मेरी डायरी के पन्ने....

गुरुवार, 5 जून 2014

प्रकृति के नियम और हम..

अम्बर बरसै धरती भींजे , नदिया तब उतराए । 
सहेज समेट कर इस जल को , सागर में मिल जाए । 
सागर से फिर बादल बन कर , अम्बर को मिल जाए। 
इसी तरह से चलती रहती , प्रकृति की सब क्रीडाये। 

आओ हम भी अब बन जाए , प्रकृति के हमराही। 
एक दूजे पर प्रेम लुटाकर , कहलाये प्रेम पुजारी। 
जितना प्रेम लुटाएँगे हम , उससे ज्यादा पाएंगे। 
जितना प्रेम हम पाएंगे , वो सब तुमको लौटाएंगे।

अगर कहीं रुक गया नियम ये , धरती बंजर हो जायेगी। 
सूखेंगी सब नदिया सारी , सागर भी मिट जायेंगे। 
प्रेम की लय जो टूट गयी तो , तुम भी चैन ना पाओगे। 
मेरे जैसा साथी कोई , इस जग में फिर ना पाओगे। 

हमको अपना क्या कहना , बिन जल के ही मर जाएंगे। 
तेरे बिना इस धरती पर , कहीं चैन ना पाएंगे। 
तो फिर आओ करे प्रयत्न , नियम सदा ये अटल रहे। 
एक दूजे की खातिर हम , भावों से सदा भरे रहें। 

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG 


समय फिर लौट आता है...

समय सदैव ही अपने को दोहराता है ,
हमारा अतीत फिर भविष्य बन कर सामने आता है ।
जो बोया था हमने हमारे भूत काल में ,
वो ही आगे नयी पौध बनकर लहलहाता है ।

जो नापसंद था हमें हमारे अतीत में हमेशा ,
कि कोई क्यों वैसा करता है जो हमें नहीं भाता है ,
वही बाते वही आदते काल पात्र स्थान बस बदल कर ,
ये समय किसी और के लिए हमसे भी करवाता है ।

और देखो तमाशा समय का यारो हमेशा ही ,
कौन सही था कौन गलत अतीत में ,
ये वर्तमान ही हमें बता पाता है और ,
यूँ ही समय हमसे हमारे भावनाओं से खेलता जाता है ।

समय अपने बीतने के साथ साथ ,
हमें तमाम नए सबक सिखाता है ,
और यूँ ही कभी पछतावा तो कभी ,
एक नयी संतुष्टि का एहसास कराता है ।

जो बीता था अतीत जब फिर वर्तमान बन कर सामने आता है ,
बस एक ही अफसोस दिल में रह जाता है ,
हम बदल नहीं सकते उसे जो अतीत बन जाता है ,
भले ही समय काल-पात्र-स्थान-चाल-चरित्र-चेहरा बदल कर फिर लौट आता है ।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

सोमवार, 2 जून 2014

यूँ ही टाइम पास..

लो चली आज फ़िर से आंंधी चली , राहे अपनी वो खाली कराती चली । 
शाखे सूखी हो या हो हरे पेड़ों की, तोड़ कर वो पीछे गिराती चली ।
फ़ूल पत्तो के बारे मे क्या मै कहूँ  , उनकी तो हस्ती पूरी मिटाती चली।
राह मे जो भी आयेगा मिट जायेगा , तिनके तिनके को देखो उडाती चली।
घाव मेरे भी दिल पर लगाती चली, जुल्मो सितम जब वो तुम पर ढाती चली।
आंसूओ की कहाँ है उसको कदर , वो तो सागर को पोखर से मिलाने चली ।

बात करते हो क्यों तुम अभी धूप की, वो तो दिनकर की सत्ता झुकाने चली ।
कुटियों की अब मांगें हम खैरात क्या, वो तो महलो को भी खण्डहर बनाने चली।
रोंक पाओ अगर तो अभी रोंक लो , वर्ना हस्ती वो तुम्हारी मिटाने चली ।
क्यों छिपाते हो अब तुम मेरे राज को , वो सारी दुनिया को हकीकत बताने चली।
आग दिल मे लगे चाहे बस्ती जले , वो तुमको फ़िर मुझसे मिलाने चली ।
क्यों दिखाते हो तुम खौफ़ बाहुबलियों का, वो तो सूबो की पलटन हराने चली।

थी मेरे भी मन मे हसरत कहीं , आओ तिनको को आंधी से लडाने चले ।
जो उठी थी आहें कभी मेरे दिल से ,वो ही बनकर के आंधी है देखो चली ।
न्याय सबको वो सबसे दिलाने चली , नयी बस्तियो को फ़िर से बसाने चली।
ढांंप दिनकर को रैना बनाने चली , तेज भारत का सबको दिखाने चली।

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG