मेरी डायरी के पन्ने....

गुरुवार, 31 जुलाई 2014

तुम्हे शौख होगा...

तुम्हे शौख होगा चेहरे पर मुखौटे पहनने का,
हम अपने चहरे पर कोई नकाब नहीं रखते।

तुम्हे शौख होगा बातों को घुमाकर कहने का,
हम अपनी जबान में झूंठी मिठास नहीं रखते।

तुम्हे शौख होगा झूंठ को सच सच को झूंठ कहने का,
हम अपने जानिब झूंठी किस्सागोई का हुनर नहीं रखते।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

मंगलवार, 29 जुलाई 2014

एक सूफी कहानी....


एक फकीर सत्य को खोजने निकला। 
अपने ही गाव के बाहर, जो पहला ही संत उसे मिला, एक वृक्ष के नीचे बैठे, उससे उसने पूछा कि मैं सदगुरु को खोजने निकला हूं आप बताएंगे कि सदगुरु के लक्षण क्या हैं? 
उस फकीर ने लक्षण बता दिये...लक्षण बड़े सरल थे।
उसने कहा, ऐसे-ऐसे वृक्ष के नीचे बैठा मिले, इस-इस आसन में बैठा हो, ऐसी-ऐसी मुद्रा हो बस समझ लेना कि यही सदगुरु है।

फिर फ़क़ीर चल पड़ा खोजने सदगुरु...
कहते हैं तीस साल बीत गये, सारी पृथ्वी पर चक्कर मारा बहुत जगह गया, लेकिन सदगुरु न मिला। बहुत मिले, मगर कोई सदगुरु न था। थका—मादा अपने गाव वापिस लौटा। लौट रहा था तो हैरान हो गया, भरोसा न आया...वह बूढ़ा बैठा था उसी वृक्ष के नीचे। 
अब उसको दिखायी पड़ा कि यह तो वृक्ष वही है जो इस बूढ़े ने कहा था, ‘ऐसे-ऐसे वृक्ष के नीचे बैठा हो।’ और यह आसन भी वही लगाये है, लेकिन यह आसन वह तीस साल पहले भी लगाये था। क्या मैं अंधा था? इसके चेहरे पर भाव भी वही, मुद्रा भी वही। वह उसके चरणों में गिर पड़ा। कहा कि आपने पहले ही मुझे क्यों न कहा? तीस साल मुझे भटकाया क्यों? यह क्यों न कहा कि मैं ही सदगुरु हूं?

उस बूढ़े ने कहा, मैंने तो कहा था, लेकिन तुम तब सुनने को तैयार न थे। तुम बिना भटके घर भी नहीं आ सकते थे । अपने घर आने के लिए भी तुम्हें हजार घरों पर दस्तक मारनी पड़ेगी, तभी तुम आओगे। कह तो दिया था मैंने, सब बता दिया था कि ऐसे-ऐसे वृक्ष के नीचे, यही वृक्ष की व्याख्या कर रहा था, यही मुद्रा में बैठा था; लेकिन तुम भागे- भागे थे, तुम ठीक से सुन न सके; तुम जल्दी में थे। तुम कहीं खोजने जा रहे थे। खोज बड़ी महत्वपूर्ण थी, सत्य महत्वपूर्ण नहीं था तुम्हें। लेकिन आ गये तुम! मैं थका जा रहा था तुम्हारे लिए बैठा-बैठा इसी मुद्रा में! तीस साल तुम तो भटक रहे थे, मेरी तो सोचो, इसी झाड़ के नीचे बैठा कि किसी दिन तुम आओगे तो कहीं ऐसा न हो कि तब तक मैं विदा हो जाऊं! तुम्हारे लिए रुका था आ गये तुम! तीस साल तुम्हें भटकना पड़ा अपने कारण। जबकि सदगुरु मौजूद तुम्हारे सामने ही।

बहुत बार जीवन में ऐसा होता है, जो पास है वह दिखायी नहीं पड़ता, जो दूर है वह आकर्षक मालूम होता है। दूर के ढोल सुहावने मालूम होते हैं। दूर खींचते हैं सपने हमें।

अष्टावक्र कहते हैं कि तुम ही हो वही जिसकी तुम खोज कर रहे हो। और अभी और यहीं तुम वही हो।

तकनीकी का आया युग है..

देखो देश तरक्की पर है , तकनीकी का आया युग है ।
चोरी चोरी चुपके चुपके , कल तक बिकता था ईमान ।
आज बिक रहा है वो देखो , खुल्लम खुल्ला इंटरनेट पर ।
कल तक भाव लगा करता था , गिनकर खोखा पेटी को ।
आज बिक रहा है ईमान, नेतागण का लेकर नाम । 

देखो देश तरक्की पर है , तकनीकी का आया युग है ।
कल तक बिकते थे जनसेवक , सत्ता के तंग गलियारों में ।
आज बिक रहें है वो देखो  , खुल्लम खुल्ला इंटरनेट पर ।
पहले भाव बताते थे कुछ , सत्ता के घुसपैठ दलाल ।
आज लगाता भाव है देखो , इंटरनेट पर ओलेक्स डाट काम ।

देखो देश तरक्की पर है , तकनीकी का आया युग है ।
कल तक बिकती थी अस्मिता , लाल रोशनी की बस्ती में ।
आज बिक रही है वो देखो , खुल्लम खुल्ला इंटरनेट पर ।
पहले तो कुछ चुपके चुपके , लोग दलाली करते थे ।
आज कर रहा है सब खुलकर , इंटरनेट पर बाजी डाट काम ।

देखो देश तरक्की पर है , तकनीकी का आया युग है ।
कल तक रात अँधेरे में जो , लूट रहे थे राज पथो को ।
आज डकैती डाल रहे है  , खुल्लम खुल्ला इंटरनेट पर। 
कल तक गली मोहल्लो में जो , चोर सिपाही खेल रहे थे ।
आज खेलते हैं अब देखो , साइबर क्राईम डाट डाट काम ।

देखो देश तरक्की पर है , तकनीकी का आया युग है ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG 

गुरुवार, 24 जुलाई 2014

हाहाकार मचा है जग में..

हाहाकार मचा है जग में , चारो तरफ अँधेरा है ।
चाँद सो रहा अपने घर में , कोसो दूर सबेरा है ।
हर एक पल यूँ बीत रहे , जैसे मास गुजरते हैं ।
लम्हों की बात ही क्या , वो वर्षो जैसे लगते हैं ।

सिसक रहीं है कलियाँ सारी , फूल सभी मुरझाये हैं ।
डालो का कहना ही क्या , पत्तो पर काँटे उग आये हैं ।
ताल तलैया सूख गयी हैं , नदियां रेत उड़ती है ।
सागर का अब हाल देख , बादल तक घबड़ाते हैं ।

खाली हो गए खेत सभी , खलिहानों में है आग लगी ।
गाँवों के भी आँगन में , नव-बधुओं की है चिता सजी ।
सत्य अहिंसा की बोली , अब डगर डगर पर लगती है ।
रक्षक ही भक्षक बन कर , अब चला लूटने डोली है ।

कुछ खद्दरधारी नागों के संग , वर्दीधारी साँप मिलें हैं ।
न्यायपालिका के अन्दर , देखो अजगर पहुँच गए हैं ।
जिसको भी ये डस लेते हैं , मृत्यु नहीं वो पाता है ।
बन कर वो भी दानव दलय , अजर यहाँ हो जाता है ।

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मंगलवार, 22 जुलाई 2014

आखिर कब तक,,

बाँटते-बाँटते खंडित हो गया, खंड खंड में अखंड भारत ।
अब भी क्या तुम चाह रहे, और खंडित हो जाए भारत ?
हम कब कहते कोई धर्म सम्प्रदाय, होता है सम्पूर्ण बुरा ।
हम कब कहते एकाधिकार हो, भारत पर केवल अपना ?
हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई, हैं भारत में सब भाई-भाई ।
जो भी माने भारत माँ को , उससे कब है कोई लड़ाई ?

