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रविवार, 2 फ़रवरी 2014

कंक्रीट के जंगलो में...

कंक्रीट के जंगलो में , जीने की मारा-मारी है। 
रोज खोदना कुआँ यहाँ , प्यास अगर बुझानी है। 
क्या हक़ तेरा क्या है मेरा , बात ही करना नादानी है। 
चंडाल चौकड़ी की केवल , चलती यहाँ मनमानी है। 
यहाँ अपना पराया गड्मड है , मतलब की दुनियादारी है। 
रिश्ते नातो को समय नहीं , आभासी दुनिया से बस यारी है। 

क्या यही है जीवन जो हम जीते ,भूल गये हम कब हैं जीते ?
आँख खुली शुरू भागम-भाग , क्यों यंत्र मानव सा हम जीते ?
पैसा-पैसा केवल पैसा , है किसके लिए ये सारा पैसा ?
जिनके लिए हम चाहते पैसा , क्या उन्हें नजदीक है लाता पैसा ?
ना स्वाभिमान ना दिलो में मान , बेच दिया हम सबने सम्मान। 
गला काट जीवन की होड़ में , बस भरते हम एक दूजे के कान। 

सर्वाधिकार प्रयोक्तागण 2014 © ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡3TW9SM3NGHMG

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ミ★विवेक मिश्र "अनंत"★彡
"अगर है हसरत मंजिल की, खोज है शौख तेरी तो, जिधर चाहो उधर जाओ, अंत में फिर मुझको पाओ। "

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