मेरी डायरी के पन्ने....

शुक्रवार, 28 जून 2013

अलविदा वर्ष २०१२-२०१३....

समय कितनी तेज गति से गुजरता जा रहा है ,
बंद मुठ्ठी से रेत ज्यों फिसलता जा रहा है..!
बस अभी कुछ साल पहले तक तो मै बच्चा ही था ,
फिर ना जाने दबे पाँव कब जवानी छा गयी..!
डूब और उतरा रहा था मै अभी आगोश में ,
कि ये देखो पौढ़ता द्वार पर मेरे आ रही..!
सोंचता हूँ अब तो समझ लूँ बीतते हर वक्त को ,
हो रहा तैयार होगा कही अंत भी "अनंत" का...!

अलविदा वर्ष ...२०१२-२०१३
स्वागत है नव वर्ष २०१३-२०१४....

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

गुरुवार, 27 जून 2013

पल दो पल का ये जीवन ...

पल दो पल का साथ हमारा , पल में बिछुड़ ही जाना होगा ।
पता नहीं कब फिर इस जग में , लौट कर हमको आना होगा ।
लौट कर फिर जब आयेंगे , ये साथ कहाँ फिर पाएंगे ?
बदल चुकी होगी दुनिया , बिसर चुकी होंगी सब यादे ।
दूर देश से आते आते , फिर तेरे घर तक जाते जाते ।
रंग रूप बदल ही जायेगा , कोई कैसे पहचान में आएगा ?

कोस कोस पर बदले पानी , चार कोस पर बदले बानी ।
जाने क्या तब भाषा होगी , जाने क्या परिभाषा होगी ?
हो सकता है शब्द नए हो , या प्रचलन में अर्थ नए हो ।
बिसर चुकी होंगी जब यादे , बिखर चुकी होंगी बुनियादे ।
विलुप्त हो चुके होंगे रिश्ते , बस अभिलेखों में होंगे किस्से ।
जीवन होगा कोई नया सा , नहीं मिलेगा पिछला हिस्सा 

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बुधवार, 19 जून 2013

सबकी वही कहानी...

चाहतो, ख्वाहिसों, हसरतो के महल में ,
लोभ, लिप्सा,वासना ही सदा पलती रही ।
काम, क्रोध, मद, लोभ ही ,
इस महल के शहंशाह ।
चौपड़ की बिसात बिछाकर ,
वो बुलाते सबको यहाँ ।

चाहतो, ख्वाहिसों, हसरतो के भँवर  में ,
डूब ही जाते सभी , बच कर निकालता कौन यहाँ ?
स्वार्थ और अज्ञानता का ,
हर तरफ दलदल यहाँ ।
पाँव टिकाओ तो कहाँ पर ,
अंधी अन्तर्वासना यहाँ ।

चाहतो, ख्वाहिसों, हसरतो के भ्रमजाल में,
है भटकना सभी को , माया ठगनी है यहाँ ।
सिर पुरातन काल से ही ,
कौन बच पाया कहो ?
माया मोह के जाल से ,
कौन निकल पाया कहो ?  

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सोमवार, 17 जून 2013

क्या लिखूँ ...

क्या लिखू क्या ना लिखूँ  , कुछ समझ पाता नहीं । 
भाव हैं मन में बहुत , पर  उन्हें समेट पाता नहीं ।
कुछ भाव हैं बस प्यार के , कुछ है तेरे अहंकार के ।
कुछ भाव तुझसे लगाव के, कुछ रिश्तो के बिखराव के ।
कुछ भाव हैं निर्द्वन्द से , कुछ उलझे है अंतर्द्वंद से  ।
कुछ मुस्कुराहट ला रहे , कुछ फिर दुखी कर जा रहे ।

क्या लिखूँ  क्या ना लिखूँ , चलो तुम ही बताओ मै क्या लिखूँ ।
वो बसंत ऋतु की बात लिखूँ, या ये पतझड़ का बिखराव लिखूँ ।
गैरों का बनना अपना लिखूँ  , या अपनो का बनना गैर लिखूँ  ।
है भूल-भुलैया भावों  की , कोई राह मिले तब तो मै लिखूँ ।
यहाँ अपना पराया कोई नहीं , फिर बात कहो मै किसकी लिखूँ ।
मकड़जाल  में उलझा  मन , चलो उलझन को सुलझाना लिखूँ ।

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शुक्रवार, 14 जून 2013

बीता हुवा कल...

सिलसिले जो आपने , शुरू बेबफाई के किये ।
बनकर वो काँटे नुकीले , राहों में मुझको मिले ।
आपने सोंचा भी है , हम क्यों वफ़ा करते रहे ?
यार भले नाखुश रहे , याराना तो चलता रहे ।
आप भले नाराज रहे , दूर भले ही आज रहे ।
हमको वचन निभाना है , संग चलते जाना है।

यदि समझ सको बात मेरी , फिर शुरु करो आज अभी ।
दिल में चुभोये तीरों पर , तुम वापस ले लो आज अभी ।
वो बदकिस्मत होते है , जो अपनो की वफ़ा ना पाते है ।
लेकिन उनसे ज्यादा वो , जो साथ निभा नहीं पाते है ।
मत बाँधो दिल के भावो को , अविरल इनको बहने दो ।
भले काँटो  से नाराज रहो , पर फूलो को तो मिलने दो ।


तुम आज भले ना साथ चलो , रूठे ही मुझसे आज रहो ।
मत छोड़ो कुछ मुलाकातों को , रिस्तो को तो चलने दो ।

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मंगलवार, 11 जून 2013

मानव जीवन नदी का पानी...

मानव जीवन नदी का पानी , गुजरे घाट ना ठहरे पानी ।
घाट घाट का रूप निहारे , न बँधे किसी बंधन में पानी ।
माँ की कोख है इसका उदगम , किलकारे बचपन का पानी ।
मदमाती लहरे यौवन की , ना सहे किसी का जोर जवानी ।
एक बार जिस घाट से गुजरे , लौट ना देखे फिर से जवानी।
छाए बुढ़ापा जब तन पर , सिमटे धारा सूखे तब पानी ।

बहे मंद गति से जब पानी , आये याद बीती जिंदगानी ।
यौवन बचपन की बाते सारी , करे याद स्थिर सा पानी ।
चलते चलते आये सागर , हो जाये समाहित सारा पानी ।
जिसके अंश से उदगम होए , मिले अंत में उसी में पानी ।
ना नदी बचे ना धारा बचे , ना उसका कोई किनारा बचे ।
जीव मिले जा ब्रह्म में फिर से , सागर में हो ख़तम कहानी ।

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आचरण की सभ्यता..

आचरण का अर्थ तो ,
आ-चरण में ही छिपा ।

आ-चरण सीखे बिना ,
आचरण किससे सधा । 

आचार्य है वो लोग जो ,
आ-चरण को जानते ।

आ-चरण को साध कर ,
आचरण को बाँटते ।

आचरण को जानना , 
है नहीं मुश्किल कोई ।

पर साध पाए जो उसे ,
सिद्ध कहलाता वही ।

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गुरुवार, 6 जून 2013

तुम अभी कमल के आदी हो..

क्यों जिद करते मुझसे आप, असली चेहरा दिखलाने को ।
है नहीं सामर्थ अभी तुममे , मेरा असली रूप पचाने को ।
तुम अभी कमल के आदी हो , कीचड़ में करते वास अभी ।
तुम क्या जानो क्या होता है , काँटो के मध्य गुलाब कभी ।
वो तो कमल है जो सहता है , कीचड में भी खुश रहता है ।
मत रोपो यहाँ गुलाब अभी , वो उर्वर भूमि में ही उगता है ।

तुम कहते हो कि रूप बदल लूँ , तुमसे मिलते वस्त्र पहन लूँ ।
क्या होगा इस आडम्बर से , जब तक अंतर्मन ना बदल लूँ ।
अंतर्मन भी अगर बदल लूँ , कहाँ से लाऊँगा बेशर्मी ।
बिन पेंदी के लोटे सा मै , कहो कहाँ से पाऊँगा बेधर्मी ।
तो फिर जो कुछ जैसा है , उसे वैसा ही अभी चलने दो ।
तुम अपनी राह चलो यारो, मुझे अपनी राह ही चलने दो ।

मत करो अभी तुम जिद मुझसे , मेरा असली रूप दिखाने को ।
जब भेद सभी का खुल जायेगा, मेरा असली चेहरा मिल जायेगा ।

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शनिवार, 1 जून 2013

प्राण प्रतिष्ठा...

सदियों पहले आदिवासी इलाको में ,
चलन था कुछ कुरूप से मुखौटो का।
ज्यादातर ख़ुशी में और कुछ दुखो में ,
पहनते थे लोग मुखौटो को चहरे पर।
पहनकर उसे ख़ुशी से नाचते थे अक्सर ,
या फिर दुखो में प्रकृति से माँगते कृपा थे ।

फिर न जाने क्यों प्रगति की राह पर ,
रूठ कर टूट सी गयी नैसर्गिक परम्परायें ।
याद रह गए चहरे और खो गए मुखौटे सब ,
भूल ही गए हम अपने निर्जीव आवरण को।
पर मानव तो मानव है उसने जल्द ही ,
विकसित कर ली फिर से नयी विधाए ।

इस बार मुखौटे चुना जो उसने वो दिखते सुन्दर है ,
और झलकती है अब उसमे झूँठी मानवतायें ।
पहले तो सांकेतिक थे ये मुखौटे ,
जब कुछ अवसर पर ही चेहरो पर होते थे ।
अब तो उनमे भी सचमुच जीवन है ,
और हम मुखौटे बन कर ही जीते है ।

सदियों पहले जो हो ना सका वो ,
आज है हमने कर दिखलाया ।
एक निर्जीव मुखौटे को मानव सा ,
हमने जीवन जीना है सिखलाया ।
यह कला भी अदभुद न्यारी है ,
अब सब लोको में यह प्यारी है ।

मानव ने प्राण प्रतिष्ठा कर ही दिया ,
अब पालन करने को ईश्वर की बारी है ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG