मेरी डायरी के पन्ने....

रविवार, 30 जनवरी 2011

अंत..।

राष्ट्रपिता की पुण्य तिथि पर बापू को बारम्बार नमन...

हाँ आज हुआ था अंत , एक अध्याय हुवा था बंद ।
जब बीतने वाला था एक युग , जीतने वाले हारे युद्ध ।
जिसे हम धारा कहते थे , वही हो गया आज अवरुद्ध ।
दिशा होती थी जिससे तय , वही गिर पड़ा भूमि पर रुद्ध ।
कहा जिसको परिवर्तन था , वही परिवर्तित हो गया खुद ।
तेज जो देता था सबको , वही निस्तेज हुआ था खुद ।
जिसे हम आँधी कहते थे, उसी का वेग हो गया कम ।
जिसे हम गाँधी कहते थे , उसी के प्राण हर लिए हम ।
जुडी थी जिससे सब आशा , उसी को हुयी आज निराशा ।
कहा था उसको अपराजेय , अटल वो रह पाया ना ध्येय ।
रहा ना अब वो जग में आज , जिसे रचना था इतिहास ।
पढ़ा कर हमें शांति का पाठ , बन गया स्वयं ही वो इतिहास ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शनिवार, 29 जनवरी 2011

खंड खंड पाखंड भरा है...

ऐ स्वप्न लोक में रहने वालों , कुछ देर हकीकत भी जी लो ।
आदर्शों की बातें करते हो , कुछ अंश स्वयं भी तुम जी लो ।
     कोरी कोरी बातों से , जग का हुआ कल्याण कहाँ ?
     बिना हकीकत में उतरे , सच का हुआ निर्माण कहाँ ?
          जो माप-दंड तुम रचते हो , वो तुम पर कब लागू होंगे ?
          जो बात स्वप्न में कहते हो , वो कहो हकीकत कब होंगे ?
यूँ तो इस जग में जाने , कितने लोग हैं तुमसे रहते ।
औरों को नित प्रवचन देते , स्वयं दुर्जन के दुर्जन रहते ।
     बस कोरे-कोरे आदर्शो का , हम जैसों को पाठ पढ़ाते ।
     चन्दन टीका लगाके वो , नित बहुरंगी पाखंड रचाते ।
          खून चूसते इस जग का , परजीवी सा जीवन जीते जाते ।
          अपनी करनी लीला कहते , औरों का व्याभिचार बतलाते ।
हम भी स्वप्न लोक में प्राय: , विचरण करने जाते हैं ।
परन्तु हकीकत की परछाहीं , सदा संग ले जाते हैं ।
     जब पाप कर रहे होते है ,  तब स्वयं को पापी कहते हैं ।
     जब पुण्य कर रहे होते हैं , तब साधू सा हम रहते हैं ।
          पाखंड नही रचाते है , ना पाखंड सहन कर पाते हैं ।
          आदर्श वही अपनाते हैं , जिसे जीवन में जी पाते हैं ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

कुछ राजा भोज बाकी गंगू तेली ?

कुछ लोग पदों पर शोभित हैं ,
कुछ लोंगो से पद सुशोभित हैं ।
कुछ पहुँचे अथक परिश्रम से ,
कुछ पहुँचाये गए परिश्रम से ।
ये तो किस्मत है कुर्सी की ,
वह पैदा करती नित नयी कुर्सी ।
वर्ना एक बेचारी कुर्सी ,
किस किस की पूरी करती खुश्की ?

पद की शोभा है जिनसे ,
उनको कुछ भी कहना क्या ?
पद पर शोभित हैं जो भी ,
उनके बारे में कहना क्या ?

कुछ राजा भोज के जैसे हैं ,
बाकी सब गंगू तेली हैं ।
कुछ लोग पदों पर शोभित हैं ,
बाकी पद से सुशोभित हैं ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

लहरों से डरकर , नौका पार नहीं होती..