पर इसका यह अर्थ नहीं , हम बस बँटवारा करते जाए ।
क्या आस्तीन में पालें साँप, सर ना उनके कुँचले जाए ?
मानवता आदर्श हमारा , भाई चारा हमको अति प्यारा 
पर क्या उसके खातिर यूँ ही , बाँटने दें भारत हम प्यारा ?
आखिर कब तक खामोशी से, चुपचाप तमाशा देखा जाए ।
क्यों ना खोदकर जड़ दुश्मन की, मठ्ठा उसमे डाला जाए ?

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शनिवार, 19 जुलाई 2014

खुले दिल दिमाग से....

अपने पक्ष की कमियों को सदैव खुले दिल दिमाग से स्वीकार करना चाहिए 
और उसे बताने वाले को इसके लिए धन्यवाद का पात्र मानना चाहिए कि 
उसने आपकी कमियों को आपको बताकर आपको सुधार का अवसर दिया।
ठीक इसी प्रकार विरोधियो और शत्रुओं के गुणों की भी खुले मन और हृदय से 
सराहना करनी चाहिए और उन्हें उनके गुणों के लिए प्रशंसा का पात्र मानना चाहिए।


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शनिवार, 12 जुलाई 2014

वास्तव में...

ज्ञान प्राप्त करने हेतु अच्छा गुरु नितांत आवश्यक है 
परन्तु
गुरु के देने मात्र से ही शिष्य को ज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता है ,
वरन 
सजगता से शिष्य के प्रयत्न कर लेने से ही उसे ज्ञान प्राप्त होता है। 

यूँ तो 
गुरु के पास रहकर बहुत बार मन में भ्रम पैदा हो जाता है कि हमें बहुत कुछ मिल रहा है ,
परन्तु 
यदि हम पहले से ही भरे हुए पात्र  अथवा बिना पेंदी के बर्तन के समान हैं तो गुरु की ज्ञान वर्षा भी व्यर्थ है। 
वास्तव में 
गुरु तो सहज भाव से ही अपने समस्त शिष्यों को अपना ज्ञान लुटाता रहता है ,

जो अयोग्य होते हैं वो चूक जाते है। 
जो योग्य शिष्य होते हैं वो संगृहीत कर लेते हैं ,
और महान शिष्य, महान गुरुओ का नाम रोशन कर जाते है। 

"कोहिनूर सा बनने के लिए जितना महत्वपूर्ण ये है कि हीरे के टुकड़े को परख कर बेहतरीन तरीके से तराशने वाला मिले उतना ही महत्वपूर्ण ये भी है कि उस हीरे के टुकड़े में भी तराशने योग्य संभावना और क्षमता होनी चाहिए अन्यथा कोई भी जौहरी कोयले के टुकड़े को हीरा नहीं बना सकता। "


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बुधवार, 9 जुलाई 2014

कुछ कोरे कुछ भरे हुये…

जीवन के कुछ पन्ने , हम प्रतिदिन लिखते जाते हैं।
जीवन के कुछ पन्ने , फिर भी कोरे रह जाते हैं।
कुछ पन्नो पर हम प्रायः , लिखते पुनः मिटाते हैं।
कुछ पन्ने होते जीवन के , जो अमिट लेख बन जाते हैं।
कुछ पन्ने सुघड़ तरीके से , सुन्दरता से लिखे जाते हैं ।
कुछ पन्नो पर बस यूँ ही , आड़ा तिरछा गोदते जाते हैं।

कुछ पर हम ज़ीवन के , सुन्दर चित्र उकेरते जाते हैं ।
कुछ पर कई भयानक चेहरे , अपने से उभर कर आते हैं।
कुछ पर करते है लिपबद्ध , जीवन की संगीत लहरियां ।
कुछ पर अंकित हो जाती , दुख पीड़ा की कुछ घडियां ।
बस मे नही ये बात हमारे , अपने मन की लिखे तराने।
मत सोचों तुम इतना यारो , जीवन के हैं यही फ़साने।

 सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG