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रविवार, 6 मई 2012

क्यो होते बेकल रे मनवा…

क्यो होता बेकल रे मनवा , जग तो रिश्तो का मेला है ।
आज यहां कल वहां पर डेरा , ये जग बस रैन बसेरा है ।
आज तेरे जो संगी-साथी , कल होंगे किसी और के वो ।
आज शान जिनकी तुझसे , कल होंगे किसी और के वो ।

रोज बदलता जल नदिया का , रोज बदलती राह नदी ।
रोज पूर्व मे सूरज उगता , मगर नही टिकता है कभी ।
मौसम आते जाते हैं , नित नयी छ्टा वो लाते हैं ।
चाहे जितना चले पथिक , राह बदल ही जाते हैं ।

मत हो यूँ बेकल तू मनवा , यह तो जग का खेला है ।
आज अमावस रात अगर , कल पूर्णमासी का मेला है ।
कितना ही प्यारा हो तुमको , वस्त्र पुराना होगा ही ।
कितना ही तुम उसे सहेजो , उसको फ़टना होगा ही ।

इसी तरह जीवन के रिश्ते , जीर्ण उन्हे भी होना है ।
आज भले वो साथ तुम्हारे , कल तो उनको खोना है ।
मत सोंचो बाते कल की , देखो आज जो मेला है ।


सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2011 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

4 टिप्‍पणियां:




  1. क्यों होता बेकल रे मनवा !
    सुंदर गीत लिखा आपने …

    बंधुवर विवेक मिश्र जी
    नमस्कार !

    आपकी इस रचना सहित ब्लॉग की अन्य रचनाओं के लिए साधुवाद !

    मंगलकामनाओं सहित…
    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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