मेरी डायरी के पन्ने....

गुरुवार, 31 मई 2012

तेरा ख्याल…

नींद आंखों मे उतरने लगी है मगर ,
पलके बंद हो तो कैसे उलझा है दिमाग ।
दिल तो कहता है सो जाओ अब चैन से ,
दिमाग कहता है कर लो थोडा हिंसाब ।
हल्की सी भी आहट से खुल जाती पलके ,
है खटखटाते मस्तिष्क को कितने विचार ।
जितना तुझको भुलाने की कोशिश मै करता ,
उतना ही मन मे आता है फ़िर तेरा ख्याल ।
सोंचता हूँ सीख लूँ अब खुली पलको से सोना ,
सोया समझ धोखे से नही लोगे मेरी जान ।
अटक जाती है मन मे बात छोटी हो या बडी ,
विश्लेषण करना है आदत बुरी मेरी जान ।
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

बुधवार, 30 मई 2012

तुम ना आये...

बस तेरे इन्तिज़ार में बैठ,
हमने सारा दिन गुजार दिया 
तुम नहीं आये तो लगा,
हमने मुद्दते गुजार दिया ।

        था भोर होने के समय से ,
        तुमसे मिलने का इन्तिज़ार ।
        फिर शाम आयी और ढल गयी ,
        पर तुम ना आये मिलने यार ।

                क्या करे मजबूर है कुछ ,
                अपने किये वादे से हम ही ।
                एक तेरा ही इन्तिज़ार सदा ,
                करते रहे मुद्दत से बस हम ही ।

                        तुम ना आये मिलने अगर ,
                        कोई झूंठा बहाना ही बनाते ।
                        मिलने का हुआ मन नहीं ,
                        कहकर दिल ना यूँ तुम तोड़ जाते ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

मंगलवार, 29 मई 2012

चुपचाप गुजरता जाता हूँ…

जज्बातों की भँवर थी ,
मन मे थी कसक कोई ।
बहता जा रहा था उसमे ,
सूखे तिनके की तरह कोई ।
देखा जो किनारे खडे तुमको ,
याद आया कितना अजीज था कोई। 
बहा ले जाता तुमको भी लहर मे अपने ,
याद आ गया अचानक तेरा कहा शब्द कोई ।
यूँ तो सब कुछ कहा है तुमसे ,
फ़िर भी लगता सब अनकहा है तुमसे ।
सोंचता हूँ जो मिलो कह दूँ अब से ,
डरता हूँ खफ़ा ना हो जाओ तुम फ़िर से ।
मै तो डूबता उतराता बह रहा हूँ खुद से ,
एसा ना हो कही डुबा ना दूँ तुम्हे फ़िर से ।
यही सोंच कर चुपचाप गुजरता जाता हूँ ,
बिना कुछ बोले तेरी यादों को समेटे जाता हूँ ।
 सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

शुक्रवार, 18 मई 2012

तुम अब भी वैसे ही हो..

क्यों होते बेचैन हो इतना , क्यों स्वयं को भरमाते हो ।
सतरंगी इस जीवन से , क्यों अपना चेहरा छिपाते हो ।

मैंने सोंचा था शायद ,  जीने की कला तुम सीख गए ।
मौसम के परिवर्तन का , कुछ आनंद उठाना सीख गए ।

पर तुम अब भी वैसे ही हो , जैसा मै तुमको छोड़ गया ।
अचरज भरी निगाहों से , मुझे देख रहे क्यों छोड़ गया ।

मैंने सोंचा था शायद , मेरे जाने से तुम संभल जाओगे ।
मुझपर लगाये आरोपों से , आगे तुम निकल जाओगे ।

तुम थे तब मेरे बंधन में , जो तुमको दुख पहुंचता था 
निर्द्वंद जीवन का सुख , तब मन को तेरे ललचाता था ।

लेकिन तुम हो वहीं खड़े , जहाँ मै तुमको छोड़ गया था ।
देख तुम्हे होता है दुःख , क्यों मै तुमको छोड़ गया था ।

चलो लौट मै आया फिर , सच पूँछो गया कहाँ था दूर ।
तुम भले ना अपना समझो , तुम हो मेरे आँखों के नूर ।


 सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

मन की गांठे..

