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रविवार, 18 जुलाई 2010

नक्कारखाने में तूती की आवाज

नक्कारखाने में तूती की आवाज भले दब कर रह जाती हो,
भीड़ के शोर में लूटे-पिटे लोगों की चीख न सुनी जाती हो ।

रात के अँधेरे में कुछ काले साये नजर बचाकर निकल जाते हों,
झूंठ को बचाने की जद्दोजहद में सच को भले लोग भूल जाते हों।

परोपकार का मुलम्मा लगाकर स्वार्थी अपना भला करते जाते हों, 
बेंचकर अस्मिता देश की नित नेता अपनी राजनीत चमकाते हो।

साधुवों के भेष में चोर-डाकू लम्पट छुप जाते हों,
बेचने को ईमान अपना  लोग बाजार सजाते हों।

फिर भी कभी महत्व तूती का नहीं मिट जाता है, 
ना ही सच की जगह, झूंठ दूर तक चल पाता है।

लगे भले ही देर मगर इन्साफ मिल ही जाता है, 
अंत में! सुखद अंत देर से ही सही पर आता है......।। 22/01/2005

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ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
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