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बुधवार, 21 जुलाई 2010

धर्म, कर्म और भाग्य त्रिकोण

कर्म के सिद्धांत में , ना धर्म को जोड़ो कभी । 
धर्म की राह से, ना कर्म को मोड़ो कभी ।

कर्म है तन की जरुरत, धर्म मन की भूँख है ।
कौन है इसमें बड़ा, ये प्रश्न ही एक भूल है ।

वृक्ष पहले था यहाँ, या बिज से है वृक्ष बना ।
धर्म सिखलाता कर्म है, या कर्म से है धर्म बना ।

भाग्य को ना कर्म से, ना धर्म से तोलो कभी ।
वो कर्म का अवशेष है , और धर्म में ही शेष है ।

है जटिल सिद्धांत ये , यदि तुम इसे समझो नहीं ।
तीन दिशाएं त्रिभुज की , बीच में हों तुम कहीं । १६/०६/२००४

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ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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