मन की गांठे है कुछ ऐसी , लगती सुलझी फिर भी उलझी ।
जितना ही इन्हें सुलझाता हूँ , स्वयं और उलझता जाता हूँ ।
कलम उठाया खोली डायरी , सोंचा फिर कुछ लिख ही डालूँ ।
बहुत दिनों से लिखा नहीं , कुछ मन के भावो को लिख डालूँ ।

जो अपना हाल ना लिख पाऊँ , अपनो का हाल ही लिख डालूँ ।
इसी बहाने मन की अपने , कुछ गांठो को ही सुलझा डालूँ ।
यूँ तो मै हूँ सुलझा इतना , कभी उलझन के नजदीक ना जाऊं ।
मगर कभी जो उलझ गया , फ़िर उलझन में ही रम मै जाऊं ।

आदत है उलझन सुलझाना , औरो के फटे में टांग अडाना ।
सुलझाते हुए औरों की उलझन , आ बैल मार मुझे चिल्लाना ।
जब दोष मेरा अपना ही है , क्यों औरो को आरोपित करूं ।
जब मन में गांठे हो उलझी , क्या शब्दों में मै भाव भरूं ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

रविवार, 6 मई 2012

क्यो होते बेकल रे मनवा…

क्यो होता बेकल रे मनवा , जग तो रिश्तो का मेला है ।
आज यहां कल वहां पर डेरा , ये जग बस रैन बसेरा है ।
आज तेरे जो संगी-साथी , कल होंगे किसी और के वो ।
आज शान जिनकी तुझसे , कल होंगे किसी और के वो ।

रोज बदलता जल नदिया का , रोज बदलती राह नदी ।
रोज पूर्व मे सूरज उगता , मगर नही टिकता है कभी ।
मौसम आते जाते हैं , नित नयी छ्टा वो लाते हैं ।
चाहे जितना चले पथिक , राह बदल ही जाते हैं ।

मत हो यूँ बेकल तू मनवा , यह तो जग का खेला है ।
आज अमावस रात अगर , कल पूर्णमासी का मेला है ।
कितना ही प्यारा हो तुमको , वस्त्र पुराना होगा ही ।
कितना ही तुम उसे सहेजो , उसको फ़टना होगा ही ।

इसी तरह जीवन के रिश्ते , जीर्ण उन्हे भी होना है ।
आज भले वो साथ तुम्हारे , कल तो उनको खोना है ।
मत सोंचो बाते कल की , देखो आज जो मेला है ।


सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

मूक, बधिर, वाचाल..

लोग कहते है ये इन्सान कितना बोलता है ?
शब्दों को शब्दों से ये काटता है ,
अपने ही बातों की रट लगाता है ।

सीखा नहीं इसने कभी, चुप हो रहना ।
ना जाने क्यों ये इतना बोलता है ?
तो जाकर पूंछा मैंने ये सवाल उसी से ,

बताया फिर हकीकत भी उसने बोलकर ही ।
ये दुनिया अजब मूर्खो की है दुनिया ,
सभी दूसरो को हैं बस उपदेश देते ।
उपदेश तो चलो हम चुप रहकर भी सुन लें ,
मगर तोहमते भी आदतन लगाते रहते सभी ।
शुरू के दिनों में मै सुनता था केवल  ,
मगर मेरी हद भी गुजरने लगी फिर ।
तो मैंने कहा अब बनकर दर्पण सा रहूँगा ,
जो जैसा कहेगा उससे वैसा कहूँगा ।

मगर इस जहां में है सभी वाचाल ही ,
फिर कैसे रहूँ मै जग में चुपचाप ही ।
अगर ना बोलो तो सब कहते यही ,
देखो वो डरकर कैसा खड़ा है अभी ।
अगर कुछ  बोलो तो कहते सभी ,
देखो ये रहता नही चुपचाप कभी ।

अगर सच वो बोले तो सुन लूँ मै केवल ,
मगर झूँठ का साथ नहीं होता मुझे बर्दास्त।
है अगर गर्ज, मर्ज दुनिया की गप्पे लड़ना,
तो सुनना पड़ेगा उसे मेरा भी अफसाना ।
सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

शनिवार, 5 मई 2012

एक सवाल..

नाहक ही पूंछ बैठे हम , कल एक सवाल उनसे ।
वो जिन्हे हम याद करते, थकते नही है दिल से ।

मन के कोनो मे जिनकी, याद बसी रहती है हर पल । 
ना केवल फ़ुरसत में, व्यस्तता के पलो मे भी हर पल ।

सवाल था सीधा सा, क्या कभी हम याद आते है उन्हे । 
बड़ी ही मासूमियत से फिर , वो बोले देखते हुये हमे ।

अरे क्यो सोंचा हम कभी याद करते नही तुम्हे ?
हर खाली लम्हों मे बस आप याद आते है हमें !

बात सही थी, यूँ आयी गयी और भुला दी गयी कुछ पल मे ।
पर यह भी सच है उन्हे खाली लम्हा मिलता कहां जीवन मे ?

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG