनका पेट भले ही भर जाये, मन नहीं कभी भरता है।
इन्सान के अन्दर छुपा,शैतान नहीं कभी मरता है।

रात के सन्नाटे का, अपना ही नशा होता है।
सफेद्पोस लोगों के, काली करतूते छुपा लेता है।
जुल्म और बेईमानी की, रंगत को बढा  देता है ।
कमजोर और कायरों को, बहादुर मर्द बना देता है।
बेबस लाचार शिकारों को, दुल्हन सा सजा देता है।
मन में छिपी कुंठाओ को, भरपूर मजा देता है।

रात के सन्नाटे का, यह असर भी होता है।
भीड़ के सूरमाओ की, रोंगटे खड़ा कर देता है।
अपनी ही परछाहियो से, लोगों को डरा देता है।
स्वयं इंसाफ करने वालो को, मौका ये दिला देता है।
कभी जुल्म करने वालो की, बस्तियां जला देता है।
कभी रातो रात ये, राजाओ की सत्ता बदल देता है। (१०/०२/२००४)

सोमवार, 19 जुलाई 2010

झूंठा सच्चा, सच्चा झूंठा

लोग कहते हैं झूंठ के , पैर नहीं होते हैं ।

सच है, मैंने उसे घिसटते हुए देखा है ।
लोग कहते हैं  झूंठ, सच के बल पर चलता है ।
झूंठ है, मैंने उसे सच को चलाते देखा है ।
लोग कहते हैं अंत में, सच की जीत होती है ।
सच है, खरगोस को मैंने रस्ते में सोते देखा है ।

ऊपर के शब्दों में मैंने, कुछ झूंठ कहा बाकी सच है ।
ये बात जान लो फिर भी तुम, झूंठ का हिस्सा इसमें कम है ।
तुमको जैसा भाए वैसा, तुम इसको स्वीकार करो ।
सच झूंठ अलग करने में, ना व्यर्थ कोई विवाद ।
क्या कहते है जग वाले , ना अपना समय बर्बाद करो ।
बस अपने मन की सुनकर तुम , अपने मन की बात करो ।
०५/०५/२००४

रविवार, 18 जुलाई 2010

नक्कारखाने में तूती की आवाज

नक्कारखाने में तूती की आवाज भले दब कर रह जाती हो,
भीड़ के शोर में लूटे-पिटे लोगों की चीख न सुनी जाती हो ।

रात के अँधेरे में कुछ काले साये नजर बचाकर निकल जाते हों,
झूंठ को बचाने की जद्दोजहद में सच को भले लोग भूल जाते हों।

परोपकार का मुलम्मा लगाकर स्वार्थी अपना भला करते जाते हों, 
बेंचकर अस्मिता देश की नित नेता अपनी राजनीत चमकाते हो।

साधुवों के भेष में चोर-डाकू लम्पट छुप जाते हों,
बेचने को ईमान अपना  लोग बाजार सजाते हों।

फिर भी कभी महत्व तूती का नहीं मिट जाता है, 
ना ही सच की जगह, झूंठ दूर तक चल पाता है।

लगे भले ही देर मगर इन्साफ मिल ही जाता है, 
अंत में! सुखद अंत देर से ही सही पर आता है......।। 22/01/2005

शनिवार, 17 जुलाई 2010

साम दाम और दंड भेद - प्रबंधन के चार सूत्र

"साम दाम और दंड भेद, हैं  चार विधाए संचालन की
इनसे ही चलता आया , मानव सदा पुरातन से ।"

वेदों में लिखा है "साम दाम और दंड भेद" वह अचूक मन्त्र हैं जिससे तीनों लोकों के महिपलों , दसों दिशावों के लोकपाल , समस्त महिपाल एवं उनके अधीन समस्त भू-पाल एवं सामान्य जान को अपने अधीन करने में समर्थ है।
जी हाँ मनु कि समस्त सन्ताने चाहे वो हिन्दू हों, मुसलमान हों, सिख हों, ईसाई हों, यहूदी हों, जैन  हों, बौध हो या उनका कोई भी धर्म ना हों और वो परम नास्तिक ही क्यों ना हों और उनकी संख्या कुछ भी हों सभी पुरातन काल से वर्तमान तक इन्ही चार विधावों से सदा संचालित और नियंत्रित होते आयें है।

यह सत्य है कि हर काल खंड और देश-काल का अलग रहन सहन और नियम विधान होता है मगर चाहे वो भूत काल रहा हों या वर्तमान हों चाहे वो भारत हों या पाकिस्तान , चाहे अमेरिका हों या यूरोप 'साम दाम और दंड भेद' ही समस्त जन और समाज को नियंत्रित और संचालित करता आया है और करता रहेगा। 

"साम दाम और दंड भेद हैं चार विधाए शासन की
ये अमोघ अस्त्र है जन मानस के संचालन की । "

इसमें कुछ भी नया नहीं है, ये चिर पुरातन नियम है ।

मगर

"साम दाम और दंड भेद" चतुर्मुखी हथियार है जो जन मानस के संचालन हेतु तभी अमोघ है जब इनका प्रयोग सजगता से किया जाय। ये मानव द्वारा प्रयोग किये जाने के अस्त्र हैं ना कि किसी मशीन के द्वारा। इसका प्रयोग कब, कहाँ,किस पर और किसके द्वारा किया जा रहा है उसके आधार पर निर्धारित किया जाता है कि इसके किस मुखाग्र से प्रहार किया जाय। इन्हें अचूक बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि इनका प्रयोग किये जाते समय काल पात्र और स्थान का ध्यान रखा जाय। क्योंकि ये चारो अस्त्र सदैव एक सामान सभी पर प्रभावी नहीं होते है ना ही सभी व्यक्ति इसे समस्त रूपों में चलने के योग्य होते है ।
यदि 'साम' से कोई समाज संचालित होता है तो कभी उसपर नियंत्रण हेतु 'भेद' का नियम अपनाना होता है ,
कभी 'साम और भेद' का प्रयोग असफल होने पर 'दाम' का लोभ दिखाना पड़ता है तो कभी "साम दाम और भेद" तीनो के असफल होने पर दंड का भय दिखाना पड़ता है।

ध्यान रखें :-  'साम' श्रेष्टतम है , 'दाम और भेद' मध्यम और 'दंड' निकृष्टतम कोटि का अस्त्र है। 

जो समूह 'साम' से संचालित हों रहा हो  वहां अन्य का प्रयोग करने से साम धीमे-धीमे अप्रभावी होने लगता है।
जहाँ 'दाम' का लोभ देने पर समाज पतित होता है, 'भेद'  से समाज विघटित होता है और  लम्बे अवधि के 'दंड' से बिद्रोही हो जाता है।

और जब 'साम' अप्रभावी हों जाय तो पहले भेद को अपनाया जाना चाहिए (जिससे दाम भी बचा रहे और समाज पतित भी ना हो) क्योंकि विघटित समूह और समाज प्राय: तेज प्रगति करते है और उनके आगे पुन: एक होने कि संभावना बनी रहती है मगर पतित तेजी से और पतन की और बढता है और उसका वापस लौट पाना मुश्किल होता है।

और अंत में जब पूर्व के तीनो से काम ना बने तो... दंड है ही।

और कुछ लोग दंड भय से ही चलते है जैसे - बाबा तुलसीदास जी ने कहा है-
'सूद्र,गंवार,ढोल,पशु,नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी'
हालाँकि कुछ लोग उपरोक्त पाँच में सूद्र और नारी के नाम पर नाराज हो जाते है और कहते है की वास्तव में सूद्र और गंवार दो ना होकर एक ही अर्थात गँवार-सूद्र (सूद्र जो पड़ा लिखा ना हो) एवं पशु नारी अलग-अलग ना होकर 'पशु नारी' है अर्थात वो नारी जो पशु सामान हो 'जैसे रामचंद्र जी के ज़माने की ताड़का' समझा जाना चाहिए। इस प्रकार इनकी संख्या पाँच से तीन ही रह जाती है। मगर पुन: कुछ लोग को इसमे पशुवों को हटाने और किसी भी प्रकार की  नारी को शामिल करने पर आपत्ति है और वो पशु को अलग और नारी का संधि बिच्छेद कर नार+अरि=जो नारी का शत्रु हो कहते है। खैर अभी इस विवाद पर विस्तार से चर्चा करने का मन नहीं है अतः: जो  बाबा ने कहा हो वो जाने जो , जो बच्चो को समझाना हो वो समझे ..........!
समूह के साथ ही "साम दाम और दंड भेद" के व्यक्तिगत प्रयोग में भी उपरोक्त सावधानी बरती जानी आवश्यक है क्योकि-
प्रत्येक व्यक्ति एक समान नही होते है, भगवान ने सभी को अलग-अलग बनाया है, भले ही हम उन्हें समूह में कितना ही अभ्यास कराकर एक जैसा बनाने की कोशिश करें मगर आतंरिक मनोभाव, आचार विचार और सोंचने का तरीका अलग-अलग ही रहता है। कौन सा व्यक्ति किस प्रकार के अस्त्र और उसकी कितनी मात्र के प्रयोग से नियंत्रित होगा और किस मात्रा और किस अस्त्र के प्रयोग के बाद वो पूरी तरह से अनियंत्रित, बिद्रोही, पशु समान अथवा मूक बधिर, निर्जीव  बन जायेगा इसका ध्यान रखा जाना जरुरी है और एक बेहतर शाशक/प्रबंधक वही है जिसको इस बात का सदैव घ्यान रहता है ना की वो जो अपने सत्ता के घमंड में जबरन एक ही तरह से सबको हांकने की कोशिश करता रहे।
अतः प्रबंधन के चार सूत्र 'साम दाम और दंड भेद' का प्रयोग करें परन्तु संयम और सजगता के साथ....!


शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

दयनीय भाजपा के दया के पात्र गडकरी

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी "भारतीय जनता पार्टी" बनाम  भाजपा की पिछले कुछ दिनों की गृह-दशा ओर चाल-चलन  ने आज इसे दूसरे नंबर की पार्टी से नंबर दो (कांग्रेस) पार्टी या दो नम्बरी पार्टी बना दिया है ।

आज भाजपा अत्यंत ही दयनीय हालत में है भले ही कुछ राज्यों में इसकी अभी भी सरकार  है  और इसके नए-नवेले राष्टीय अध्यक्ष वास्तव में उससे भी ज्यादा दया के पात्र लगने  लगे  है  


"दयनीय भाजपा के दया के पात्र गडकरी" - गडकरी जी  यह मै किसी प्रतिशोध में नहीं कह रहा हूँ ना ही व्यंग कर रहा हूँ क्योंकि ना तो मै कांग्रेसी हूँ, ना वामपंथी, ना मेरा लालू और मुलायम यादव से कोई नाता है, ना बुआ मायावती से निकट भविष्य में कोई लाभ प्राप्त होने की आशा है (बुआ  मायावती इसलिए कहा क्योकि मेरे पिता और चाचा भी मतदाता है और वो उन्हें बहन मायावती कहते है) ।


हाँ मेरे जानने वाले अच्छे से जानते है कि अगर किसी के प्रति मुझमें ज्यादा अपनापन रहा है तो वो भाजपा ही है पर यह अपनापन कब तक चल पायेगा भगवान ही जाने क्योंकि भाजपा का मतदाता होने का अर्थ यह तो कदापि नहीं है कि मै भाजपा का अंध-भक्त हूँ ।
खानदानी तौर पर मै कांग्रेसी हूँ, बोफोर्स घोटाले ने मेरे पिता और उनके चलते पूरे गावं  को को जनता दल का समर्थक बनाया फिर राम जन्म भूमि बाबरी मस्जिद प्रकरण ने हमारे गाव-घर वालो को भाजपाई बनाया।
जनता दल के सम्बन्ध में  एक घटिया जुमला आपने सुना होगा जिसका मर्यादित रूप आप को यहाँ बता देता हूँ "मुलायम सिंह यादव कि बुद्धि, वी पी सिंह का बल, मिटटी में मिल गया जनता दल"।
(अ-मर्यादित नाम की जगह जातिवाचक शब्द वाला और मिटटी की जगह जननांग वाला भी आप जानते ही होंगे मुझसे क्यों सीधे लिखवाकर मेरी छवि  ख़राब कराएँगे)।
पर मै कभी धर्म जाति के भावनाओं में बहकर किसी दल का समर्थ नहीं रहा,जो दल तुष्टिकरण से हटकर राष्ट्र हित में लगा दिखा वही मेरा दल रहा।
वैसे सारे दल वास्तव में दल-दल ही है जहाँ भूले से ही कभी-कभी कमल रूपी नेता खिलते है मगर नेता तो  नेता  होतें है जो 'अशोक चक्रधर' जी के अनुसार नजराना,हकराना,शुकराना और जबराना चारो तरह से घोटास में सक्षम होते है।


लगता है मै भटक रहा हूँ ...
खैर मेरा और भाजपा का सम्बन्ध औरों की तरह सीधा साधा भी नहीं है। 
मेरा इससे जुडाव एक मजेदार तरीके से है। 
मै  पिछले  १५ वर्षो से सोने की एक अंगूठी बहुत ही चाव से पहनता रहा हूँ जिस पर केसरिया और हरे रंगों से सुसज्जित एक बेहतरीन कमल का फूल बना था जो किसी भाजपाई नेता ने ही सुनार को बनाने के लिए कहा था मगर जब तक वह बनकर तैयार हुयी शायद फिर वो राजनैतिक रूप से भाजपाई नहीं रह गया और बेचारी अंगूठी सुनार के पास ही अपने ले जाने वाले का तब तक इंतजार  करती रह गयी जब तक एक दिन उसे देख कर मेरा दिल उसपर नहीं आ गया ।
अब कमल के फूल वाली अंगूठी  मेरी उंगली में देखकर लोग  मुझे अपने से भाजपाई मान लेते थे और उनके मुँह से यह सुनकर मै अच्छा महसूस करता था क्योंकि तब भाजपा की पहचान श्री अटल बिहारी बाजपेयी का नेतृत्व और श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी के "एक देश में एक विधान एक प्रधान" जैसे कुछ राष्ट्रवादी नारों से होती थी।

मेरी  अंगूठी और भाजपा का सम्बन्ध भी बहुत निराला था।
मै उसे कभी अपनी उंगली से किसी भी हालत में नहीं निकालता था जिसके सम्बन्ध में पूछने  पर अगर पूछने वाला भाजपाई होता तो मै उससे मजा लेने  के लिए  कहता कि यार आप अपने सोंच का दायरा कुछ बड़ा करो, कमल का पुष्प केवल चुनाव चिन्ह नहीं  भारतवर्ष का राष्ट्रीय फूल भी  है और इसी कारण मै इसे पहने हूँ।
मगर जब पूछने वाला गैर-भाजपाई होता तो उससे मजा लेने के लिए मै शान से कहता  था कि ये अंगूठी मुझे एक बड़े भाजपा नेता ने मेरी भाजपा के प्रति लगाव को देखकर उपहार में दिया है और  इससे भाजपा का भाग्य जुड़ा है।
हाँ सच में उससे भाजपा का भाग्य जुड़ा था.......!! जो लोग मित्र और सहयोगी  मुझे पिछले १५ वर्षो से निकटता से जानते है उन्हें मेरे कथन की सच्चाई पता है। 


चलिए आपको एक सच्ची कहानी सुना देता हूँ  फिर अपने वास्तविक मुद्दे पर वापस आऊंगा :- 
उस ज़माने के कार्यालय के मैनेजर जो निजी तौर पर ज्योतिषी और तंत्र के ज्ञाता भी थे प्राय: मजाक में कहते कि मेरी इस बात में दम नहीं है कि भाजपा का भाग्य मेरी अंगूठी से जुड़ा है और वो कहते कि इसे साबित करने के लिए मै इसे उतार कर इसका असर भाजपा पर दिखाऊ और मै कहता कि एसा घातक प्रयोग मै नहीं करने वाला।
इसी हंसी मजाक में एक दिन वो और कार्यालय के अन्य स्टाफ जबरदस्ती मेरी अंगूठी उतरने लगे और मै उन्हें रोक रहा था कि अंगूठी मेरी उंगली से निकल कर फर्स पर गिर गयी जिससे उस पर नगीने से बने कमल की एक पंखुड़ी का सिरा टूट गया।
उन्होंने अफसोस जाहिर किया क्योकि अब अंगूठी चोटिल हो गयी थी। शाम ढले जब कार्यालय  बंद हुवा और मेरे आफिस के लोगो ने जब अपने घर जाकर टी वी खोला तो जो समाचार ब्रेकिंग न्यूज था वो था "मायावती ने अचानक भाजपा से समर्थन वापस लिया, कल्याण की सरकार डांवाडोल "।
और फिर रातो-रात जगदम्बिका पाल ने एक गैर भाजपाई मुख्यमंत्री के रूप में सपा के समर्थन से सपथग्रहण  भी कर लिया। तो अगली सुबह जब मै कार्यालय पंहुचा तो यह देख कर हैरान हो गया कि लोग सिर्फ मेरा इंतिजार कर रहे है,मुझे भी इसका अनुमान था तो मैंने अंगूठी जेब में रख रखा था।
लोगो ने पूंछा अंगूठी कहा है तुरंत पहनो ,मैंने कहा कि अब क्या होगा जो होना था वो तो कल आप लोगों ने अंगूठी गिरा कर कर ही दिया। फिर भी लोग आशान्वित थे और मै भी जबरदस्ती का भाव खा रहा था तो मैंने भी लोगों से माफ़ी मंगवाते हुए उसे जेब से निकल कर पहन लिया और लोगो को भरोसा दिलाया लो मै हूँ ना सब ठीक हो जायेगा।
उधर अटल बाबा दिल्ली में धरने पर जा चुके थे, इधर इलाहाबाद हाई कोर्ट के विशेष जज ने सरकार के मुद्दे पर सुनवाई प्रारंभ कर दिया था।
"जगदम्बिका पाल एक दिन के राजा रहे और अफसोस वो दिल्ली के एक दिन के बादशाह की तरह चमड़े का सिक्का या कपडे का नोट भी नहीं जारी कर पाए"
और अगले ही दिन भाजपा फिर सत्ता में वापस। हुर्रे......................कमाल हो गया अचानक रातो-रात अप्रत्याशित रूप से सत्ता गयी और अप्रत्याशित रूप से एक दिन में ही वापस। तो मुझे जानने वाले भाजपा समर्थक मित्र यार और कार्यालय सहयोगियों ने मुझसे वचन लिया कि मै उस अंगूठी की आगे से हिफाजत करूँगा।
हालाँकि आगे भी अनजाने में जब जब दुर्घटना वश  अंगूठी चोटिल होती रही तब तब तत्काल ही  भाजपा को क्षति पहुंचती रही।  कभी कल्याण ने पार्टी छोड़ी तो कभी १३ दिन तो कभी १३ माह की सरकार गिरी।  


चलिए अब  वापस अपने मूल विषय पर आता हूँ ...........
अफ़सोस इस संसार में यह सब अनंत तक स्थायी नहीं रह सका और जहाँ एक तरफ समय के साथ-साथ मेरी सोने की अंगूठी घिसती गयी और उसमे दरार आने लगी (सोना जल्दी धिसता भी है और अगर उसमे मिलावट कम हो तब तो और भी जल्दी) वही दूसरी तरफ भाजपा भी घिसती गयी  और उसमे दरार आने लगी ।

फिर जहाँ एक तरफ मेरी वह सोने अंगूठी टूट गयी और मुझे उसे भारी मन से उतार कर रखना  पड़ा....,वही दूसरी तरफ सुनहरी भाजपा भी घिस कर कई जगह से टूट गयी और उसके जाने कितने टुकड़े टूट कर इधर उधर  गिरने लगे,कोई यहाँ गिरा कोई वहां गिरा, जिसमे से कुछ याद रहे  कुछ भूल गए (कल्याण सिंह, उमा भारती, मदनलाल, जसवंत सिंह.... लम्बी सूची है ) इसमे  कुछ वापस जुड़े  कुछ जबरन वापस लाये गए मगर वो सब फिर किसी टायर के बने हुए पंचर के दाग  ज्यादा लगने  लगे जिसके कारण आखिर भारतीय जनता (जिसमे ज्यादातर भाजपाई जनता ही थी) ने भारतीय जनता पार्टी को भारी मन से भारत की गद्दी से उतार कर किनारे रख दिया और अडवानी जी का भारत उदय या इण्डिया शायनिंग सपना ही रह गया  ।

आज अगर भाजपा अत्यंत ही दयनीय हालत में है तो यह भारत का दुर्भाग्य ही है:- इसलिए नहीं कि भाजपा भारत को फिर सोने की चिड़िया बनाने वाली थी या बनाने की योग्यता रखती है वरन इसलिए कि अभी भारत में कोई दूसरी पार्टी शक्तिशाली विपक्ष बनने के हालत में नहीं है और बिना शक्तिशाली विपक्ष के सत्ता पक्ष निरंकुश हो जाता है.....!

और अगर भाजपा के राष्टीय अध्यक्ष दया के पात्र लग रहे है तो यह और भी चिंताजनक है, यूँ  तो जिस दिन मैंने गडकरी जी का चेहरा टीवी पर पहली बार उनके भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने पर समाचार चैनल में अत्यंत ही उत्सुकता से देखा था उसी समय  मै किसी मन पसंद जीवन साथी ना मिल पाने पर दुखी होने वाले नव-विवाहित की तरह से विषाद  में डूब गया था क्योंकि उनके व्यक्तित्व में पहले दिन ही किसी प्रकार का कोई आकर्षण नहीं था और मुझे इस पार्टी के लिए किसी आकर्षक करिश्माई नेता के आने का इंतिजार था (शायद मै किसी गोल मटोल और केवल तन से भारी भरकम अध्यक्ष की आशा नहीं कर रहा था )। व्यक्तिगत तौर पर गडकरी जी मै आपको आहत नहीं करना चाहता हूँ ना ही मेरा ये  इरादा है मगर मै अपनी दिल की बात कह रहा हूँ और यहाँ मै झूंठ भी नहीं कहना चाहता हूँ इसलिए मुझे क्षमाँ कीजियेगा... नहीं भी करेंगे तो ज्यादा से ज्यादा मुझपर मानहानि का दावा ही करेंगे मगर तब आप बहुत बुरे फसेंगे इसलिए माफ़ ही कर दीजियेगा।

मगर जब मुझे बताया गया कि गडकरी जी एक बहुत ही काबिल मैनेजर है (अपने व्यापारिक संस्थान के) साथ में संघ का वरदह्स्थ भी उनपर है तो यह मान  कर मैंने अपने दिल को सांतवना  दिया कि चलो काबिल नेता ना सही काबिल मैनेजर तो है.
और आज भाजपा को वास्तव में पहले एक काबिल मैनेजर की जरुरत है जो उसे आतंरिक रूप से विघटित होने, और अपनो के ही हाथों से  बर्बाद होने से बचा सके, हालत को बेहतर मैनेज कर सके। 
अटल जी अब अपने स्वास्थ में अटल नहीं रहे अडवानी जी तो पाकिस्तान जाकर जिन्ना के मजार  पर पहले ही चौबे से छब्बे बनने के चक्कर में दुबे बन चुके है और पार्टी ने अपना दूसरे पीड़ी का  बेहतरीन हीरा  उसके अपने भाई के हाथों गोली मारे जाने से खो दिया है, मुरली मनोहर जी अब सन्यास आश्रम में है, राजनाथ काबिल है ( यू .पी. में उनके शासन काल में सब देख चुके है) मगर राष्ट्रिय व्यापकता नहीं है , मोदी जी जरुर श्रेष्ट  है मगर राजग को स्वीकार नहीं , बाकी सब नवसिखुए ही है।

मगर अफसोस हमेशा एक काबिल मैनेजर काबिल नेता नहीं होता है और राजनैतिक पार्टी को एक काबिल नेता ही चला सकता है  भले ही वो करिश्माई ना हो, करिश्माई तो वो बाद में  अपने आप हो जाता है । 

नेता के तौर पर गडकरी जी बच्चे है और वास्तव में भी अपने हाव भाव , अपने बयानों से मात्र अपना बचपना ही दिखा रहे है,
हम उनसे सत्ता पक्ष के नेतावों की वल्दियत पता कर के बताने की आशा नहीं करते है (एसे चुटीले कामों के लिए लालू जी काफी है) वरन गडकरी जी आपसे राष्ट्र और जनमानस के लिए कुछ ठोस रचनात्मक मुद्दों पर योगदान की आशा है जो केवल किसी नेता के बेहूदा बचकाने भाषणों से नहीं आने वाला है।

आज भारत बदल रहा है और भारत का जनमानस भी,
अब मेरे जैसा विदेशी नेताओं का धुर-विरोधी भी यह मानने लगा है कि आज अगर सोनिया जी सत्ता सीधे तौर पर अपने हाथ में ले ले तो शायद भारत का ज्यादा भला हो सके
(क्या करें जब अपने नालायक हों तो बाहर वालो पर ही भरोसा करना पड़ता है)
आवश्यक सूचना :-
१.  वर्त्तमान में मेरी अंगूठी टूटी हुयी मेरे मेज के दराज में रखी है जिसे मै अपने इस अन्धविश्वास के डर से वापस नया नहीं बनवाने की कोशिश कर  रहा हूँ कि कही इस प्रक्रिया में अगर सुनार ने उसे पूरी तरह से गला दिया तो भारत से मेरे दिल में बसी हुयी पार्टी भी विलुप्त ना हो जाय......और मात्र टांका लगवाकर जोड़ के साथ अब उसे पहनने की इच्छा नहीं हो रही है !
२. इस लेख के मध्य में भटक कर आई हुयी अंगूठी प्रकरण की कहानी पूरी तरह सत्य है और कहानी के पात्रो के नाम पते भी वास्तविक है। 
३. भाजपा यदि चाहे तो लेखक अंगूठी को उनके राष्टीय संग्रहालय में रखने को राजी है जिससे उनका भाग्य सही हो सके मगर सोने का वर्त्तमान दाम देना होगा।  
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG