मेरी डायरी के पन्ने....

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

खेल तुम्हारा, गणित हमारा

मित्रों ,
मेरे किसी गुरु को उनके किसी गुरु ने सिखाया था,
जो मुझको उन्होंने अनजाने में बतलाया था......
"If you want to Win them ,
Then Join them,
Learn their Game from them,
Get Mastership in there game,
Then,Beat them in their Game....!"
मगर मैंने उसे "एकलव्य" सा अपनाया था ,
पर दुख है, इसे सबसे पहले उनपर ही अजमाया था ।
तो आनंद लीजिये कूटनीति का.....
*===================================================* 
(१.)
हतप्रभ ना हों तुम इतना , जो बोया था वो पाया है । 
तुमसे सीखे दाँव सभी , मैंने तुम पर ही अजमाया है ।
सब गणित तुम्हारी अपनी , सब खेल वही पुराना है ।
मैंने चुने हैं अपने मोहरे , बाकी सब नियम तुम्हारा है ।
सतरंज बिछाकर औरों को , कैसे ललचाया जाता है ।
पहली चाल उन्हें देकर , उनसे शुरू कराया जाता है।
कैसे पिटवाकर अपने मोहरे , जाल बिछाया जाता है ।
कैसे अपने राजा का , किला बनाया जाता है ।
कैसे प्यादों की कमजोरी का , लाभ उठाया जाता है ।
कैसे घोड़ों के बल पर , टेढ़ी  चाल चला जाता है ।
कैसे तिरछी ऊँट चाल से , वजीर गिराया जाता है ।
कैसे हाथी के बल पर , दुश्मन को रौंदा जाता है ।
कैसे अपनी कमजोरी का , लाभ उठाया जाता है ।
कैसे वजीर सामने लाकर,शह मात बचाया जाता है।
कैसे एक चाल से केवल, बाजी को पलता जाता है।
कैसे प्यादों के बल पर , राजा को जीता जाता है ।

(२.)
हतप्रभ ना हों तुम इतना , जो बोया था वो पाया है ।
तुमसे सीखे दाँव सभी , मैंने तुम पर अजमाया है ।
सब पत्ते फेंटे तुमने है , और तुरप तुम्ही ने खोला है ।
मैंने चले है अपने पत्ते , बाकी ये खेल तुम्हारा है । 


दो और दो को पाँच बनाकर , कैसे पेश किया जाता है ।
नहले पर दहला देकर आगे , कैसे चाल चला जाता  है ।
कैसे गुलाम के जोर पर राजा , औरों का गिरवाते है ।
कैसे बदरंग रानियों को , रंग की दुग्गी से पिटवाते है ।
सत्ते पर सत्ता चलकर भी , कैसे रंग जमाते है ।
कैसे गिनकर औरों के पत्ते , अपनी गणित बिठाते है ।
कैसे  इक्के पर तुरुप चाल से , अपना हाथ बनाते है ।
कैसे पढ़कर चेहरों को ,  हम अपना जाल बिछाते है ।


बावन पत्तो के खेल में , कैसे अपनी धाक जमाते है ।
चुपचाप इशारों से केवल , कैसे साथी को समझते  है ।
कैसे कमजोर पत्तों से , सेंध लगाया जाता है ।
कैसे तुरुप के इक्के से , धाक जमाया जाता है ।
नाराज ना हों तुम अपने पर , क्यों खेल मुझे बताया है ।
यूँ तुमने सिखाया नहीं मुझे , अनुभव से ज्ञान ये पाया है ।
सत्ता का था घमंड तुम्हे , आँखों पर तेरे पर्दा था  ।
बदला लेना है तुमसे , ये मेरा बरसों का सपना था।
हतप्रभ ना हों तुम इतना , जो बोया था वो पाया है ।
तुमसे सीखे दाँव सभी , मैंने तुम पर ही अजमाया है ।
जब आज फंसे हों बुरे यहाँ , क्यों व्याकुल होते हों इतना ।
याद करो तुम थोड़ा सा , तुमने औरों को लूटा कितना !
(original - १६/०७/२००४, Modified टुडे)
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

8 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर शुरुआत ! हिंदी ब्लॉग समूह मैं आपका स्वागत है! कृपया अन्य ब्लॉग को भी पढ़ें और अपनी टिप्पणियां देने का कष्ट करें !
    मेरा ब्लॉग :
    http://humarihindi.blogspot.com/

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  2. आपका आलेख अच्छा लगा। आगे भी ऐसे ही लेख का इंतजार रहेगा।

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  3. सत्य के निकट, यथार्थ का बोध करता जिसमे व्यंग का नापा तुला छौंका कविता के स्वाद और अनुभूति को बढ़ा देता है. सवागत है आपका ब्लॉग की दुनिया में.

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  4. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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  5. आप हिंदी में लिखते हैं। अच्छा लगता है। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं। अच्छा लेखन ,बधाई ।
    -आशुतोष मिश्र

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स्वागत है आपका
मैंने अपनी सोच तो आपके सामने रख दी,आपने पढ भी ली,कृपया अपनी प्रतिक्रिया,सुझावों दें ।
आप जब तक बतायेंगे नहीं.. मैं जानूंगा कैसे कि... आप क्या सोचते हैं ?
आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है।
पर
तारीफ करें ना केवल मेरी,कमियों पर भी ध्यान दें ।
अगर कहीं कोई भूल दिखे,संज्ञान में मेरी डाल दें ।
आभार..
ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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