वो अक्सर आते हैं मेरे ब्लॉग पर , अपने कदमो के निशां छोड़ जाते हैं ।
पर मै कभी समझ नहीं पाता , जाने क्यों बिना कुछ कहे चले जाते है ??

चलिए आप भले चुपचाप चले जाते हों.....
मै आज जहाँ गया था (ब्लागजगत से बाहर )
वहां कुछ मै पढ़ने को पाया ,
वो मेरे मन को भाया ,
मै उसे लिख कर संग ले आया ।
और अब उसे आप सभी से साझा करने का मन है... तो गौर करें...

" असफलता एक चुनौती है , स्वीकार करो ।
क्या कमी रह गयी देखो , और सुधार करो ।
जब तक ना सफल हो , नींद चैन को त्यागो तुम ।
संघर्षों का मैदान छोड़ कर , मत भागो तुम ।
कुछ किये बिना ही , जय-जयकार नहीं होती ।
कोशिश करने वालों की , कभी हार नही होती ।
लहरों से डरकर , नौका पार नहीं होती ।
मेहनत करने वालों की , कभी हार नही होती ।।"

तभी तो कहा गया है ...
वो पथ क्या पथिक परीक्षा  क्या , जिस पर फैले शूल ना हों ।
उस नाविक की धर्य परीक्षा क्या , जब धाराएँ प्रतिकूल  ना हों ।

नियति नियंता ?


जाने कितने आये जग में , जाने कितने चले गए ।
नियति नियंता बनने की , चाहत दिल में लिए गए ।
तुम भी आये हो इस जग में , राज करो चुपचाप यहाँ ।
नियति नियंता बनने का , ना प्रयत्न करो तुम आज यहाँ ।
मेरा था कर्त्तव्य अतैय  , मै तुम्हे आज समझाता हूँ ।
इस जग की यह रीत पुरानी , तुम्हे पुन: बतलाता हूँ ।
ना तुम जग के भाग्य विधाता , ना ही तुम ईश्वर हो ।
इस क्षण भंगुर मानव तन में , तुम भी केवल पुतले हो ।

तो जावो जाकर राज करो , उन निर्बल निरीह प्राणियों पर ।
जो अपना मान बेंचकर प्रतिदिन , करते हैं गुणगान तुम्हारा ।
शायद वो हैं भूल गए , है उनका नियति नियंता कौन ?
लेकिन मुझको पता है अब भी , मेरा भाग्य विधाता कौन ।
जब तक वो नही चाहेगा , तुम मेरा क्या कर पावोगे ?
मुझे मिटाने के चक्कर में , तुम खुद ही मिट जावोगे ।
मुझसे मत पालो तुम आशा , चाटुकारिता कर पाऊंगा ।
तेरे झूंठे दिवास्वप्न में , नही व्याभचारिता कर पाऊंगा ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

रविवार, 23 जनवरी 2011

आवो तुम्हे पालतू बनायें...

मित्रों
चलिए आज आपको पालतू बनाने के कुछ गुण सिखाता हूँ.....(आखिर इतने वर्षों से मै पालतू बन और बना ही तो रहा हूँ)
तो  ध्यान दें !
मानव हो या पशु ,
अगर उसे पालतू बनाना है , अपने हिसाब से नचाना है , तो सबसे पहले उसकी प्रतिरोधक क्षमता को नष्ट करना होगा
अर्थात
"किसी की प्रतिरोधक क्षमता को समाप्त करके ही उसे पालतू बनाया जा सकता है ।"
क्योंकि ...
जब तक उसमे प्रतिरोधक क्षमता शेष है , तब तक वह कभी ना कभी , कहीं ना कहीं , सही और गलत कि पहचान अपने से करने कि कोशिश अवश्य करेगा... और यह पालतूपन की जगह उसमे जंगलीपन की निशानी है ।

हाँ यह अलग महत्वपूर्ण विषय है कि हम उसकी प्रतिरोधक क्षमता को कैसे नष्ट करते है ?

पहला तरीका :
हम चाहें तो उसे राजनयिक तरीके से , सामूहिक भौतिक वाद के तहत अतिरिक्त लाभ पहुँचाते हुए, उसकी भावनाओं को सहलाते हुए , या उसे किसी कल्पित ख्वाब को दिखाते हुए अपनी प्रतिरोधक क्षमता को स्वयं ही छोड़ने के लिए लालयित कर सकते हैं ...
या
दूसरा तरीका :
हम उसे कूटनैतिक और तानाशाही/लालफीताशाही तरीके का प्रयोग कर विभिन्न प्रकार से शारीरिक, मानसिक, भौतिक या भावनात्मक स्तर पर अपनी ताकत का दुरूपयोग करके लगातार उस समय तक प्रताणित कर सकते हैं जब तक कि वह अपनी प्रतिरोधक क्षमता को स्वयं ही थक कर चुका ना दे ।

परन्तु..

जहाँ प्रथम तरीके से हम किसी को भी आसानी से पालतू बना सकते हैं और उसे इस बात का पता भी नहीं चल पाता है कि वह कब पालतू बन गया है - वहीँ दूसरे तरीके से हमे उसे बार बार यह जताना पड़ता है कि हम उसे अपना पालतू बनाना चाहते हैं और इस क्रम में उसे भी अपनी प्रतिरोधक क्षमता का लगातार अहसास बना रहता है , ठीक उस समय के पहले तक जबकि प्रतिरोधक क्षमता पूर्णतया चुक ही ना जाये ।

तो आप अपनी जन्मजात आदत , पसंद और सुविधानुसार कोई भी एक तरीका अजमा सकते हैं....

हाँ एक अंतर जो दोनों तरीको में मायने रखता है वह यह है कि, जब कोई स्वयं से पालतू बनने को राजी हो जाता है तो वह अपनी समस्त उर्जाओं , क्षमताओ और अपनी काबिलियत के साथ एक जिंदादिल पालतू बनता है और उसके पालतू बनने से आपको वास्तविक रचनात्मक लाभ मिलता है ।
परन्तु
जब हम उसे अपने शक्ति प्रदर्शन से पालतू बनाते हैं तो वह अपनी पूरी उर्जा, क्षमता और अपनी काबिलियत को खोकर सिर्फ एक मुर्दा जैसा पालतू रह जाता है और तब यह हमारी क्षमता पर निर्भर करता है कि हम उसका कैसे इस्तेमाल कर पा रहें है , ना कि उस पर कि वह स्वयं हमारे किस काम आ रहा है । वास्तव में यहाँ मात्र हमारे अहम् की ही मात्र पूर्ति होती है ना की कोई रचनात्मक लाभ ।
तो
अगर आप किसी को पालतू बनाने को सोंच रहे हों तो सबसे पहले आप को निश्चित करना होगा कि आप क्या चाहते है ?
एक जिन्दा बफादार पालतू या मुर्दा-मजबूर पालतू .....!!!!!!!

इति
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

भारत सरकार कितनी महान हैं

भड़ास blog: भारत सरकार कितनी महान हैं

दोस्तों क्या आप लोग जानना चाहते हैं की भारत सरकार कितनी महान हैं और वो गरीबो के लिए कितना करती हैं अगर आपको नहीं पता तो एक बार जरा नीचे दिए गए चार्ट को पढिये आप भी जान जायेंगे की बाहर सरकार एक समग्र निरपेक्ष सरकार हैं जो गरीबो के लिए कितना करती हैं

क्या आप जानते है भारत का वह स्थान जहाँ सबसे सस्ता भोजन उपलब्ध हैं? ............

चाय = 1 रूपया प्रति चाय
सूप = 5.50 रुपये
दाल = 1.50 रूपया
शाकाहारी थाली (जिसमे दाल, सब्जी 4 चपाती चावल/पुलाव, दही, सलाद) = 12.50 रुपये
मांसाहारी थाली = 22 रुपये
चिकन बिरयानी = 34 रुपये
शाकाहारी पुलाव = 8 रुपये
दही चावल = 11 रुपये
फिश कर्री और चावल = 13 रुपयेराजमा चावल = 7 रुपयेटमाटर चावल = 7 रुपये
चिकन करी = 20 .50 रुपये
चिकन मसाला = 24 .50 रुपये
बटर चिकन = 27 रुपयेचपाती = 1 रूपया प्रति चपाती
एक प्लेट चावल = 2 रुपयेडोसा = 4 रुपयेखीर = 5.50 रुपये प्रति कटोरी
फ्रूट केक = 9 .50 रुपयेफ्रूट सलाद = 7 रुपये

यह वास्तविक मूल्य सूची है

ऊपर बताई गई सारी मदें "गरीब लोगों" केवल और केवल के लिए है जो कि भारत के संसद की केन्टीन में ही उपलब्ध है..............
और इन गरीब लोगों की तनख्वाह 80,000 रुपये प्रति माह

अब आप लोग ही निर्णय ले की हमारी सरकार का रवैया कितना स्पष्ट हैं गरीब लोगो के लिए.

शनिवार, 22 जनवरी 2011

हम सच मा झूठै कवितायित है...

मित्रों
आज किसी ब्लाग पर कुछ पढ़ते हुए एक संदर्भित लाइन "हम झूठै-मूठे गायित है, आपन जियरा बहलायित है| " पढ़ने को मिली
हालाँकि पूरी रचना तक मै नही पहुँच पाया मगर यही एक लाईन  सीधे दिल में उतर गयी...
फिर कुछ इन्ही शब्दों और भाव में (हालाँकि यह बोलचाल की भाषा मेरी लिए थोड़ी असहज है क्योंकि इसे सुनने और बोलने का अवसर नहीं मिला और आदत भी नहीं है मगर यह थोड़ी परिचित भी है क्योंकि है तो हिंदी ही और वो भी उत्तर प्रदेश के ही किसी क्षेत्र की।) लिखने को मन बैचैन होने लगा...

फिर देखते है कि मेरा मन अपने मन की कितना कर पाता है........ ?

तौ देखा समझा जाई , कुछ गलती होई तो बतावा जाई ...

 [ हमका ना समझौ तुम ब्लागर , हम झूठै ब्लाग पे आयित है ।
आपन जियरा बहलावे का , हम कबो-कबो ब्लागियायित है ।
सोंचित है हमहूँ मन मा , कुछ दुसरेव के ब्लाग पर पढ़ी लेई ।
जे जे हमरेप किहिस टिप्पणी है , कुछ उनहुक टीका कई देई । 
पै का कही ससुर नौकरी का , हमै टैमवै नाहि मिलि पावत है ।
टैम मिळत है जब कबहू , तब सार नेटे नाहि चलि पावत है ।

हमका ना समझेव तुम कवित्त , हम सच मा झूठै-मूठे कवितायित है ।
आपन जियरा बहलावे का , हम कबो-कबो ब्लाग पै लिख जायित है ।
फिर लिख देयित है सब वहै पुँराना , जो अपने डायरी मा पायित है ।
अब तो ताजा कुछ लिखै का , ससुर मौके नाहि निकारि पायित है ।
कबहूँ सोंचित है हम करब का , जब कुल संचित कविता चुकि जाई ?
प्यासे लगे पै लंठन सा का , तुरंतै नवा कवित्त कुवाँ खोदा जाई ??

हमका ना समझैव तुम लेखक , हमहू झूठै बहाँटियायित है ।
अनाप सनाप लिखिकै बस , हम आपन जियरा बहलायित है ।
पूजा करी भले ना कबहूँ , टीका लम्बा सदा लगायित है ।
कोई भले लपेटे मा आवै ना , हम तो भौकाल बनायित है ।
सीधे सपाट हम बोलित है , लल्लो चप्पो नाहि कै पायित है ।
दुसरेक छोड़ो अपनेव कबहूँ , हम ना तेल लगाय पायित है ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

जब चाँद छिप गया बादल में...

जब चाँद छिप गया बादल में , उसे ओंट की पड़ी जरुरत ।
मन के भाव छिपाने को , शब्दों की मुझे पड़ी जरुरत ।
शायद शब्दों में कह कर , कुछ अपनी लाज छुपा पाऊ ।
यूँ चाँद का सम्बल लेकर , कुछ रिश्तों को मै बचा पाऊ ।
आँखों से यदि बात किया , वो सच सबसे कह डालेंगी ।
मेरे अंतरमन के भावों का , वो पूरा वर्णन कर डालेंगी ।
अभी ओंट है शब्दों की , शब्दों का मै बाजीगर ।
शब्दों के अर्थ बदलने में , मै हूँ पूरा जादूगर ।
आधा सच और आधा झूंठ , ना पूरा सच ना पूरा झूंठ ।
क्या है सच क्या है झूंठ , ना सच जाने ना जाने झूंठ ।

शब्दों का भ्रम जाल सदा से , बचने की देता है छुट ।
लाज बचाकर रिश्तों की , उनको रखता सदा अटूट ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 19 जनवरी 2011

अपनापन और उसके कारण...

हर उम्र की अपनी धडकन है ,
हर मोड़ की अपनी जकड़न है ।
हर राह की अपनी गाथा है ,
हर व्यक्ति की निज परिभाषा है ।
हर राग के अपने साज यहाँ ,
हर साज के अपने राग यहाँ ।
हर धर्म की अपनी भाषा है ,
हर भाषा के निज धर्म यहाँ ।
हर उम्र के अपने अनुभव हैं ,
हर व्यक्ति की अपनी मंजिल है ।
हर मोड़ की अपनी राहें हैं ,
हर राह के अपने साथी हैं ।
हर उत्सव के कुछ कारण है ,
हर कारण पर कुछ उत्सव हैं।
हर रिस्तो के पीछे अपने हैं ,
हर अपनो से ही रिश्ते हैं ।
हर उम्र की अपनी बेचैनी है ,
हर मोड़ की अपनी तकलीफें है ।
हर राह के अपने कांटे हैं ,
हर व्यक्ति को सुख दुःख आते हैं ।
हर नदी के अपने किनारे हैं ,
हर उंजियारे के अंधियारे हैं ।
हर जोड़ के अपने तोड़ यहाँ हैं ,
हर कारण के निज कारण हैं ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

मन की भूल भुलैया में..

करना था संघर्ष जहाँ , हम वहां समर्पण कर बैठे ।
जहाँ समर्पण करना था , संघर्ष वहां हम कर बैठे ।
सम पर ध्यान लगाना था , विषम साध कैसे बैठे ।
मन की भूल भुलैया में , हम कैसे राह भटक बैठे ।
शायद तृप्त नही थे हम , रिक्त अभी कोई कोना था ।
या अंतर्मन की गठरी में , खुला कहीं कोई कोना था ।

जो भी हो निश्चय ही , कहीं चूक मै कर बैठा ।
हीरे मोती के चक्कर में , कचरा इकठ्ठा कर बैठा ।
जिस पर ध्यान लगाना था , उसको ही बिसरा बैठा ।
लक्ष्य  भटक कर नादानों सा , अपना हाथ जला बैठा ।
चलो शुक्र है समझ में आया , माया ने अब तक भरमाया ।
सत्य - असत्य के अंतर को , मन मेरा समझ देर से पाया ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

सोमवार, 17 जनवरी 2011

मौका..

बीसियों काम हैं बाकी , कहाँ से आ गए तुम भी ।
कहाँ मुश्किल थी कम पहले , उसी में आ गए तुम भी ।
लगी थी आग पहले से , सेंकने आ गए तुम भी ।
देख कर मौका एक अच्छा , लूटने आ गए तुम भी ।
चलो जब आ गए हो तो , करा लो खिदमत कुछ तुम भी ।
बह रही गंगा में हमसे , धुला लो हाथ अब तुम भी ।
ना जाने लौट कर कब फिर , तुम्हे मौका मिले फिर से ।
या तुमको भूल मै जाऊं , मिलाकर धुल में फिर से ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

Making Of A New Kalidas

भड़ास blog: कांग्रेस का राजनीति के लिए देशद्रोह को संरक्षण



कालिदास जैसा अपने को महान बनाने के लिए 'मूर्ख' होना कोई आर्हता नही है , और ना ही ये आवश्यक है की उसके लिए मूर्खों सा अपने ही घर के आँगन में लगे फलदायी वृक्षो की शाखाएं या उससे भी भी अधिक मूर्खता करते हुए समूचे वृक्ष को ही कटाने पर जुटे रहें ।
पर
अफसोसजनक विडम्बना यह है की आज भी कुछ मूर्ख अपने को कालिदास साबित करने हेतु पूर्णतया विचार करके योजनाबद्ध तरीके से पेड़ की उन्ही शाखों को जिस पर आज वो बैठे हुए है , इस आस में कटाने में लगे है कि किसी ना किसी दिन उस पेड़ के नीचे सुसताते पथिक और पेड़ के ऊपर बसेरा करने वाले पंछी भयवस ही सही उन्हें कालिदास के नाम से संबोधित करेंगें ।

वाह क्या हुनर है......?

वाह वाह क्या हुनर है आपके हाथों में ?
पोर-पोर उँगलियों के भरे है अनुभव से ।
और क्यों ना हों ऐसा जब वर्षों से ,
आपको महारथ है हवाई किले बनाने में ।

पहले भी बहुत से फर्जी रजवाड़ों के , बनाये थे ठेके पे किले आपने हवावों के ।
आज भी अपने नेता और युवराज से  , मिले हैं ठेके हवाई किले बनाने के ।
आपके बनाये किले सब अनोखे हैं , उनमे हवा के ईंटो की हवा से चुनाई है ।
हवा के दरवाजे पर हवा की सफाई है , हवा के कमरों में हवा की रंगाई है ।

कोई भी चले हवा , किले को ना छु पाई है ।
अंदर और बाहर की हवा , आपस में ना मिल पाई है ।
भेद सब हवा के , हवा ही समेटे है ।
हवाई किलो में देखो , हवा के ही बेटे हैं ।
निश्चित ही किसी दिन आपको , निशाने पाक भी मिल जायेगा ।
आपके मकबरे पर एक ना एक दिन , लादेन भी फातिया पढने आएगा ।
महाराज जयचंद जैसा ही , आदर से आपका नाम जग में लिया जायेगा ।
अफ़सोस मगर तब तक आप जैसों के कारण , यह देश कई टुकड़ों में बँट जायेगा  ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

आवरण बदला तो क्या बदला...

आवरण बदला तो क्या बदला , अंतस बदलना चाहिए ।
दोस्ती सच में किया तो , दिल भी बदलना चाहिए ।
फूलों को चुनना अगर हो , काँटों से भी प्रेम करो ।
कीचड़ अगर भाता नही , तो कमल को छोड़ दो ।
व्यर्थ के आडम्बरों को , छोड़ कर जीवन जियो ।
यदि हकीकत में है जीना , मृत्यु को पहले जियो ।


आवरण बदला तो क्या बदला , अंतस बदलना चाहिए ।
दुश्मनी हमसे किया तो , नफ़रत भी मन में चाहिए ।
क्यों व्यर्थ में सोंचते हो , किस तरह बदला चुकाऊँ ।
सोंच लो करना है क्या , मार्ग खुद बन जायेंगे ।
साज की परवाह करते , हम नही पहले कभी ।
राग यदि जन्मा यहाँ , तो साज भी बन जायेगा ।


आवरण बदला तो क्या बदला , अंतस बदलना चाहिए ।
धार्मिक यदि हो रहे , तुम्हे सत्य भी दिखना चाहिए ।
यदि पहन चोला लिया , सन्यास भी सच में ही लो ।
सन्यास यदि तुमने लिया , चोला भी पहन कर देख लो ।
जब तलक सम्पूर्णता , तुम नही विकसित करोगे ।
जिंदगी की राह पर , बस अर्ध-विच्छिप्त से रहोगे ।
© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

एक अकेला...

एक अकेला कम मत अंको , एक ही सब पर भारी है ।
अच्छा हो या बुरा हमेशा , आती उसकी बारी है ।
एक कुल्हाड़ी काफी है , हर शाख को काट गिराने को ।
एक ही चिंगारी काफी है , जंगल में आग लगाने को ।
एक ही जयद्रथ काफी था , अभिमन्यू के घिर जाने को ।
एक ही बिभीषण काफी है , हर घर का भेद बताने को ।
एक ही जयचंद काफी है , गैरों की सत्ता लाने को ।
एक ही कायर काफी है , हर जीत को हार बनाने को ।
एक ही उल्लू काफी है , हर बाग उजाड़ बनाने को ।
एक अनाड़ी काफी है , हर खेल में हार दिलाने को
एक की कीमत को मत पूंछो, एक सब पर भारी है ।
अच्छा हो या बुरा हमेशा , आती उसकी बारी है ।
एक राम ही काफी हैं , असुरों से मुक्ति दिलाने को ।
एक बुद्ध ही काफी है , जग में शांति फ़ैलाने को ।
एक बीर ही काफी है, दुश्मन पर विजय दिलाने को ।
एक धीर ही काफी है , संकट को दूर भागने को ।
एक मशाल ही काफी है , जंगल में राह दिखने को ।
एक ही नाविक काफी है , मझधार पार लगाने को ।
एक सूर्य ही काफी है , अँधियारा दूर भगाने को ।
एक चन्द्रमा काफी है ,धवल चाँदनी फ़ैलाने को ।
एक की कीमत कम मत आँको , एक सभी की दुलारी है ।
दो आँखों के बीच अकेली , नाक सभी को प्यारी है ।
एक-एक मिलकर आपस में , ग्यारह बनकर रहते है ।
बिना एक के लाखों भी , सदा खाली-खाली दिखते हैं ।
एक अंक निज शुभता से ,उपहारों का है मान बढ़ता ।
एक अगर कम रह जाये , मान सभी का है घट जाता ।
एक एक पल मिलकर जैसे , करते है युग का निर्माण ।
एक-एक बूंद मिलकर वैसे , भरते सागर नदिया ताल ।
एक अकेले पेट की खातिर , सारा जग श्रम करता है ।
एक अकेली प्रभु सत्ता को , मेरा मन नमन करता है ।।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

सोमवार, 3 जनवरी 2011

चंद नन्द और चूतिया की घोड़ी..

मित्रो
नव-वर्ष २०११ की आप सभी को शुभ-कामनाये,
आशा करता हूँ कि यह वर्ष सभी को ज्यादा सुख , ज्यादा कमाई (सफ़ेद और काली दोनों मलाई ) का अवसर देगा ,
जो किन्ही भी कारणों से नही खा पा रहे हो सफ़ेद के संग काली मलाई , उन्हें अवश्य सर्वजन हित में संसद से गैर-भ्रष्टाचार  कानून पास कराकर उठा ले जाय सी.बी.आई.........!!

खैर मुद्दे पर आता हूँ...
वर्षों पहले जब कुछ काल-पात्र-स्थान मुझको दुखित कर रहे थे तो उन्ही परिस्थित जन्य कारणों से उपजे आवेग में उक्त पंक्तिया मेरी डायरी के पन्नो में संकलित हुयी थी , और उस समय की अपनी ज्यादा लपलपाती जिह्वा से मैंने इसका बहुत बार प्रसार कर काफी तारीफे भी बटोरी थीं (अपने जैसे ही प्रताणित जनो से), शायद इसी कारण से ये पंक्तिया बार बार मेरे मानस पटल छाई रहती हैं ।
पर जब मैंने ब्लॉग लिखने का फैसला किया तो सबसे पहले मुझे सलाह दिया गया कि ब्लॉग पर कुछ भी लिखना मगर चंद नन्द और घोड़ी या उसके जैसा और कुछ मत लिखना... और मैंने भी उक्त सलाह को गाँठ बांध कर रख ली थी... मगर देश-समाज-धर्म-राजनीति और रोजी-रोटी से जुड़े हालात को देखते देखते ना जाने कब और कैसे वो गाँठ कहीं चुपके से खुल गयी...
तो अंतत: आज आपके समक्ष ब्लाग पर भी प्रस्तुत है... "चंद नन्द और चूतिया की घोड़ी जनाब"
वैसे आपको सजग कर दूँ कि "चूतिया" शब्द हमारे लखनऊ में सामान्यतया मूर्खों के लिए प्रयोग किया जाता है  पर जिस जगह पर रहकर मै ब्लाग अपडेट कर रहा हूँ वहां के लोग इसका मनमाना संधि-विच्छेद कर के इसे गाली में गिनते है .. अब आप चाहे जो समझे एक चूतिया की घोड़ी के हाथो तीर कमान से निकल रहा है.......तो आप मेरे तीर पर अपनी नजरे इनायत कीजिये.....

चंद लोग चूतिया होते है ,
उनसे आगे चूतिया-नन्द भी होते है ,
और जब-जब ऐसे चंद चूतिया ,
या फिर उनके नन्द चूतिया ,
तलवे चाटकर या किस्मत से ,
भूले भटके सत्ता में होते है ,
तो फिर चारो तरफ जहाँ तक ,  
उनकी भूंखी-नंगी दृष्टि पसरती है ,
और फिर जिनकी किस्मत के ,
वो बन जाते है भाग्य विधाता ,
वो सब जन आखिर मजबूरन या ,
स्वयं अपनी इच्छा से जुटते है ,
जब जब उनके रथ के आगे ,
तो फिर हाल देखकर उनका ,
जग देता है उन्हें एक ख़िताब ,
है अगर चूतिया स्वामी तेरा ,
तो फिर क्यों ना हुए आप
चूतिया की घोड़ी जनाब ।।
 © सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG

रविवार, 2 जनवरी 2011

मै तो पंछी हूँ..

मेरा क्या मै तो पंछी हूँ , आज यहाँ कल वहां मिलूँगा ।
ये भी रैन बसेरा है बस , वो भी रैन बसेरा होगा ।
जितना लिखा नीयति ने होगा , उतने दिन मै यहाँ रहूँगा ।
फिर जो शाख मिलेगी मुझको , जाकर फिर मै वहां बसूँगा ।

वो तो मानव हैं जो बैलो से , कोल्हू में हैं बँध कर रहते  ।
गोल गोल बस घूम रहे हैं , घर के बस वो घर में रहते ।
चाहे जो भी मिले उन्हें , वो उतने से ही बस खुश रहते ।
उन लोगों की नीयति कुआँ है , उसमे वो मेढक सा रहते ।

मै तो उड़ता पंछी हूँ , मेरा क्या तुम कर लोगो ।
मै डाल डाल पर फिरता हूँ , तुम कहाँ जाल में धर लोगो ।
 तुम पेड़ काट सकते हो केवल , अपने घर के आंगन के ।
पर बहर भी कई जंगल हैं , जो स्वागत फल से करते हैं ।

लो तुम्ही संभालो अपने ये , खट्टे मीठे कसैले फल ।
मै तो सदा से पंछी हूँ , और जंगल में हैं मीठे फल ।
तुम्हे मुबारक आंगन तेरा , मेरी किस्मत में जंगल है ।
मेरे जीवन में शांति सदा , तेरे जीवन में बस दंगल है ।

© सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2010 विवेक मिश्र "अनंत" 3TW9SM3NGHMG